Friday 26 April 2024

बीजः एक असीम संभावना...

बीजः एक असीम संभावना----

उठ सके,
अध्यात्म के शिखर तक,
छुपी हैं ऐसी
अनंत संभावनाएँ,
मनुज में।
होती हैं,
हर बीज में ज्यों
वृक्ष बनने की।
जरुरत है बस
सम्यक् तैयारी की,
समुचित खुराक,
उचित पोषण, पल्लवन की।

बीज अल्प नहीं,
मूल है वह-
समूचे वृक्ष का।
बीज रूप है सृष्टा।
बीज को बीज की तरह ही
संजोए रखा
तो क्या नया किया तुमने ?
अरे १
उसे हवा, पानी, खाद दो।
नई रौशनी दो।
फैलने को क्षितिज सा विस्तार दो।
निर्बंध कर दो उसे।
उड़ने दो पंख पसार,
सुदूर गगन में।

बीज को
वृक्ष बनाना है अगर,
मोह बीज का,
छोड़ना होगा।
पूर्ण मानव की प्रतिष्ठा हित,
मोह शिशु का,
छोड़ना होगा।

बीज हैं हम सब।
लिए अनंत संभावनाएं
निज में।
करनी है यात्राएँ अनंत,
वृक्ष बनने तक।
फलने फूलने तक।
साकार होंगी तभी,
संभावनाएँ अनंत।

असीम बनने के लिए,
करना होगा निज को,
विलीन शून्य में।
निज को बड़ा नहीं बनाना,
विसर्जित करना है खुद को।
हटानी होगी खरपतवार-
क्रोध, ईर्ष्या, नफरत, शक, संदेह की।
हो निजत्व विसर्जित,
समष्टि में।
है यही धर्म,
सार्थकता जीवन की।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

साझा संग्रह 'सृजन संसार' में प्रकाशित



Thursday 25 April 2024

भय लगता है...

भय लगता है....

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

परंपराएँ युगों-युगों की,
त्याग भला दें कैसे ?
चिकनी नयी सड़क पर बोलो,
दौड़ें  सरपट  कैसे ?
हो जाएँगे चोटिल सचमुच,
फिसले और गिरे तो।
झूठे जग के बहलावों से,
भय लगता है।

बहे नदी -सा छलछल जीवन,
रौ में रहे रवानी।
पसर न जाए तलछट भीतर,
बुढ़ा न सके जवानी।
हलचल भी गर हुई कहीं तो,
गर्दा छितराएँगे।
ठहरे जल के तालाबों से,
भय लगता है।

चूर नशे में बहक रहे सब,
परवाह किसे किसकी ?
दिखे काम बनता जिससे भी,
बस वाह करें उसकी।
झूठ-कपट का डंका बजता,
भाव गिरे हैं सच के।
स्वार्थ-लोभ के फैलावों से,
भय लगता है।

भूल संस्कृति-सभ्यता अपनी,
पर के पीछे डोलें।
अपनी ही भाषा तज बच्चे,
हिंग्लिश-विंग्लिश बोलें।
घूम रहीं घर की कन्याएँ,
पहन फटी पतलूनें।
पश्चिम के इन भटकावों से,
भय लगता है।

आज कर रहे वादे कितने,
सिर्फ वोट की खातिर।
निरे मतलबी नेता सारे,
इनसे बड़ा न शातिर।
नाम बिगाड़ें इक दूजे का,
वार करें शब्दों से।
वाणी के इन बहकावों से,
भय लगता है।

गुजरे कल की बात करें क्या,
पग-पग पर थी उलझन।
मंजर था वह बड़ा भयावह,
दोजख जैसा जीवन।
वक्त बचा लाया कर्दम से,
वरना मर ही जाते।
गए समय के दुहरावों से,
भय लगता है।

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

लगने दो कुछ हवा बदन में...

लगने दो  कुछ  हवा  बदन में...

लगने दो  कुछ  हवा  बदन में।
निकल न जाएँ  प्राण घुटन में।

आज   रात    पाला   बरसेगा,
कुहर  घना  है  देख  गगन  में।

खोज रहा क्या सुख ये पगला,
रुक-रुक चलता चाँद गगन में।

आती  होगी   चीर  गगन  को,
किरन छुपी जो तमस गहन में।

लक्ष्य प्राप्ति हित पथिक अकेला,
चलता  जाता  दूर  विजन  में।

खुशी निराली  छायी- जब से
चाह उगी  है   मन-उपवन  में।

मद मत्सर औ स्वार्थ लिप्त हो,
झुलस रहा नर  द्वेष-अगन में।

बारिश की अब झड़ी लगेगी,
घिर  आए  हैं  मेघ  नयन में।

कतरा-कतरा   चीख रहा है,
भभक रही है आग बदन में।

अंतस सबका चीर रही है,
उफ ! कितनी है पीर कहन में।

जितने जन उतने मत 'सीमा',
बातें अनगिन भरीं जहन में।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

किस्मत का अपनी खाते हैं...

अपनी किस्मत का खाते हैं।
कुछ सूखा कुछ तर खाते हैं।  

जुड़े जिन्हें  दो जून  न रोटी,
आँसू  पीते,   गम  खाते हैं।

कितने भूखे  फुटपाथों  पर,
तड़प-तड़प कर मर जाते हैं।

हिंसक पशु भी उनसे अच्छे, 
कहर  दीन पर जो  ढाते हैं।

कर्म निरत नित जीव जगत के,
दाना-तिनका चुग लाते हैं।

नीयत शुद्ध साफ हो जिनकी,
घर हर दिल में कर जाते हैं।

जोश-लगन-जज्बा हो जिनमें,
स्वर्ग  धरा  पर  ले आते हैं। 

करें  भरोसा  कैसे उन पर,
वादों से जो  फिर  जाते हैं।

चुप कर 'सीमा' बोल न ज्यादा
सच्चाई   सब   झुठलाते  हैं। 

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

किस्मत भी कुछ भली नहीं है...

किस्मत भी कुछ  भली नहीं है।
कैसे कह दूँ        छली नहीं है।

दाल  किसी  की   आगे उसके,
देखी  हमने       गली  नहीं  है।

साथ  निभाती  झूठ  कपट का,
साँचे   सच  के  ढली  नहीं  है।

देती  पटकी      बड़े-बड़ों  को,
कोई  उस  सा   बली  नहीं  है।

स्वाद  कसैला  तीखा  उसका,
मिश्री की  वो    डली  नहीं है।

खूब  दिखाती   लटके-झटके,
घर  निर्धन के   पली  नहीं  है।

आग  उगलती     अंगारे  सी,
नाजुक  कोई   कली  नहीं है।

कितना पकड़ो हाथ न आती,
छोड़ी   कोई   गली  नहीं  है।

भली किसी की, बुरी किसी की,
साम्य-भाव  से  चली नहीं है।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

बादलों पर घर बनाया है किसी ने...

