Wednesday 16 December 2015

ए चाँद मेरे

तुझे छूने से भी डरती हूँ ए चाँद मेरे !
कहीं उजला तन ये तेरा मैला ना हो जाए
बस ये अहसास बहुत है जीने के लिए
कि तू है जमाने में सबसे करीब मेरे !

नजर का टीका लगा दिया है
पहले ही मुख पर तेरे
देखूं जो तुझे तो कहीं नजर ही
ना मेरी लग जाए

यूं तो आते जाते रहे हैं
पथिक इस मग से कितने
पर वो शख्स एक तू ही है
जो दिल में गहरे उतरा

रहे तू सदा सलामत
संग चाँदनी के अपनी
इल्तिजा यही बस मेरी
इक फेरा इधर भी करना

~ सीमा

Monday 14 December 2015

बस यूँ ही-

"बस यूं ही"मुस्कुरा दिया करो
अंधेरे में दीया जला दिया करो
उजड़े,  वीरान चमन में दिल के
आस का फूल खिला दिया करो

बन खिवैया डगमगाती कश्ती
खेकर किनारे लगा दिया करो
असहाय बुझते मन- प्राणों में
जीवन की लौ लगा दिया करो

जो घिर आए रात अमा सी काली
चाँद- सा मुख दिखा दिया करो

- सीमा

Friday 11 December 2015

कैसे कह दूँ ---

बातों बातों में पूछ बैठे वो
मेरी बेखुदी का सबब
कैसे कह दूँ कि उनका खयाल ही
मुझे मदहोश कर देता है

खोई हूँ तुममें
खयालों में तुम्हारे
याद रहा क्या
अब सिवा तुम्हारे

फिर उल्फत सी जागी है
कहीं कुछ तो कसर बाकी है ।
यूं ही दिल किसी पर आ जाए
ऐसी तो मेरी फितरत ना थी ।

                      --- सीमा ---

Thursday 3 December 2015

मैंने तुमको देखा---

मैंने तुमको देखा-
    देखा अद्भुत रूप तुम्हारा !

यूँ ही सदा की तरह
दो आँखें
बुन रही थीं ख्वाब
आंकने छवि तुम्हारी
हो रही थीं बेताब
ले संबल उस कल्पना का सतत
गोधूली के धुंधलके में
कुतुहल सा रचते
पावन पद रखते
चले आए थे जब तुम
बस यूं ही अठखेली करते
मेरे कोरे मन के द्वारे
और मैं पगली- सी
निहारती ही रही थी तुम्हें
बेसुध-सी अपलक
निर्निमेष !

ऊंगलियाँ चल रही थीं
अनथक
कभी बनती-सी लगती आकृति
बिगड़ जाती पर
तत्क्षण !
विहँसती आँखों से
लरज गिरते दो आँसू
घुल- मिल जाते
उस छवि में
जिसे आंकने में
बर्ष दर बर्ष
बीतते रहे
कहीं कुछ न कुछ
कसर
रह ही जाती थी
क्यों नहीं
बन पाता था अक्स सही
बस सोचती रह जाती थी
मन मसोस
कभी मुंद जातीं पलकें !

थक कर बेसुध-सी
आज भी तो
यूँ ही
खोई- सी तुम में
मन के फलक पर
आंकती तस्वीर तुम्हारी
कब लुढ़क गिरी कहाँ
कुछ होश रहा न अपना
सहसा खुमारी में
नींद की
होने लगा कुछ अहसास
बिचित्र-सा
मोहक-सा
उन्मादक
अपनी ओर खींचता-सा
बनने लगी शनैः शनैः
आकृति एक
अलौकिक-सी
खुद ब खुद
खिंचती लकीरें
सीधी, आड़ी, गोल
उफ ! ये रूप
मन विस्मित असूझ
कंपकंपाते अधर अवाक्
नयन विस्फारित
देखते रहे अद्भुत नजारा
आलोकित हो उठा था
मन का कोना कोना
हाँ वही तो थी रूपराशि हूबहू
आंकने में जिसे
बिछल गयीं थीं
ऊंगलियाँ मेरी
छलक आया था लहू
बीत गए थे युग अनगिन
कहीं न कहीं
रह ही जाती थी
कोई ना कोई कमी
उफ !
क्या रूप माधुरी थी
समा न पाती थी आँखों में
देख-देख जिसे
मन अघाता न था !

आज जाना मैंने
पल- पल नूतन होते
अद्वितीय इस रूप को
कैसे आँक पाती मैं
कैसे कर पाती आबद्ध
लघु तूलिका में अपनी
व्यापकता उसकी
वो तो समाया था
सृष्टि के कण-कण में
नहीं था मात्र
देह एक
बँधता कैसे
लघु पाश में
मेरी कल्पना के
वो तो था असीम
अनादि, अनंत
और मैं-
मात्र नन्ही-सी
निकली उससे ही
उसकी ही
सीमा में आबद्ध
उससे प्रतिबिंबित
उससे उद्भासित
उसकी प्रतिच्छाया एक !

-सीमा