Wednesday 6 December 2017

पल रहा था नयनों के भीतर ख्बाब एक मधुर सलोना था......

कब तक जागा रहता यूँ ही
हासिल न कुछ भी होना था
एक न एक दिन तो आखिर
उसे चिर- निद्रा में सोना था

प्रेम- भाव पनपा था मन में
उमंगित हो-हो इठलाता था
पंख पसार कर नन्हे- नन्हे
किस्मत को  झुठलाता था
          जीव वो भोला जान सका ना
          नियति उसकी गम ढोना था

मन-ताल आज फिर सूखा है
प्रेम-परिंदा अतिशय भूखा है
कबसे नेहिल बरसात हुई ना
प्रिय  से जी भर  बात हुई ना
            कट रही रात नयनों में सूनी
           भाग्य में बिलखना, रोना था

पाने की मन में ललक लगी
एक पल न फिर पलक लगी
तकते एकटक नयन चकोर
उचकते रह रह उसकी ओर
          शिशु नेह का नादान बड़ा था
          चाँद को समझा खिलोना था

किसी से न उसका बैर हुआ
किसके  लिए  वह  गैर हुआ
उसकी नजर में सब थे अपने
देखता सब के सुख के सपने
          बचा न क्यूँ वो बुरी नजर से
          माथे जब नजर-डिठौना था

आता समझ यही रह रहकर
कहें आँसू भी यही लरजकर
बंजर आस क्या मन ने पाली
अरमानों पर चल गयी कुदाली
            लोभी क्यूँ मन की चाह हुई
            यह बीज न फिर से बोना था

मन का भी कोई दोष नहीं
उस पर भी कोई रोष नहीं
चाहा उसे कब बाँधे रखना
तपस्वियो-ंसा साधे रखना
              बहुत सालता था खालीपन
              सूना एक उसका कोना था

अदनी सी यह चाह थी माना
आसान न था पूरी कर पाना
दीवाना था वो धुन में अपनी
मुश्किल था उसको समझाना
            अपनी भूल गलती का आखिर
            अहसास तो उसको होना था !

- सीमा

            

Tuesday 5 December 2017

अब तक न जाना चंदा...

अधर कुछ कह न पाए
मौन वे समझ न पाए

तकते रहे हम उनको
उनसे ही नज़र चुराए

झपीं न पलकें पल भर
तक-तक न नयन अघाए

प्यास बुझी ना मन की
मेघा कितने घिर के आए

इक प्यासे चातक हित
स्वाति-बूँद कहाँ से आए

अब तक ना जाना चंदा
क्यूं चकोर के मन वो भाए

उठे मन में हूक रह-रह
छलते हमें अपने ही साए

उजड़ी बस्ती ख्वाबों की
कैसे भी अब बस न पाए

हर कोई आता- जाता
दुखती रग को छूता जाए

कौन, जो ऐसी घड़ी में
आहत मन को आस बंधाए

खुद बंधन तोड़ने वाला
क्यूँ 'सीमा' मेरी मुझे बताए

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
एक साझा काव्य संग्रह में प्रकाशित

रहस्यवाद

कवियों ने जब अव्यक्त सत्ता में निज अनुराग दिखाया
सौंदर्य-आकर्षण, विरह-मिलन का अद्भुत राग सुनाया
जब लोक-प्रेम माध्यम से हुआ उजागर प्रेम अलौकिक
ज्ञान कबीर का, प्रेम जायसी का,  रहस्यवाद कहलाया
- सीमा

Saturday 2 December 2017

परंपरा एवं आधुनिकता...

लिपटाए सीने से
आस्थाएँ
वर्षों पुरानी
नहीं गढ़ सकते हम बिंब
आज के आदर्श समाज का
बदलती है प्रकृति
पल- पल, छन- छन
स्वभाव से अपने
अनुकूलन करना
उससे टकराना
नियति है मनुज की

सतत विकास हित
समय, परिस्थिति को देखते हुए
अति आवश्यक है
स्थापित मान्यताओं में
बदलाव लाना

जड़ नहीं है
व्यवस्था समाज की
वह तो गतिशीला है
सदानीरा नदी सी
बढ़ती जाती है चंचला सी
आगे निरंतर
काटती प्रस्तर रुकावटों,
विघ्न बाधाओं के

