प्रकृति का श्रंगार हैं वृक्ष
आश्रय निरीह जीवों का
कितने जतन से रचती गौरैया
जोड़ तिनका तिनका
नीड़ निज प्यारा
कितने विश्वास से
छोड़ जाती चूजे अपने
आश्रय में उसके
जाती जब तिनका, दाना लेने
गिलहरी, सर्प, कपि
कितने जीव- जन्तु आश्रय पाते
लगे वक्ष से वृक्ष के
पर स्वार्थ लिप्त मानव
अपनी भौतिक
महत्वाकांक्षाओं के लोभ में
उजाड़ देता समूल
आशियाना उनका
चलाते वक्त कुठार
मन तनिक ना पसीजता
वृक्ष जो
अभिन्न अंग हमारे जीवन के,
प्राकृतिक शोधक वायु के,
शिव तुल्य
स्वयं जहर पीकर
शुद्ध वायु रूप अमृत बाँट
हमारी साँसों को
देते चेतना औ स्पंदन
शुद्ध रखते वातावरण
जीवनी शक्ति पाते हम उनसे
विभिन्न वस्तुएं जीवन यापन की
अंत समय आने पर
दाह क्रिया में भी
जब अपने सब
छोड़ देते साथ हमारा
एक वही निभाते साथ
हमारे लिए, हमसे पहले
खुद जल जाते
उपयोगिता उनकी असंदिग्ध
जानते हुए भी हम
क्यूँ बेदर्दी से
मनमाना दोहन करते उनका
जीवन पर्यंत
जाते- जाते भी
मृत शरीर के दाह हेतु
न्यूनतम दो वृक्षों की तो
बलि ले ही लेते हैं
कितने असहिष्णु
कितने संवेदनशून्य
हम उनके प्रति
क्यों नहीं मथता
भाव यह हमारे मन को
उनके संरक्षण में पलने वाले
कितने ही मासूम जीव जन्तुओं को
बेसहारा हम कर देते
छितरा देते परिवार उनका
अपने घोर स्वार्थ, लिप्सा
और अंधविश्वास के तहत
साथ ही पर्यावरण भी
होता प्रदूषित कितना
बिगड़ जाता संतुलन प्रकृति का
हमारी इस
संकुचित लोलुप मनोवृत्ति से
आओ आज सब मिल
संकल्प यह लें
कि जीते जी
ना आने देंगे आँच वृक्षों पर
अपनी अपनी सामर्थ्यानुसार
रोपित करेंगे
मन में भी ना लायेंगे
ऐसा प्रदूषित विचार
जिससे पहुंचे उन्हें जरा भी
आघात
साथ ही अंतिम इच्छा के रूप में
बसीयत में अपनी
जोड़ें यह भी
कि मृत निर्जीव शरीर हमारा
जलाया जाए
विद्युत शवदाह गृह में
ताकि महफूज रहें पेड़
बचा रहे धरती पर जीवन,
हरीतिमा, मधुर कूजन, कलरव
माँ प्रकृति रहे सदा सुहागन
हँसे मुस्कुराए
लुटाती रहे ममता
हम से नादान शिशुओं पर
पीढ़ी दर पीढ़ी
-डाॅ0 सीमा अग्रवाल
गोकुल दास हिन्दू गर्ल्स काॅलेज,
मुरादाबाद ( उ0 प्र0 )