अधर कुछ कह न पाए
मौन वे समझ न पाए
तकते रहे हम उनको
उनसे ही नज़र चुराए
झपीं न पलकें पल भर
तक-तक न नयन अघाए
प्यास बुझी ना मन की
मेघा कितने घिर के आए
इक प्यासे चातक हित
स्वाति-बूँद कहाँ से आए
अब तक ना जाना चंदा
क्यूं चकोर के मन वो भाए
उठे मन में हूक रह-रह
छलते हमें अपने ही साए
उजड़ी बस्ती ख्वाबों की
कैसे भी अब बस न पाए
हर कोई आता- जाता
दुखती रग को छूता जाए
कौन, जो ऐसी घड़ी में
आहत मन को आस बंधाए
खुद बंधन तोड़ने वाला
क्यूँ 'सीमा' मेरी मुझे बताए
- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
एक साझा काव्य संग्रह में प्रकाशित
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