बादलों पर घर बनाया है किसी ने।
चाँद को फिर घर बुलाया है किसी ने।

भावना के द्वार जो गुमसुम खड़ा था,
गीत वो फिर गुनगुनाया है किसी ने।

आँधियों में उड़ गया जो खाक होकर,
नीड़ वो फिर से सजाया है किसी ने।

चीरकर गम-तम उजाले बीन लाया,
मौत को ठेंगा दिखाया है किसी ने।

चार दिन की चाँदनी कब तक छलेगी,
ले तुझे दर्पण दिखाया है किसी ने।

आजमाता जो रहा अब तक सभी को,
आज उसको आजमाया है किसी ने।

दोष सारे आ रहे अपने नजर अब,
आँख से परदा हटाया है किसी ने।

बिजलियाँ उस पर गिरी हैं आसमां से,
दिल किसी का जब दुखाया है किसी ने।

जुल्म अब होने नहीं देंगे कहीं हम,
आज ये बीड़ा उठाया है किसी ने।

गूँजता अब हर दिशा में नाम उसका,
काम ऐसा कर दिखाया है किसी ने।

आ रही 'सीमा' लहू की धार रिस कर,
देश हित फिर सिर कटाया है किसी ने।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद.( उ.प्र.)

सूर्य तम दलकर रहेगा...

सूर्य  तम  दलकर रहेगा।
हिम जमा गलकर रहेगा।

ज्ञान   से   अज्ञान   हरने,
दीप इक जल कर रहेगा।

लिप्त जो मिथ्याचरण में,
हाथ  वो मल कर  रहेगा।

कुलबुलाता नित नयन में
स्वप्न अब फल कर  रहेगा।

है फिसलती रेत जिसमें,
वक्त  वो टल  कर रहेगा।

तू दबा ले लाख मन में,
राज हर खुलकर रहेगा।

बोल कितने ही मधुर हों,
दुष्ट  तो  छल कर  रहेगा।

तू भला कर या बुरा कर,
कर्म हर फल कर रहेगा।

है धधकती आग जिसमें,
प्राण में  ढलकर रहेगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद.( उ.प्र.)

आज जब वाद सब सुलझने लगे...

आज जब वाद सब  सुलझने लगे।
बेवजह  आप  क्यों  उलझने लगे ?

शाख भी  फिर लचक  टूटने लगी,
फूल भी  जो खिले   मुरझने लगे।

था हमें  भी कभी   शौक ये मगर,
आप क्यों  आग से   खेलने लगे ?

रात भी जा रही क्षितिज पार अब,
चाँद - तारे   सभी   सिमटने  लगे।

दोष  मय का नहीं   होश गुल हुए,
पाँव  ये  आप  ही   बहकने  लगे।

फेर है वक्त का  अजब क्या कहें,
फूल भी आग   बन दहकने लगे।

सो रहे स्वप्न जो    रूठकर कभी,
आज फिर जी उठे  चहकने लगे।

क्या कहें क्या नहीं  सूझता न था,
वो  हमें   हम  उन्हें   देखने  लगे।

आ रही  बात सब समझ अब मुझे,
हादसे   रास्ते      बदलने    लगे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Thursday 18 April 2024

हँस जरा जो बोल दे तू...

हँस जरा जो बोल दे तू....

हँस जरा जो बोल दे तू,
बोल वो अमृत लगेगा।
दे जहर भी हाथ से फिर,
वो मुझे अमृत लगेगा।

झुरझुरी सी है बदन में,
देह ठंडी सी पड़ी है।
मौत ही यूँ लग रहा है,
सामने मेरे खड़ी है।
बोल मृदु दो बोल दे तू,
शब्द हर अमृत लगेगा।

लग रहा है आज जैसे,
खोल अपना खो रही हूँ।
प्राण तुझमें जा रहे हैं,
लय तुझी में हो रही हूँ।
आँख भर जो देख ले तू,
दृश्य वो अमृत लगेगा।

होंठ भिंचते जा रहे हैं।
बोल फँसते जा रहे हैं।
क्या कहूँ तुझसे अधिक अब,
पल सिमटते जा रहे हैं।
नेह-रस जो घोल दे तू,
आचमन अमृत लगेगा।

बैठ पल भर पास मेरे।
देख आँखों  के अँधेरे।
वत्स ! इनमें भर उजाला,
मिट चलें ये तम घनेरे।
पूर्ण अगर ये साध कर दे,
मौन भी अमृत लगेगा।

याद कर वो दिन तुझे जब
गोद में मैंने खिलाया।
बाँह का पलना बनाया,
थपकियाँ देकर सुलाया।
अंक में भर ले अगर तू,
क्षण मुझे अमृत लगेगा।

आँख जब तू फेरता है।
तम सघन मन घेरता है।
आ हलक तक प्राण मेरा ,
मौत ही तब हेरता है।
खुश नजर इस ओर कर ले,
देखना अमृत लगेगा।

मैं अकेली जब जगत में,
जीविका हित जूझती थी।
लौट जब आती, लपक कर-
बस तुझे ही चूमती थी।
आज कुछ तू ध्यान रख ले,
वक्त ये अमृत लगेगा।

हो रहा है तन शिथिल अब,
बढ़ रही है उम्र मेरी।
डगमगाते पाँव पग-पग,
माँगते हैं  टेक तेरी।
तू बने लाठी अगर तो,
ये सफर अमृत लगेगा।

फड़फड़ाती लौ दिए की,
फड़फड़ाते प्राण हैं यों।
काल हरने प्राण ही अब,
आ रहा इस ओर हो ज्यों।
मोह से निज मुक्त कर दे,
त्याग ये अमृत लगेगा।

हँस जरा कुछ बोल दे तू,
बोल हर अमृत लगेगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
'पल सुकून के' से

कभी लूडो कभी कैरम...

कभी लूडो कभी कैरम, कभी शतरंज से यारी।
कभी हो ताश की बाजी, सुडोकू भी लगे प्यारी।
कहीं लगता नहीं जब मन, इन्हीं से बस बहलता है,
हमें प्रिय खेल ये सारे, लगी है लत हमें भारी।

रखे हों पास में लड्डू, न ललचाए मगर रसना।
भले ही लार टपके पर, नहीं इक कौर भी चखना।
यही है पाठ संयम का, सदा कसना कसौटी पर,
नियंत्रण में परम सुख है, यही बस ध्यान तुम रखना।



© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Tuesday 16 April 2024

पर्वत और गिलहरी...

