Wednesday 28 February 2024

माँ सच्ची संवेदना...


माँ सच्ची संवेदना…

माँ सच्ची संवेदना, माँ कोमल अहसास।
मेरे जीवन-पुष्प में, माँ खुशबू का वास।।

रंग भरे जीवन में जिसने, महकाया संसार।
पाला पोसा जानोतन से, दिया सुघड़ आकार।
खुश रहे जो मेरी खुशी में, अपनी खुशी बिसार,
ममता की मूरत उस माँ पर, दूँ सर्वस्व निसार।

भुला न पाऊँ माँ की ममता, नेह भरे उद्गार।
आँसू जब-जब भरे नयन में, तुरत लिया पुचकार।
हर मुश्किल में हर विपदा में, बनती माँ ही ढाल,
माँ से खुशियाँ माँ से हर सुख, माँ से ये संसार।

कितना सुकूं और कितनी राहत, देता माँ का आँचल।
चुटकी में हर गम हर लेता, मेरी माँ का आँचल।
सूनी आज निगाहें मेरी, बह गया आँखों का काजल।
कोई लौटा दे आज मुझे, मेरा बचपन माँ का आँचल।

कर सकता नहीं ईश्वर भी, माँ की ममता से समता।
नौ मास कोख में रखने की, नहीं उसमें भी क्षमता।
अतुलनीय है त्याग, अकल्पनीय समर्पण उसका,
थम जाए व्यापार जग का, प्यार न माँ का थमता।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )


Monday 26 February 2024

खुश रहो तुम सदा...

खुश रहो तुम सदा, खिलखिलाते रहो।

गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

बेकली मन बसी, क्या करें जी रहे।
रोज ही सब्र का,    घूँट हम पी रहे।
खो न दें होश भी, क्रोध-आवेश में,
जो मिले वो सही,  शुभ मनाते रहो।
गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

बेवजह कुछ नहीं, वस्तु संसार में।
तुच्छ का भी लगे, मोल बाजार में।
वक्त के चक्र से, कब किसे क्या मिले,
कर्म से भाग्य नित, आजमाते रहो।
गम मिलें भी अगर,  मुस्कुराते रहो।

सूर्य भी दे रहा,  सीख ये झुक तुम्हें।
चाँद-तारे कहें, ठिठक रुक-रुक तुम्हें।
पा अगर लो कभी, स्वर्ग सी उच्चता,
भूमिजों के सदा,  काम आते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

मनुज-तन जो मिला, पुण्य से कम नहीं।
सुख जगत के सभी,  ना मिलें गम नहीं।
परम की खोज में, सौंप कर जान-तन,
बीहड़ों में सदा,  गुल खिलाते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

फल सरस हो मधुर, बीज वो बो चलें।
सूर्य फिर जी उठे,     रात से हम ढलें।
वृक्ष-नद-मेघ सम, नित परार्थ में लगे,
स्वयं को होम कर,   हर्ष पाते रहो।
गम मिलें भी अगर, मुस्कुराते रहो।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
'मनके मेरे मन के' से


Saturday 24 February 2024

लो प्रभु फिर अवतार....

गोबरधनधारी, कृष्ण मुरारी, लो प्रभु फिर अवतार।
दुर्जन व्यभिचारी, अत्याचारी, बने धरा पर भार।
कराहती धरती, धीर न धरती, बढ़ते निसदिन पाप
निज चक्र उठाओ, शंख बजाओ, हरो जगत- संताप।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
फोटो गूगल से साभार

Friday 23 February 2024

बातों-बातों में...



उपलब्धियों की पोशाक में कंगूरे-बूटे टाँकते चलिए।
कुछ सुनिए औरों की कुछ अपनी भी हाँकते चलिए।

कहते हैं- कहने से मन की, मन की परतें खुलती हैं।
बातों- बातों में यूँ गिरेबान में सबकी झाँकते चलिए।

सीखिए तजुर्बे से वृद्धों के, सीख काम बहुत आएगी।
मिलें जो निज जीवन में वे अनुभव भी बाँटते चलिए।

यूँ बड़े लोगों से मिलना एक दिन बड़ा तुम्हें बनाएगा।
हुनर और गुर सब उनके मन में सदा आँकते चलिए।

छूकर बुलंदियाँ आसमां की   अपने भी हो जाते दूर।
रह जमीं पर संग अपनों के खाई बैर की पाटते चलिए।

माघ मास की शीत त्रासद, कितने तन पर वसन नहीं।
कंबल स्वेटर साथ लिए, कँपते हाड़ को ढाँकते चलिए।

पद-चिन्हों पर चलें तुम्हारे, पंथ-अनुगामी बनें पीढ़ियाँ।
पथ प्रशस्त हो आगत का, यूँ ही धूल न फाँकते चलिए।

मंजिल तक जाने में मुमकिन है मुश्किलें हजारों आएँगी।
रोड़े-पत्थर काँटे-कंकर  आएँ जो पथ में छाँटते चलिए।

सुख-दुख मन के भाव हैं दो, चक्रवत् नित आते-जाते।
सत्कर्मों की ढाल लिए    पर्वत दुख के लाँघते चलिए।

कोई किसी से कम न ज्यादा सबकी अपनी 'सीमा' है।
दुश्मन के भी गुणों को श्रीमुख से अपने बाँचते चलिए।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
'मृगतृषा' से


Thursday 22 February 2024

कोयल परभृत नार....

