Monday 11 July 2022

हृद् कामना...

हृद्-कामना...

यही कामना जग में सबसे, सरल-सहज व्यवहार  करूँ।
तेरी कृपा के गुल खिलें तो, उन्हें गले का हार करूँ।।

नहीं चाहिए मुझको प्रभुवर, किस्मत से कुछ भी ज्यादा।
लिखा भाग्य में जितना मेरे, बस उतना स्वीकार करूँ।।

दो रोटी-दो वस्त्रों में भी, जब जीवन चल सकता है।
घुल-घुल कर चिंता में धन की, क्यों खुद को बीमार करूँ।।

हिफ़ाजत चराग़ों की करना, काम यही बस मेरा है।
तूफां की सहगामी बनकर, क्यों अपनों पर वार करूँ।।

कुछ न साथ लाई थी अपने, कुछ न साथ ले जाऊँगी।
लडूँ-मरूँ फिर किसकी खातिर, क्यों जीवन दुश्वार करूँ।।

अपने लिए कमाना खाना, यह तो ढोर-प्रवृत्ति है।
मिल-बाँट सब खाएँ सनेही, खुश-खुश सब त्योहार करूँ।।

धीरज रखना औ गम खाना, मैंने माँ से सीखा है।
संस्कार दिए हैं जो उसने,  क्या उन्हें शर्मसार करूँ ।।

गोद खिलाया जिस बेटे को, थपकी दे-दे पुचकारा।
उसे दूर कर दिल से कैसे, बीच खड़ी दीवार करूँ।।

जिन्हें बनाकर साक्षी अपना, बचपन सुखद गुजारा है।
उन गली-कूँचों को रुसवा, क्यों मैं सरेबाज़ार करूँ।।

बचपन जिया साथ में जिसके, सर नेह-सरोपे रोपे।
धन की खातिर उस भाई से, तू-तू मैं-मैं रार करूँ ?

मुझको मेरे अपने सब जन, प्राणों से भी प्यारे हैं।
फिर क्यों अवहेला कर उनकी, पैसों का व्यापार करूँ।।

यकीं नहीं अपने पर मुझको, सिर्फ भरोसा तुम पर है।
थमा हाथ पतवार तुम्हारे, जीवन-नैया पार करूँ।।

वरद हस्त रख सर पर मेरे, लोभ-मोह प्रभु दूर करो।
परम तत्व का भान मुझे हो, कलुष-वृत्ति संहार करूँ।।

आँकें नयन छवि तुम्हारी, मन-मंदिर में उसे बसा
हर विकार का प्रक्षालन कर, तमस भेद उजियार करूँ।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
साझा संग्रह "काव्य प्रभात" में प्रकाशित

Thursday 7 July 2022

दोहे एकादश....

https://sahityapedia.com/?p=1757

दोहे एकादश...

धंधा करते झूठ का, दावे करते नेक।
सिर्फ एक या दो नहीं, देखे यहाँ अनेक।।१।।

जता कमी कुछ और की, करते ऊँचा घोष।
छिद्रान्वेषी मनुज को,  दिखें न अपने दोष।।२।।

ये रुतबा-धन-संपदा, ऊँचे पद की शान।
भौतिक सुख के साज ये, मुझको धूल समान।।३।।

दुनियादारी सीख लो, इस बिन सरे न काम।
दुनिया की रौ में चलो,  जो भी हो अंजाम।।४।।

झूठी-सच्ची बात कर, भरे बॉस के कान।
अपना हित जो साधता, पशु से बदतर जान।।५।।

अहंकार के वृक्ष पर, फलें नाश के फूल।
हित यदि अपना चाहते, काटो उसे समूल।।६।।

निंदा रस में लिप्त जो, भरते सबके कान।
खुलती इक दिन पोल जब, क्या रह जाता मान ?।।७।।

आज हमें जो बाँटते, आँसू की सौगात।
कोई उनसे पूछता, क्या उनकी औकात ?।।८।।

पड़ें नज़र के सामने, किस मुँह शोशेबाज़।
झूठी शान बघारते, आए जिन्हें न लाज।।९।।

फर्क न अब मुझपर पड़े, लाख करो बदनाम।
नस सबकी पहचान ली,  देखा सबका काम।।१०।।

जब-जब मन भारी हुआ, गही लेखनी हाथ।
मेरी  यह  चिरसंगिनी, सदा  निभाती  साथ।।११।।

© डॉ.सीमा अग्रवाल,
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र )
( "मनके मेरे मन के" से )