पर्वत और गिलहरी...

एक दिवस कुछ बहस छिड़ी,
पर्वत और गिलहरी में।
पर्वत विशाल था, बोला-
ए तुच्छ ! किस हेकड़ी में ?

बोली गिलहरी सच कहा,
निस्संदेह तुम्हीं बड़े हो।
स्थिर हो यूँ एक जगह,
क्यूँ अकड़े तने खड़े हो ?

राह मनोरम प्यारी-सी,
माना तुम्हीं बनाते हो।
हँसो और पर इस काबिल,
न इससे तुम हो जाते हो।

नहीं तुम्हारी-सी मैं तो,
तुम्हीं कहाँ मेरे से हो ?
मैं फुर्तीली चुस्त बड़ी,
तुम स्थिर बुत जैसे हो।

नहीं ग्लानि मुझको कोई,
अगर नहीं मैं तुम जैसी।
नहीं तनिक भी तो तुममें,
त्वरित सोच  मेरे जैसी।

सिर्फ एक के होने से,
जगत न बनता-मिटता है।
टर्र-टर्र से मेंढक की,
मौसम नहीं बदलता है।

एक अकेला चना कहो,
फोड़ कभी क्या भाड़ सके?
खड़ा मूढ़मति एक जगह,
आया जोखिम ताड़ सके ?

सबको सबसे अलग करें,
कौशल सबके जुदा-जुदा।
परख हुनर हर प्राणी के,
देता उन में बाँट खुदा।

खुश मैं लघुता में अपनी
होड़ न जग से करती हूँ।
स्वच्छंद विचरती हर सूं,
जरा न तुम से डरती हूँ।

तुच्छ बदन पर मैं अपने,
वन यदि लाद नहीं सकती।
नट ये तोड़ दिखा दो तुम,
अधिक विवाद नहीं करती।

काम बनाए सुईं जहाँ,
तलवार पड़ी रह जाए।
समझ सको ये मर्म अगर,
किस्सा यहीं सुलझ जाए।

नियत सभी की सीमाएँ,
नियत सभी के काम यहाँ।
रचयिता अपनी सृष्टि का,
देख रहा सब बैठ वहाँ।

और अधिक क्या जिरह करूँ
तुमसे मेरा जोड़ कहाँ ?
सच कहते हो भाई तुम,
मेरी तुमसे होड़ कहाँ ?

अपनी-अपनी कह दोनों,
करने अपना काम चले।
हम भी थककर चूर हुए,
करने अब आराम चले।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'पल सुकून के' से

(आंग्ल कवि Ralph Waldo Emerson की कविता 'The mountain and the squirrel' का मेरे द्वारा काव्यात्मक भावानुवाद)

Monday 8 April 2024

माता के नवरूप...

अद्भुत माँ की शक्तियाँ,  अद्भुत माँ के रूप।
दर्शन दो माँ भक्त को,       धारे रूप अनूप।।१।।

वर दो माँ सिंहवाहिनी,        टूटे हर जंजीर।
भव-बंधन से मुक्त कर, हर लो मन की पीर।।२।।

नौ दिन ये नवरात्र के,   मातृ शक्ति के नाम।
मातृ भक्ति से हों सदा, सिद्ध सभी के काम।।३।।

पूजो माता के चरन,   ध्या लो उन्नत भाल।
वरद हस्त माँ का उठे, हर ले दुख तत्काल।।४।।

रिपुओं से रक्षा करे,    बने भक्त की ढाल।
बरसे जब माँ की कृपा, कर दे मालामाल।।५।।

कलुष वृत्ति मन की हरें, माता के नव रूप।
भक्ति-शक्ति के जानिए,   मूर्तिमंत स्वरूप।।६।।

नारी का आदर करें,     रख मन में सद्भाव।
कारक बने विकास का, नर-नारी समभाव।।७।।

जगत-जननी माँ अंबे,   ले मेरी भी खैर।
मैं भी तेरा अंश हूँ, समझ न मुझको गैर।।८।।

भाव मधुर चुन चाव से, सजा रही दरबार।
मेरे घर भी अंबिके,  आना  अबकी  बार।।९।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
फोटो गूगल से साभार

Monday 1 April 2024

माहे रमजान...

हर बरकत दे आपको, पाक माह रमजान।
पथ पर नेकी के चलो, कहती है कुरआन।।१।।

रहमत का अशरा प्रथम, बरसे नूर शबाब।
हर नेकी का पाइए,      सत्तर गुना सवाब।।२।।

दूजा अशरा मगफिरत, देता यही सलाह।
तौबा करो गुनाह से, माफ करे अल्लाह।।३।।

दोज़ख से रक्षा करे, अशरा तीजा खास।
एतक़ाफ में बैठकर, करें ध्यान उपवास।।४।।

मदद मुस्तहिक़ की करें, आएँ उनके काम।
तन-मन-धन से साथ दें, करें न केवल नाम।।५।।

कुरान गीता बाइबिल, सार सभी का एक।
धर्म चुनो कोई मगर,  कर्म करो बस नेक।।६।।

पथ सच्चाई का वरो, करो न खोटे कर्म।
जात-पाँत सब व्यर्थ है, मानवता ही धर्म।।७।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
फोटो गूगल से साभार

Tuesday 19 March 2024

आया फागुन मास...


नस-नस में रस पूरता, आया फागुन मास।
रिसते रिश्तों में चलो,  भर दें नयी उजास।।१।।

झरते फूल पलाश के,  लगी वनों में आग।
रंग बनाएँ पीसकर, खेलें हिलमिल  फाग।।२।।

आयी रे होली सजन, आओ खेलें रंग।
इस मस्ती हुडदंग में, झूमें पीकर भंग।।३।।

हर्षोल्लास उमंग ले,   आया फागुन मास।
कृष्ण बजाएँ बाँसुरी,  करें  गोपियाँ  रास।।४।।

श्री राधे की लाठियाँ, श्री कान्हा की ढाल।
बरसाने की छोरियाँ, नंदगांव के लाल।।५।।

भर मस्ती में झूमते, मन में लिए उमंग।
हुरियारे - हुरियारिनें,    रँगे प्रेम के रंग।।६।।

गली-गली में हो रहा,   होली का हुड़दंग।
श्वेत-श्याम सी मैं खड़ी, कौन लगाए रंग।।७।।

नफरत की होली जले, उड़ें प्यार के रंग।
आनंदमय त्यौहार हो, रहें सभी मिल संग।।८।।

होली की शुभकामना, करें सभी स्वीकार।
मनचाही खुशियाँ मिलें, सुखी रहे परिवार।।९।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )


Saturday 16 March 2024

मन चला प्रभु की शरण में...