मूर्ख बनाती काक को, कोयल परभृत नार।
अंडे उसके नीड़ रख,   खुद उड़ जाती पार।।

अंडे सेता मूढ़ बन,    कौआ मति से हीन।
उल्लू अपना साधती, कोयल छली प्रवीन।।

निपट सयानी कर्कशा, कामचोर अति क्रूर।
धूर्त लड़ाकू आलसी, पिक छल से भरपूर।।

© सीमा अग्रवाल,
फोटो गूगल से साभार

Tuesday 13 February 2024

चाँदी की चादर तनी...

चाँदी की चादर तनी, हुआ शीत का अंत।
टेसू-ढाक-पलाश ले,    खेले फाग बसंत।।

ठूँठ हुए हर वृक्ष पर, आए पल्लव-फूल।
पीत बरन भू- सुंदरी, ओढ़े खड़ी दुकूल।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Friday 9 February 2024

रूप मधुर ऋतुराज का...

नया-नया आगाज है,  नया-नया उल्लास।
भाव-भंगिमा ले नवल, आया लो मधुमास।।१।।

ऋतु बसंत का आगमन, मादक बहे बयार।
तन-मन तंद्रिल कर रहा, मस्ती भरा खुमार।।२।।

गदराया भू का बदन, झलके मुख पर लाज।
यौवन-मद में झूमता,  कामसखा ऋतुराज।।३।।

खिली कली कचनार की, दहका फूल पलास।
नव लतिकाएँ बाँचतीं, ऋत्विक नव्य हुलास।।४।।

खिली-खिली फुलवारियाँ, अलिदल की गुंजार।
चंपा-जूही-मालती,  किंशुक-हरसिंगार।।५।।

अधरों पर शतदल खिले, मुख पर खिले गुलाब।
मौसम है मधुमास का,   अंग-अंग पर आब।।६।।

रूप मधुर ऋतुराज का, अंग माधवी  - गंध।
लेखक लेकर लेखनी, लिखते ललित निबंध।।७।।

साथी मैन बसंत का, लगा रहा मन-घात।
कोयल काली कूक कर, करे कुठाराघात।।८।।

रुत मतवाली आ गयी, साजन हैं परदेश।
प्रोषितपतिका नार का,  कौन सँवारे वेश ।।९।।

चाँदी की चादर तनी, हुआ शीत का अंत।
टेसू-ढाक-पलाश ले,    खेले फाग बसंत।।१०।।

अंत सभी का हो यहाँ, कुछ भी नहीं अनंत।
पतझड़ भी टिकता नहीं,  रहे न सदा बसंत।।११।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Sunday 4 February 2024

सावन के आने से पहले....


सावन के आने से पहले, साजन तुम आ जाना।
बदरा घिर आने से पहले, साजन तुम आ जाना।

जो ना तुम आए तो प्रियतम, आँसू आ जाएँगे।
कजरा बह जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

तुम बिन तनहा रहकर हम अब, और न जी पाएँगे।
साँसें थम जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

खोई-खोई रहूँ अनमनी, सुख-साज नहीं भाएँ।
जोगन बन जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

तुम रमे विदेसहिं प्रिय मैं प्रोषितपतिका कहलाई।
कुछ और कहाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

बने बतंगड़ बातें घर की, चौराहे पर उछलें।
बात बिगड़ जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

रुकती जरा न जिह्वा जग की, जाने क्या-क्या कहती।
घुट-घुट मर जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

पलक-पाँवड़े बिछा पंथ में, रस्ता जोहें अँखियाँ।
अंधड़ घिर आने से पहले, साजन तुम आ जाना।

मधुर मिलन की चाह सँजोए, राह निहारे ‘सीमा’।
आस मुरझ जाने से पहले, साजन तुम आ जाना।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Thursday 1 February 2024

साथ समय के चलना सीखो...

साथ समय के चलना सीखो…

साथ समय के चलना सीखो।
नहीं किसी को छलना सीखो।

भोर तुम्हारे द्वार खड़ी है,
नवसृजन की ये घड़ी है।
अनथक तुम बस चलते जाना,
परीक्षा आगे बहुत कड़ी है।
रुख हवा का बदलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

गतिशीलता सीखो नदी से,
ठोकर खाकर भी चल देना।
सीखो तरु से सहनशीलता,
पत्थर खाकर भी फल देना।
दीप सरिस तुम जलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

बाल सूर्य जैसे तम हरता,
आग उगलने का दम भरता।
चढ़ता नभ में धीरे – धीरे,
खुद तपता जगहित श्रम करता।
तुम भी अरि को दलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

चाँद-सितारे सूरज नभ में,
आते-जाते बारी-बारी।
सूरज ढले चाँद की खातिर,
तड़के चाँद करे तैयारी।
औरों के हित ढलना सीखो।
साथ समय के चलना सीखो।

– © सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद
“काव्य पथ ” से