वाद- विवाद- संवाद
चलते यहाँ निरंतर
परस्पर,
ताकि रहे समाज
स्वस्थ निरोगी सदा
पराजित हों
यहाँ वहाँ
कुकुरमुत्ते सी उगती बीमारियाँ

बुरा नहीं
रखना आस्था में आस्था
पर आचरण, व्यवहार हो
देशकालानुरूप सदा
जरूरी है
आस्था से भी बहस, संवाद
अपनाते हुए दृष्टिकोंण वैज्ञानिक

मंजिल,
निष्कर्ष
अंतिम नहीं कोई
हमारी इस ज्ञान- यात्रा में
जानते हैं हम
ऋत हैं नियम प्रकृति के
इसी से कहलाती है
ऋतंभरा वह

चलती है परमसत्ता भी
अधीन नियमों के
उससे ऊपर नहीं
धारे है भरमार प्रपंच
यह प्रकृति गोचर
प्रतिबद्ध हैं नियम
चाँद सितारों के
उगने अस्त होने के
अमावस, पूरनमासी के
शनैः शनैः
चाँद के घटने बढ़ने के
बदलते हैं मौसम
आती ऋतुएँ विविध
ग्रीष्म, शीत,
पावस, बसंत
अलग- अलग नियम, कायदे
तासीर सबकी

देखो ना
कैसे घुमड़ आते हैं मेघ गगन में
गरजते हैं, बरसते हैं
कौंधती है बिजली
उपल वर्षा
घटाटोप बारिश
सींच देते आँचल धरा का
लहलहाती, झूमती
हरी- भरी हो जाती धरती

यह नियमबद्धता
है बड़ी ही विस्मयबोधक
पर सत्य तो है यही

मान भी लें
पर्याय एक दूजे के
सत्य औ धर्म
पर
स्थिर आचार संहिता तो नहीं
धर्म मनुज का
निश्चित ही गूढ़ होता
तत्व धर्म का
लेकिन
धर्म स्वतः
प्रकृति में अपनी
न होता गूढ़ या जड़ कभी

रहा ना जड़
धर्म कभी
हमारे देश का भी
सतत गतिशीलता
ही तो है
यह उसकी
कि नित परिष्कृत करते हुए
मथते हुए आत्मा अपनी
उसने सतत
पुनर्नवा शक्ति पायी है

अपने अपने तरीकों से
समय- समय पर
महापुरूषों ने हमारे
धर्म- चेतना को
निर्जीव, जड़ होने से रोका है

बेशक
आदरणीय हैं धर्म- ग्रंथ
सब वर्ग संप्रदाय के
पर आचरण
व्यवहार को तो
होना होगा
अद्यतन सदा
देश काल
परिस्थिति अनुसार

सदियों पुरानी
चली आ रही
जर्जरित
सामाजिक व्यवस्था की
लाठी पकड़ तो
नहीं जी सकेगा
आज का मानव
यदि जीना था उसी युग में
फिर क्या जरूरत थी
नित हो रही
नूतन खोजों की
ज्ञान- संवर्धन की
उपलब्धियों के संकलन की

सच तो यह है कि
नहीं चलता जीवन
इतिहास के सहारे
आने वाली चुनौतियों
समस्याओं के साथ
उनके समाधान हित
प्रतिपल नया होते रहना
होता उसे

कसनी होंगी निकष पर
परंपराएँ पुरानी
खरी हुईं तो अपनीय
अन्यथा त्यागनी होंगी
पुरातनता के मोह-त्याग के संग
गढ़ने होंगे फिर
मूल्य नए
अनुरूप नई जरूरतों के

जो उस समय था
आज भी अगर
वही सब चलता रहे
अपने समस्त विकारों के साथ
फिर हमने क्या किया
महज अंधानुकरण के सिवा
क्या यूँ ही चलते रहें आँखें मीचे
महज आस्था और
क्षत- विक्षत, रूढ़,
जर्जर परिपाटियों के
अनुयायी बने

स्वीकार कर
सामयिक नवीनताएँ
होतीं
जीर्ण-शीर्ण
परंपराएँ
पुष्ट, बलिष्ठ
सुशोभित होती
ज्यों जीर्ण डाल भी
नव पल्लवों से
लद जाने पर

- सीमा