मन चला प्रभु की शरण में...

शुद्धता  भर  आचरण   में।
मन चला प्रभु की शरण में।

होम   कर  सब  कामनाएँ,
सिर झुका उसके चरण में।

ओsम का स्वर गूँजता बस,
घोलता  सा  रस  श्रवण में।

गंध  तिरती  है  अगरु  की,  
वायु  के  मृदु   संचरण  में।

भोर  रक्तिम    झाँकती  है,
रात  के  अंतिम  चरण  में।

दिव्यता का  भाव ही  बस,
भर  रहा    अंतः करण  में।

भाव से  रहता  विमुख जो,
दोष   ढूँढे   व्याकरण   में।

है  पृथक्   सबकी  महत्ता,
कार्य - कर्ता  या  करण में।

ले  अ'सीमा'नंद   जग   के,
रह  सचेतन   जागरण  में।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ. प्र. )

Thursday 14 March 2024

कभी लूडो कभी कैरम...

कभी लूडो कभी कैरम, कभी शतरंज से यारी।
कभी हो ताश की बाजी, सुडोकू भी रहे जारी।
कहीं लगता नहीं जब मन, इन्हीं से बस बहलता है,
हमें प्रिय खेल ये सारे, लगी है लत हमें भारी।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Wednesday 13 March 2024

सब दिन एक न होते हैं....

सब दिन एक  न  होते हैं...

नित  परिवर्तित   होते  हैं।
सब दिन एक  न  होते हैं।

कैसे   उनको   समझाएँ,
बात - बात  पर  रोते  हैं।

दुख भी  अपने  साथी हैं,
मैल  मनों  का   धोते  हैं।

देखो  अपने  घर  में   ही, 
कहाँ  एक  सब  होते  हैं।

कुछ के हिस्से कलियाँ तो,
कुछ  काँटों  पर  सोते  हैं।

ऐसे  भी  हैं    लोग  यहाँ,
भार  और   का  ढोते  हैं।

मोल समझते पल-पल का,
वक्त  न  अपना  खोते  हैं।

रत  रहते    परमारथ    में
बीज  खुशी  के  बोते   हैं।

© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Tuesday 12 March 2024

आया कलयुग घोर...

कांजी की इक बूँद से,  फटते नहीं समुद्र।
मान न घटता आपका, कह लें कुछ भी क्षुद्र।।

घड़ा पाप का भर गया, आया कलयुग घोर।
चोरी करके हँस रहा,      खड़ा सामने चोर।।

घाघ सरीखे जन हुए, करें न सीधी बात।
घेरे रहता आजकल, भय कोई अज्ञात।।

© सीमा अग्रवाल

Monday 11 March 2024

बनें आत्मनिर्भर सभी....

रोजगार सबको मिले,  रहे आत्म सम्मान।
बनें आत्मनिर्भर सभी, हो अपनी पहचान।।

बनें योग्य सक्षम सभी, हासिल करें मुकाम।
स्वाभिमान सबमें रहे,    हो न कोई गुलाम।।

उद्यम से सब काम हों, उद्यम बिन जड़ प्राण।
उद्यम को पूजा समझ,      कहते वेद-पुराण।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Saturday 9 March 2024

आगे-आगे देखिए...

बला और पर डालकर, साध चले निज काज।
देखे हमने आज ही,         ऐसे तिकड़म बाज।।

आगे-आगे देखिए, क्या-क्या करें कमाल।
किसमें इतना दम कहो, इनसे करे सवाल।।

चढ़ा आवरण झूठ का, दिखते हैं झक्कास।
कहने भर के ठाठ बस, भीतर से खल्लास।।

लोभ-द्वेष औ स्वार्थ का, लगा जिन्हें है रोग।
जुड़ पाएंगे क्या कभी,     मन से ऐसे लोग ?

चालू अपनी चाल चल, मंद-मंद मुस्कात।
दुरुपयोग कर शक्ति का, रचता नित उत्पात।।

© सीमा अग्रवाल

Thursday 7 March 2024

जब हृदय निज देखती हूँ...

जब हृदय निज देखती हूँ।
बस तुम्हें ही देखती हूँ।

शीत की ठंडी लहर में,
हो उतरते ताप से तुम।
जम गए जो भाव उनमें,
लग रहो हो भाप से तुम।
गुनगुनी इस धूप में मैं,
प्राण शीतल सेकती हूँ।

लाँघता हर कामना की,
आज जर्जर देहरी मन।
भावनाएँ पूत सारी,
कर चला तुमको समर्पन।
आज बाँहों को तुम्हारी,
प्राण घायल सौंपती हूँ।

प्यास जीवन की मिटी अब,
भर गए मनकूप सारे।
तिर रहे हैं नैन में बस,
मनलुभावन रूप प्यारे।
अब झुकी दर पर तुम्हारे,
माथ अपना टेकती हूँ।

प्यार जो हमने किया था,
क्या किसी को प्यार होगा ?
प्यार की इस श्रंखला का,
कौन अब हकदार होगा ?
लद गए हा ! दिन सुखद वो
ताल गम की ठोकती हूँ।

मैं खिली सूरजमुखी सी,
ज्येष्ठ का जब सूर्य थे तुम।
काम को मन पर मिली जो,
उस विजय का तूर्य थे तुम।
क्या समय था क्या हुआ अब,
शांत बैठी सोचती हूँ।

बस तुम्हें ही देखती हूँ।
जब स्वयं को देखती हूँ।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
काव्य संग्रह 'पल सुकून के' से

नारी अब अबला नहीं...

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर-

अपनी सुविधा के लिए, जोड़-तोड़ कर कर्म।
नियम पुरुष ने खुद गढ़े, कहा उन्हें फिर धर्म।।१।।

अपराधों का आंकड़ा,  बढ़ जाता हर बार।
नर पर आश्रित नारियाँ, सहने को लाचार।।२।।

जागो जग की नारियों, लो अपने अधिकार।
त्याग तुम्हारा ये पुरूष,    बना रहे हथियार।।३।।

जानें समझें बेटियाँ, अपना हर अधिकार।
निज पैरों पर हों खड़ी, कहे न कोई भार।।४।।

वृत्ति आसुरी त्याग दो, बनो मनुष्य महान।
नारी का आदर करो, पाओ खुद भी मान।।५।।

नारी अब पीछे कहाँ, गढ़ती नव प्रतिमान।
बना रही हर क्षेत्र में, नित नूतन पहचान।।६।।

अब नारी के रूप में, हुआ बहुत बदलाव।
हर क्षण आगे बढ़ रही, पाँव नहीं ठहराव।।७।।

नारी अब अबला नहीं, करती डटकर वार।
अपने पैरों पर खड़ी, नहीं किसी पर भार।।८।।

बढ़चढ़ हर उद्योग में, हासिल करे मुकाम।
घर-बाहर सब देखती, बिना किए आराम।।९।।

नारी बहुत सशक्त है, दीन-हीन मत जान।
सकल सृष्टि की जननी, शक्ति-पुंज महान।।१०।।

नारी नर की जननी, नारी जगत- आधार।
ये सृष्टि क्या सृष्टा भी, बिन नारी निरधार।।११।।


न हो आश्रित कभी नर पर, इसी में श्रेय नारी का।
खड़ी हो पैर पर अपने, प्रथम हो ध्येय नारी का।
जना ब्रह्मांड है जिसने, भला कमतर किसी से क्यों ?
करे जो मान नारी का, वही हो प्रेय नारी का।

डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र )

Wednesday 28 February 2024

माँ सच्ची संवेदना...


माँ सच्ची संवेदना…

माँ सच्ची संवेदना, माँ कोमल अहसास।
मेरे जीवन-पुष्प में, माँ खुशबू का वास।।

रंग भरे जीवन में जिसने, महकाया संसार।
पाला पोसा जानोतन से, दिया सुघड़ आकार।
खुश रहे जो मेरी खुशी में, अपनी खुशी बिसार,
ममता की मूरत उस माँ पर, दूँ सर्वस्व निसार।

भुला न पाऊँ माँ की ममता, नेह भरे उद्गार।
आँसू जब-जब भरे नयन में, तुरत लिया पुचकार।
हर मुश्किल में हर विपदा में, बनती माँ ही ढाल,
माँ से खुशियाँ माँ से हर सुख, माँ से ये संसार।

कितना सुकूं और कितनी राहत, देता माँ का आँचल।
चुटकी में हर गम हर लेता, मेरी माँ का आँचल।
सूनी आज निगाहें मेरी, बह गया आँखों का काजल।
कोई लौटा दे आज मुझे, मेरा बचपन माँ का आँचल।

कर सकता नहीं ईश्वर भी, माँ की ममता से समता।
नौ मास कोख में रखने की, नहीं उसमें भी क्षमता।
अतुलनीय है त्याग, अकल्पनीय समर्पण उसका,
थम जाए व्यापार जग का, प्यार न माँ का थमता।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )


Monday 26 February 2024

खुश रहो तुम सदा...

खुश रहो तुम सदा, खिलखिलाते रहो।

गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

बेकली मन बसी, क्या करें जी रहे।
रोज ही सब्र का,    घूँट हम पी रहे।
खो न दें होश भी, क्रोध-आवेश में,
जो मिले वो सही,  शुभ मनाते रहो।
गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

बेवजह कुछ नहीं, वस्तु संसार में।
तुच्छ का भी लगे, मोल बाजार में।
वक्त के चक्र से, कब किसे क्या मिले,
कर्म से भाग्य नित, आजमाते रहो।
गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

सूर्य भी दे रहा,  सीख ये झुक तुम्हें।
चाँद-तारे कहें, ठिठक रुक-रुक तुम्हें।
पा अगर लो कभी, स्वर्ग सी उच्चता,
भूमिजों के सदा,  काम आते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

मनुज-तन जो मिला, पुण्य से कम नहीं।
सुख जगत के सभी,  ना मिलें गम नहीं।
परम की खोज में, सौंप कर जान-तन,
बीहड़ों में सदा,  गुल खिलाते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

फल सरस हो मधुर, बीज वो बो चलें।
सूर्य फिर जी उठे,     रात से हम ढलें।
वृक्ष-नद-मेघ सम, नित परार्थ में लगे,
स्वयं को होम कर,   हर्ष पाते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
'मनके मेरे मन के' से


Saturday 24 February 2024

लो प्रभु फिर अवतार....

गोबरधनधारी, कृष्ण मुरारी, लो प्रभु फिर अवतार।
दुर्जन व्यभिचारी, अत्याचारी, बने धरा पर भार।
कराहती धरती, धीर न धरती, बढ़ते निसदिन पाप
निज चक्र उठाओ, शंख बजाओ, हरो जगत- संताप।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
फोटो गूगल से साभार

Friday 23 February 2024

बातों-बातों में...



उपलब्धियों की पोशाक में कंगूरे-बूटे टाँकते चलिए।
कुछ सुनिए औरों की कुछ अपनी भी हाँकते चलिए।

कहते हैं- कहने से मन की, मन की परतें खुलती हैं।
बातों- बातों में यूँ गिरेबान में सबकी झाँकते चलिए।

सीखिए तजुर्बे से वृद्धों के, सीख काम बहुत आएगी।
मिलें जो निज जीवन में वे अनुभव भी बाँटते चलिए।

यूँ बड़े लोगों से मिलना एक दिन बड़ा तुम्हें बनाएगा।
हुनर और गुर सब उनके मन में सदा आँकते चलिए।

छूकर बुलंदियाँ आसमां की   अपने भी हो जाते दूर।
रह जमीं पर संग अपनों के खाई बैर की पाटते चलिए।

माघ मास की शीत त्रासद, कितने तन पर वसन नहीं।
कंबल स्वेटर साथ लिए, कँपते हाड़ को ढाँकते चलिए।

पद-चिन्हों पर चलें तुम्हारे, पंथ-अनुगामी बनें पीढ़ियाँ।
पथ प्रशस्त हो आगत का, यूँ ही धूल न फाँकते चलिए।

मंजिल तक जाने में मुमकिन है मुश्किलें हजारों आएँगी।
रोड़े-पत्थर काँटे-कंकर  आएँ जो पथ में छाँटते चलिए।

सुख-दुख मन के भाव हैं दो, चक्रवत् नित आते-जाते।
सत्कर्मों की ढाल लिए    पर्वत दुख के लाँघते चलिए।

कोई किसी से कम न ज्यादा सबकी अपनी 'सीमा' है।
दुश्मन के भी गुणों को श्रीमुख से अपने बाँचते चलिए।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
'मृगतृषा' से


Thursday 22 February 2024

कोयल परभृत नार....

मूर्ख बनाती काक को, कोयल परभृत नार।
अंडे उसके नीड़ रख,   खुद उड़ जाती पार।।

अंडे सेता मूढ़ बन,    कौआ मति से हीन।
उल्लू अपना साधती, कोयल छली प्रवीन।।

निपट सयानी कर्कशा, कामचोर अति क्रूर।
धूर्त लड़ाकू आलसी, पिक छल से भरपूर।।

© सीमा अग्रवाल,
फोटो गूगल से साभार

Tuesday 13 February 2024

चाँदी की चादर तनी...

चाँदी की चादर तनी, हुआ शीत का अंत।
टेसू-ढाक-पलाश ले,    खेले फाग बसंत।।

ठूँठ हुए हर वृक्ष पर, आए पल्लव-फूल।
पीत बरन भू- सुंदरी, ओढ़े खड़ी दुकूल।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Friday 9 February 2024

रूप मधुर ऋतुराज का...

नया-नया आगाज है,  नया-नया उल्लास।
भाव-भंगिमा ले नवल, आया लो मधुमास।।१।।

ऋतु बसंत का आगमन, मादक बहे बयार।
तन-मन तंद्रिल कर रहा, मस्ती भरा खुमार।।२।।

गदराया भू का बदन, झलके मुख पर लाज।
यौवन-मद में झूमता,  कामसखा ऋतुराज।।३।।

खिली कली कचनार की, दहका फूल पलास।
नव लतिकाएँ बाँचतीं, ऋत्विक नव्य हुलास।।४।।

खिली-खिली फुलवारियाँ, अलिदल की गुंजार।
चंपा-जूही-मालती,  किंशुक-हरसिंगार।।५।।

अधरों पर शतदल खिले, मुख पर खिले गुलाब।
मौसम है मधुमास का,   अंग-अंग पर आब।।६।।

रूप मधुर ऋतुराज का, अंग माधवी  - गंध।
लेखक लेकर लेखनी, लिखते ललित निबंध।।७।।

साथी मैन बसंत का, लगा रहा मन-घात।
कोयल काली कूक कर, करे कुठाराघात।।८।।

रुत मतवाली आ गयी, साजन हैं परदेश।
प्रोषितपतिका नार का,  कौन सँवारे वेश ।।९।।

चाँदी की चादर तनी, हुआ शीत का अंत।
टेसू-ढाक-पलाश ले,    खेले फाग बसंत।।१०।।

अंत सभी का हो यहाँ, कुछ भी नहीं अनंत।
पतझड़ भी टिकता नहीं,  रहे न सदा बसंत।।११।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Sunday 4 February 2024

सावन के आने से पहले....


सावन के आने से पहले, साजन तुम आ जाना।
बदरा घिर आने से पहले, साजन तुम आ जाना।

जो ना तुम आए तो प्रियतम, आँसू आ जाएँगे।
कजरा बह जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

तुम बिन तनहा रहकर हम अब, और न जी पाएँगे।
साँसें थम जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

खोई-खोई रहूँ अनमनी, सुख-साज नहीं भाएँ।
जोगन बन जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

तुम रमे विदेसहिं प्रिय मैं प्रोषितपतिका कहलाई।
कुछ और कहाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

बने बतंगड़ बातें घर की, चौराहे पर उछलें।
बात बिगड़ जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

रुकती जरा न जिह्वा जग की, जाने क्या-क्या कहती।
घुट-घुट मर जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

पलक-पाँवड़े बिछा पंथ में, रस्ता जोहें अँखियाँ।
अंधड़ घिर आने से पहले, साजन तुम आ जाना।

मधुर मिलन की चाह सँजोए, राह निहारे ‘सीमा’।
आस मुरझ जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Thursday 1 February 2024

साथ समय के चलना सीखो...

साथ समय के चलना सीखो…

साथ समय के चलना सीखो।
नहीं किसी को छलना सीखो।

भोर तुम्हारे द्वार खड़ी है,
नवसृजन की ये घड़ी है।
अनथक तुम बस चलते जाना,
परीक्षा आगे बहुत कड़ी है।
रुख हवा का बदलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

गतिशीलता सीखो नदी से,
ठोकर खाकर भी चल देना।
सीखो तरु से सहनशीलता,
पत्थर खाकर भी फल देना।
दीप सरिस तुम जलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

बाल सूर्य जैसे तम हरता,
आग उगलने का दम भरता।
चढ़ता नभ में धीरे – धीरे,
खुद तपता जगहित श्रम करता।
तुम भी अरि को दलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

चाँद-सितारे सूरज नभ में,
आते-जाते बारी-बारी।
सूरज ढले चाँद की खातिर,
तड़के चाँद करे तैयारी।
औरों के हित ढलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

– © सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद
“काव्य पथ ” से

Wednesday 31 January 2024

आखिरी ये रात होगी...


अब न तुमसे बात होगी।
अनमनी -सी रात होगी।
अब न होंगे चाँद- तारे,
ना रुपहली रात होगी।

कुछ पलों की जिंदगानी,
कुछ पलों में ढेर होगी।
दो घड़ी भी ‘गर मिले तो,
दो घड़ी क्या बात होगी ?

चाँद भी रूठा हुआ -सा,
चाँदनी भी सुस्त -सी है।
कुलमुलाते -से सितारे,
क्या हसीं अब रात होगी ?

अब अकेले इन दिनों का,
गम सहारा है हमारा।
रात साए में अमा के,
बात किसको ज्ञात होगी ?

बुझ रही है दीप की लौ,
टूटती -सी श्वास भी अब,
ख्वाब में ही आ मिलो तो,
साथ ये सौगात होगी।

कीं कभी जो बात तुमसे,
आ रहीं अब याद हमको।
आज नयनों से हमारे,
आखिरी बरसात होगी।

आखिरी ये रात होगी
अब न तुमसे बात होगी….

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Tuesday 30 January 2024

इस तरह क्या दिन फिरेंगे...

इस तरह क्या दिन फिरेंगे….

जो छलेंगे, वो फलेंगे।
इस तरह क्या दिन फिरेंगे ?

डग न सीधे भर रहे जो,
पर लगा नभ में उड़ेंगे।

आज हम उस राह पर हैं,
जिस राह बस गम मिलेंगे।

चल न तपती रेत में यूँ,
पाँव में छाले पड़ेंगे।

राह सच की चुन चला चल,
मुश्किलों के दिन ढलेंगे।

साथ देते जो गलत का,
हाथ वो पीछे मलेंगे।

दौड़ता है वक्त हर पल,
अश्व रोके क्या रुकेंगे।

तू न दे गर साथ तो क्या,
हम न कोई काम करेंगे ?

सर्द दिन ये और कब तक,
मूँग छाती पर दलेंगे।

आ रहा ऋतुराज देखो,
चाहतों के गुल खिलेंगे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Monday 29 January 2024

पग न अब पीछे मुड़ेंगे...

कस कमर जो चल पड़े हैं,
पग न वे पीछे मुड़ेंगे।

तुम जियो आजाद होकर,
अब न तुम पर भार हूँ मैं।
कर्म अपने साथ लेकर,
जी रही अधिकार हूँ मैं।
अब कभी जो हम मिले तो
तार क्या मन के जुड़ेंगे ?

रह हमारे साथ कुछ पल,
जो किए अहसान तुमने।
मोल चुकता कर दिया सब,
दे तुम्हें हर मान हमने।
साध अब गंतव्य अपना,
नित्य ही ऊँचें उड़ेंगे।

झेल ले सब यातनाएँ,
हो असर वो साधना में।
झंड कर दे चाल जग की,
हो दुआ वो प्रार्थना में।
गह चरण प्रभु राम के मन,
ताप सब वे ही हरेंगे।

रास्ते    उतने   खुलेंगे,
बंद  जितने  द्वार  होंगे।
डगमगा ले नाव कितनी,
हम यकीनन  पार होंगे।
थाम ली पतवार जिनकी,
तार उन सबको तरेंगे।

जिंदगी संघर्ष है तो,
फल मधुर मिलता इसी से।
रश्मियाँ रवि की प्रखर ये,
मन-कमल खिलता इसी से।
चीर देंगे हर तमस हम,
मौत को हँसकर वरेंगे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

दिन सुखद सुहाने आएंगे...


दिन सुखद सुहाने आएंगे…

बीतेंगी रातें गम की दिन सुखद सुहाने आएंगे।
आज नहीं तो कल वो तेरे नाज उठाने आएंगे।

कचरे पर जो बैठे अकड़े कूड़ा तुझको समझ रहे।
वही कभी जूड़े में तेरे फूल सजाने आएंगे।

आँखों पर पट्टी बाँधे हैं, समझें कैसे बुरा-भला ?
अक्ल के अंधे कभी न कभी सही ठिकाने आएंगे।

करो फिक्र बस केवल अपनी, अक्ल घुमाना बंद करो।
बीतेगी जब खुद पर खुद हर बात बताने आएंगे।

रो-रोकर हलकान न हो मन धीर धरा सा धार मना।
मुस्कुराने के और अभी कितने बहाने आएंगे।

बात-बात पर कर देते जारी जो फरमान तुगलकी।
बात में ऐसे सिरफिरों की कौन सयाने आएंगे ?

नाफरमानों की बस्ती में कहो गुजारा कैसे हो,
चढ़े बना जो हमको सीढ़ी हमें झुकाने आएंगे ?

दग्ध प्राण भौतिक तापों से, रहते जो संतप्त सदा।
जल में पावन सरयू के मन-दीप सिराने आएंगे।

झूठी दुनिया रचने वाले सिर्फ दिखावा करते हैं।
‘सीमा’ सच्चे कभी यहाँ क्यों, नगर बसाने आएंगे ?

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Sunday 28 January 2024

मुक्तक...छंद मनमोहन

मनमोहन छंद...

( 14 मात्रा (8+6) पदांत नगण
चारों चरण या दो- दो चरण समतुकांत
सही विधान- अठकल +किसी भी तरह का त्रिकल + नगण अर्थात पदांत 111 )

१-
शीश झुकाकर  करूँ नमन।
करो प्रभो सब  पाप शमन।।
द्वेष-दंभ  सब   करें  गमन।
रहे  देश  में    सदा  अमन।।

२-
सर-सर सर-सर चले पवन।
नर्तन   करते   धरा - गगन।।
मन विरहन के लगी अगन।
दुनिया  खुद  में  रहे  मगन।।

३-
कैसे  उनको   लगी  भनक।
रखे यहाँ पर कनक-कनक।।
थी नयनों में   नयी चमक।
खेल-खेल में  गढ़ा यमक।।

४-
उठी हृदय में कौन सटक ?
करता क्यों ये उठा-पटक ?
पहले ही मन गया खटक ।
दर्पण भी लो  गया चटक।।

५-
कितना ऊँचा  उठा गगन।
फिर भी नीचे किए नयन।।
कर्म निरत नित रहे मगन।
हममें भी  हो वही लगन।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Saturday 27 January 2024

अच्छे बच्चे...

सजल…छंद शैलजा

अच्छे बच्चे- छंद शैलजा…
{२४ मात्राएँ .१६-८ पर यति,अंत- दीर्घ (गा)}

रोज सवेरे शाला जाते, अच्छे बच्चे।
सदा बड़ों को शीश नवाते, अच्छे बच्चे।

पढ़ते-लिखते नाम कमाते, आगे जाते,
मात-पिता का मान बढ़ाते, अच्छे बच्चे।

राह सभी आसान इन्हें हैं, सच पूछो तो,
मुश्किल देख नहीं घबराते, अच्छे बच्चे।

सदा मित्र का साथ निभाते, भार उठाते।
गल्प न कोरी कभी बनाते, अच्छे बच्चे।

छोटों का आदर्श बनें ये, शान बड़ों की,
साख न घर की दाँव लगाते, अच्छे बच्चे।

विनम्र भाव से नीची नजरें, रक्खें हर पल,
मंजिल पर बस नजर टिकाते, अच्छे बच्चे।

दीन-हीन को गले लगाते, आस बँधाते,
कभी काम से जी न चुराते, अच्छे बच्चे।

‘सीमा’ अपनी कभी न लाँघें, रहें संयमित।
अनुशासन सबको सिखलाते, अच्छे बच्चे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Friday 26 January 2024

कर रहे शुभकामना...


75वें राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस की सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं…

कर रहे शुभकामना….

पर्व है गणतंत्र दिवस का, राष्ट्र की आराधना।
अखंड भारत देश रहे ये, कर रहे शुभकामना।

सबके सुख-दुख अपने सुख-सुख,
भाव मन में पुष्ट हो।
भेद-भाव की बात न हो अब,
हर मनुज संतुष्ट हो।
पनपे ना वृत्ति छल-कपट की,
बनी रहे सद्भावना।

कर रहे शुभकामना….

जाति-वर्ग औ संप्रदाय की,
टूटें सब दीवारें।
गद्दारी जो करें देश से,
चुन-चुन उनको मारें।
विपदा आए कोई यदि तो,
मिल करें सब सामना।

कर रहे शुभकामना….

कोई बच्चा देश का मेरे,
रहे न भूखा-नंगा।
कर्तव्यों के हिम से निकले,
अधिकारों की गंगा।
हो सदैव उद्देश्य हमारा,
गिर रहे को थामना।

कर रहे शुभकामना….

स्वार्थ रहित हों कर्म सभी के,
राष्ट्र-मंगल से जुड़े।
गुलाम रहे न जन अब कोई,
मुक्त अंबर में उड़े।
प्रेम-भाव भर अमिट हृदय में,
मिटा कलुषित भावना।

कर रहे शुभकामना….

आत्मनिर्भर बनें भारत-जन,
सुप्त बोध सब जागें।
कर्मठता हो, कर्म श्रेष्ठ हों,
जड़ता मन की त्यागें।
रामराज्य का स्वप्न नहीं तो,
है महज उद्भावना।

कर रहे शुभकामना….

© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Thursday 25 January 2024

कुसुमित जग की डार...

कुसुमित जग की डार…

हंसगति छन्द…

1-
गजानन श्री गणेश, सदा सुखकारी।
शिव शंकर हैं तात, उमा महतारी।
प्रथम पूज्य श्रीपाद, अमंगल हारी।
चरण नवाऊँ माथ, हरो अघ भारी।

2-
ये हैं गण के ईश, सुवन शंकर के।
आए हरने क्लेश, सभी के घर के।
गणपति इनका नाम, सर्व सुख दाता।
पूरण करते काम, दुखों के त्राता।

3-
धेनु चराएँ श्याम, बजाएँ वंशी।
बस गोकुल के ग्राम, हो चंद्र-अंशी।
दें जग को संदेश, करो गौ सेवा।
सभी मिटेंगे क्लेश, मिलेगी मेवा।

4-
ले झुरमुट की ओट, देख लूँ तुमको।
भर नज़रों में रूप, सेक लूँ मन को।
रहो सदा अब साथ, जुड़े वो नाता।
बिना तुम्हारे नाथ, नहीं कुछ भाता।

5-
उगल रहा रवि आग, तपन है भारी।
चूल्हे पकता साग, झुलसती नारी।
क्रुद्ध जेठ का ताप, सहे दुखियारी।
टपके भर-भर स्वेद, लपेटे सारी।

6-
रहे समंदर शांत, उछलता नद है।
धीर-वीर-गंभीर, जानता हद है।
करे हदें वो पार, न तुम कुछ कहना।
मिले भले ही हार, मगर चुप रहना।

7-
तुम्हीं हमारी शान, मान हो बिटिया।
हम सबका अरमान, जान हो बिटिया।
बिटिया तुम पर नाज, हमें है भारी।
महक उठी है आज, खिली फुलवारी।

8-
कुसुमित जग की डार, फले अरु फूले।
आशा पंख पसार, उड़े नभ छू ले।
सुखद सँदेशे रोज, चले घर आएँ।
बरसें सुख के मेघ, खुशी सब पाएँ।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

Wednesday 24 January 2024

कर्मवीर भारत...

भारत सदा से ही रहा है कर्मवीरों की थली।
दम पे इन्हीं के सभ्यता अनुदिन यहाँ फूली फली।

नित काम में रत हैं मगर, फल की न करते कामना।
सौ मुश्किलों सौ अड़चनों, का रोज करते सामना।
इनकी लगन को देखकर, हों पस्त अरि के
हौसले,
कैसे विधाता  वाम हो, जब पूत मन की भावना।
शिव नाम मन जपते चलें, ले कर्म की गंगाजली।
भारत सदा से ही रहा है कर्मवीरों की थली।१।

कुछ चुटकियों का खेल है, हर काम इनके वास्ते।
धुन में मगन चलते चलें, आसान करते रास्ते।
फल कर्म का पहला सदा, करके समर्पित ईश को, 
करते विदा सब उलझनें, हँसते-हँसाते-नाचते।
कब दुश्मनों की दाल कोई सामने इनके गली।
भारत सदा से ही रहा है  कर्मवीरों की थली।२।

उड़ती चिरैया भाँप लें, जल-थाह गहरी नाप लें।
अपकर्म या दुष्कर्म का, सर पे न अपने पाप लें।
आशीष जन-जन का लिए, सर गर्व से ऊँचा किए,
फूलों भरी शुभकर्म की, झोली जतन से ढाँप लें।
कलुषित हृदय की भावना, कदमों तले घिसटी चली।
भारत सदा से ही रहा है कर्मवीरों की थली।३।

बैठे भरोसे भाग्य के, रहते नहीं हैं ये कभी।
करके दिखाते काम हैं, कहते नहीं मुख से कभी।
आए बुरा भी दौर तो, छोड़ें न मन को साधना,
फुसलाव में भटकाव में, आते नहीं हैं ये कभी।
हर शै जमाने की झुकी, पीछे सदा इनके चली।
भारत सदा से ही रहा है कर्मवीरों की थली।४।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

चंद मुक्तक... छंद ताटंक...

चंद मुक्तक
छंद ताटंक...

अपनी भाषा अपनी संस्कृति, किसे न मोहित करती है ?
अपनी माँ या अपनी मासी, किसे न प्यारी लगती है ?
पर अपना ये देश अनूठा, पर संस्कृति पर मरता है।
पर भाषा के पीछे लगकर, निज को लांछित करता है।१।

नदी हमारी मात सरीखी, हमको जीवन देती है।
विमल-शुद्ध कर बदन हमारा, पाप हमारे खेती है।
सींचे खेत अन्न उपजाए, सगरे जग की थाती है।
मंथर गति से बहती जाती, कल-कल स्वर में गाती है।२।

तुम बिन लगता कहीं नहीं मन, खोया-खोया रहता है।
डूब तुम्हारे ख्यालों में ये, कुछ न किसी से कहता है।
बदल गए दिन रात सभी कुछ, जबसे तुमको देखा है।
फलित हुए ज्यों पुण्य हमारे, शुभ कर्मों का लेखा है।३।

कहते आए सभी अभी तक, नारी अबला होती है।
झेल न पाती तनिक कड़ाई, बात-बात पर रोती है।
मूरत ममता प्रेम त्याग की, जीवन जग को देती है।
किसमें इतना बल है बोलो, बला स्वयं वर लेती है।४।

नहीं लडेंगे नहीं भिड़ेंगे, सबका साथ निभाएंगे।
सबका  मान बढ़ाएंगे,     सबका हाथ बँटाएंगे।
स्वर्ग गगन में अगर कहीं है, उठा जमीं पर लाएंगे।
मिलजुलकर सब साथ रहेंगे, भू को स्वर्ग बनाएंगे।५।

© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

Tuesday 23 January 2024

ऐंठ रहा जलजात...

ठिठुरन बढ़ती जा रही, काँपे थर-थर गात।
सरवर जम सब हिम हुए, ऐंठ रहा जलजात।।

पूस मास पाला पड़ा, ठिठुर रहे मैदान।
जमे हुए हैं शीत में,  ओले से अरमान।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Sunday 21 January 2024

सजी कैसी अवध नगरी...

सजी कैसी अवध नगरी, सुसंगत दीप पाँतें हैं।
गगनचुंबी इमारत हैं, तनी अद्भुत कनातें हैं।
बड़ी शुभदा घड़ी पावन, विराजें राम आसन पर,
पखारें पाँव प्रभुवर के, भरी जल की पराँतें हैं।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद