Monday 20 September 2021

भ्रातृ चालीसा....

भ्रातृ-चालीसा --

भाई घर की शान है, बहनों का अभिमान।
भाई में बसती सदा,  हम बहनों की जान।।

रिश्ता भाई-बहन का, सबसे पावन जान।
इसके जैसा जगत में, मिले नहीं परमान।।

सबसे  उजला   निर्मल  नाता।
भाई-बहन का जग-विख्याता।।१।।

भाँति-भाँति के जन जगती में।
भाँति-भाँति के मन जगती में ।।२।।

नियामकों  ने   नियम  बनाए।
सोच-समझ  परिवार   बनाए ।।३।।

चुन-चुन  गढ़ीं  सुदृढ़  इकाई।
मात- पिता, भगिनी औ भाई।।४।।

एक  वृंत  पर  खिले दो  फूल।
एक  ही   मृदा  एक  ही  मूल।।५।।

सबसे  प्यारा   नाता  जग  में।
एक  खून   दौड़े   रग-रग  में।।६।।

रिश्ता  है  ये   सबसे   पावन।
जैसे  सब  मासों   में  सावन।।७।।

एक  मातु  के  हम-तुम  जाये।
अपने  साथ  मुझे   तुम  लाये।।८।।

लिखे- पढ़े- खेले   संग - संग।
देखे   जीवन    के   रंग - ढंग।।९।।

तुम   बचपन  के  साथी  मेरे।
अंत समय तक रहो संग मेरे।।१०।।

आँख खुली  तो  देखा तुमको।
आँख  मुँदे तक  देखूँ  तुमको।।११।।

भाई   तुम  रक्षक  बहनों  के।
तारे   हो   उनके   नयनों  के।।१२।।

तुम्ही  बहन  के  पहले   हीरो।
तुम बिन दुनिया लगती जीरो।।१३।।

बुरी  नजर  से  देखा  जिसने।
सबक सिखाया उसको तुमने।।१४।।

तुम  पर  कोई  आँच  न आए।
हर  मुश्किल  से  प्रभु  बचाए।।१५।।

साथ  तुम्हारा  नित  बना रहे।
ये  माथ  युगों  तक  तना रहे।।१६।।

राखी   सदा   कलाई    सोहे।
बहना  हर   पल  रस्ता  जोहे।।१७।।

जब-जब मुझपे विपदा आई।
दौड़े   आये,  न    देर  लगाई।।१८।।

जब-जब गिरा  मनोबल मेरा।
पाया  तब - तब  संबल  तेरा।।१९।।

पति, संतान,  पिता या  माता।
कोई न इतना   साथ निभाता।।२०।।

अश्रु  बहन  के  देख  न पाते।
सम्मुख विधि के अड़ तुम जाते।।२१।।

बिना स्वार्थ  दौड़े  तुम  आते।
पिता तुल्य सब फर्ज निभाते।।२२।।

तुमसे    रिश्ते-नाते   औ   रस।
तुम बिन दुनिया  होती  नीरस।।२३।।

भाई -दूज   पर्व   अति  पावन।
भर  जाता  खुशियों  से दामन।।२४।। 

शरारतें    यादें    मन   भावन।
राखी   लेकर  आता   सावन।।२५।।

स्मृतियाँ बचपन  की  लुभाएँ।
परत दर परत  खुलती  जाएँ।।२६।।

सोंधी-सुगंधित-सरस-सुवास। 
तन-मन में  भर देती  उजास।।२७।।

निज बहन की आन की खातिर।
रावण  रहा  सदा  ही  हाजिर।।२८।।

रखी  बहन के नेह  की  लाज।
वीर  हुमायूँ   पर   हमें  नाज ।।२९।।

हर  नाते  से   बढ़कर   भ्राता।
हर  विपदा  में  बनता   त्राता।।३०।।

माँगूँ  एक  न   हिस्सा  तुमसे।
जुड़े  रहो   तुम  पूरे    मुझसे।।३१।।

बना  रहे  नित  नेह   तुम्हारा।
बना  रहे  घर   बार   तुम्हारा।।३२।।

बँधी  कलाई   नेहिल  राखी।
बने अतुलित प्रेम की साखी।।३३।।

धीर  गंभीर  अति  बलशाली।
रहो सुखी  नित  वैभवशाली।।३४।।

भाई  तुम  पर   नेह  अगाधा।
हर सुख-दुख तुमने ही साधा।।३५।।

मात-पिता का  तुम्हीं  सहारा।
तुम बिन उनका कहाँ गुजारा।।३६।।

धुरी  तुम्हीं   हो   पूरे  घर  की।
पाओ खुशियाँ दुनिया भर की।।३७।।

कभी  न अपना  नेह छुड़ाना।
कभी बहन को भूल न जाना।।३८।।

बच्चों  के  तुम  मामा  प्यारे।
तुम  चंदा  तो   वो  हैं  तारे।।३९।।

सब  बहनों  के  प्यारे  भाई।
कृपा करें  तुम  पर  रघुराई।।४०।।

धन-धान्य  भरपूर रहे, रहे  कुशल  आबाद।
सुखी-स्वस्थ-समृद्ध रहे, दो प्रभु आशीर्वाद।।

जुग-जुग तक जग में रहें, मुद-मंगल त्यौहार।
मन-मानस करते रहें,    खुशियों की बौछार।।

- सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
"मनके मेरे मन के" से
(सर्वाधिकार सुरक्षित )

Friday 3 September 2021

कौन बचेगा इस धरती पर....

कौन बचेगा इस धरती पर…..

कुछ ख्वाब नयन में हैं बाकी,
क्या यहीं धरे रह जाएंगे ?
उनको पूरा करने फिर हम,
क्या लौट धरा पर आएंगे ?

बचा रहेगा भू पर जीवन,
या सब मिट्टी हो जाएगा ?
कौन बचेगा इस धरती पर,
ये कौन हमें बतलाएगा ?

हम न रहेंगे, तुम न रहोगे,
ऐसा भी इक दिन आएगा।
जितना मान कमाया जग में,
पल में स्वाहा हो जाएगा।

फिर से युग परिवर्तन होगा,
सतयुग फिर वापस आएगा।
कलयुग का क्या हश्र हुआ था,
जो शेष रहा, बतलाएगा।

जाते-जाते अब भी गर हम,
सत्कर्मो के बीज बिखेरें।
स्वार्थ त्याग कर मानवता के,
धरा-भित्ति पर चित्र उकेरें।

पूर्वजों का इस मिस अपने,
कुछ मान यहाँ रह जाएगा।
प्राण निकलते कष्ट न होगा,
अपराध-बोध न सताएगा।

अपने तुच्छ लाभ की खातिर,
पाप सदा करते आए हैं।
माँ धरती माँ प्रकृति का हम,
दिल छलनी करते आए हैं।

और नृशंसता कहें क्या अपनी,
रौंद दिए हमने वन- उपवन।
स्वार्थ में इतना गिर गए हम,
चले बाँधने जल और पवन।

जितना छला प्रकृति को हमने,
वो सब वापस उसे लौटा दें।
पाटीं नदियाँ खोल दें फिर से,
पंछियों के फिर नीड़ बसा दें।

फिर प्रकृति की बैठ गोद में,
नफरत-हिंसा-द्वेष मिटा दें।
आस भरे निरीह जीवों पर,
फिर से अपना प्यार लुटा दें।

साथ हमारे सृष्टि हमारी,
दुश्मन को ये भान करा दें।
फूट-नीति न चलाए हम पर,
इतना उसको ज्ञान करा दें।

हरियाली जग में छाएगी,
महामारी टिक न पाएगी।
नेह बढ़ेगा संग प्रकृति के,
समरसता वापस आएगी।

“काव्य पथ” से
– © डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Monday 30 August 2021

कृपाण घनाक्षरी ( श्री कृष्ण जन्म )

श्रीकृष्ण जन्म…

कृपाण घनाक्षरी (श्रीकृष्ण जन्म)…

मैया की पीन पुकार
सुनते थे बारंबार
करने पाप संहार
आए स्वयं इस बार

छुपी प्रलय वृष्टि में
हलचल थी सृष्टि में
दृश्य अद्भुत दृष्टि में
हुए जो प्रभु साकार

द्वारपाल सब सोए
आगत नैन संजोए
वक्त हार-पल पोए
खुल गए सारे द्वार

मिला मुक्ति का संदेश
दिखा नया परिवेश
हर्षित देव-देवेश
करते जै जयकार

२- हे प्रभु मुझे उबार….

अद्भुत यह संसार ,
समझ न आए पार
नैया फँसी मझधार,
कर प्रभु बेड़ा पार

लेकर धर्म की आड़,
करें सभी खिलवाड़
मिटाए मिटे न राड़,
बढ़ रहा अँधियार

सबकी अपनी शान,
सबका अपना मान
सभी हैं गुणों की खान,
करते धन से वार

बढ़ रहे अत्याचार,
मची कैसी मारामार
मिटा जगती का भार,
हे प्रभु, ले अवतार

३-
आ गयी मैं तेरे द्वार
करूँ श्याम मनुहार,
सुन ले पीन पुकार
कर दे रे बेड़ा पार

तू ही जीवन आधार,
तुझसे ही ये संसार
है तू ही खेवनहार,
थाम मेरी पतवार

अद्भुत रचा प्रपंच,
दिखाई दया न रंच
कैसा रे, तू सरपंच
है सत्य जहाँ लाचार

कोई नहीं सच्चा मीत
झूठी है सबकी प्रीत
कैसे निभे कोई रीत
घिरा घना अँधियार

– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0)
” मनके मेरे मन के ” से

Tuesday 27 July 2021

मुझे याद तुम्हारी आती है....

बदली जब नभ में छाती है
धरा झूम- झूम इठलाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

इक बूँद बरस जब स्वाति की
चातक की प्यास बुझाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

चंद्र-ज्योत्स्ना आ चकोर को
ओढ़नी जब धवल उढ़ाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

मधुर स्पर्श पा रवि-करों का
कमलिनी खिल जब जाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

- © डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Wednesday 21 July 2021

किन्नर व्यथा..

किन्नर व्यथा पर...

जिस जननी ने जाया हमको, किया उसने ही हमें पराया।
जिस पिता का खून रगों में, उसे भी हम पर तरस न आया।
अन्याय  समाज और अपनों का, जन्म लेते ही हमने झेला।
उलझे रहे नित प्राण हमारे, जीवन के सम-विषम में।

कोख वही सेती है हमको,बीज वही पड़ता है हममें।
बिगड़ा मेल गुण-सूत्रों का, जो रह गयी कमी कुछ हममें।
लाडले हो तुम मात-पिता के,  हम उनके ठुकराए हैं।
एक ही माँ के जाये हम-तुम, अंतर क्या तुममें हममें ?
- ©  सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Monday 19 July 2021

कोई अपना उपमान नहीं है.....

कोई अपना उपमान नहीं है....

शून्य जीवन, एक दिल, दो नयना,आँसू अनगिन, गम बेशुमार
कितना रोना लिखा भाग्य में, हमें किंचित अनुमान नहीं है।

मन-पृष्ठ कोरे, सूखी स्याही
रहती गमों  की आवाजाही
हर चाह से  करती किस्मत 
हफ्ता बसूली   और उगाही
दुख से युगों-युगों का नाता, सुख से कोई पहचान नहीं है
हम जैसे बस एक हमीं हैं, कोई अपना उपमान नहीं है

मीलों  दूर  चले आए हम
बचपन  पीछे  छोड़ आए
नव्य तलाशने की खातिर 
संबंध  पुराने   तोड़ आए
जड़ों से अपनी कटकर जीना इतना भी आसान नहीं है

भाग्य हीनता आयी  हिस्से 
आँसू  हुए  बदनाम  हमारे
टीस, घुटन, संत्रास, वेदना
लिखे गये सब  नाम हमारे
गिन-गिन फलीं सब बद्दुआएँ, फला कोई वरदान नहीं है
हम जैसे बस एक हमीं हैं, कोई अपना उपमान नहीं है
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
"मनके मेरे मन के" से

Saturday 17 July 2021

चलो उस पार....

चलो उस पार चलते हैं, जहाँ गम का निशां ना हो
जहाँ कल कल नदी बहती, हवा का खूब आना हो
न हों छल-छद्म से कंटक, सभी सुख से रहें मिलकर
बरसता हो जहाँ सावन, खुशी का ना ठिकाना हो
- © डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

अजब जग के नजारे हैं....

मुक्तक ...
1222 1222 1222 1222
न खाते फल तरू अपने, न पीती जल नदी अपना,
बरसते मेघ परहित में, न रखते स्वार्थ ये अपना,
गगन में चाँद सूरज भी, जगत हित रोज आते हैं,
सुजन जग में जनम लेकर, निभाते फर्ज हर अपना ।१।

नहीं रोते कभी गम में,  खुशी पाकर न हँसते हैं,
रखें मन शांत सुख-दुख में,निभाते खूब रिश्ते हैं,
जमाने के सभी वैभव, सदा फीके लगें जिनको,
बड़े दुर्लभ सुजन ऐसे,      धरा पर वे फरिश्ते हैं।२।

कहीं सूखा कहीं बाढ़ें, अजब जग के नजारे हैं,
कहीं घनघोर  बारिश है,  कहीं सूखे किनारे हैं,
उजालों औ अँधेरों में, छुपा है सार जीवन का,
धरा आकाश मिल दोनों, करें गुपचुप इशारे हैं।३।

उधर देखो झुपड़पट्टी,    वहाँ इक नार रहती है,
धरा सिर बोझ है उसके, धरा सा भार सहती है,
घटा घुमड़ जब आती है,भिगोकर खूब जाती है,
इधर आँसू बरसते हैं,    नदी उस पार बहती है।४।

गजब छायी बहारें हैं,  अजब जग के नजारे हैं,
जरा देखो  उधर सजना, उतर आए  सितारे हैं,
गगन खामोश तकता है,  धरा बेहाल दिखती है,
कहीं शोले कहीं शबनम, कहीं दिखते शरारे हैं।५।
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Wednesday 7 July 2021

सभी गम से गुजरते हैं....

एक मुक्तक...
1222 1222 1222 1222

न रोको तुम किसी को भी, न टोको तुम किसी को भी
करे जो जी करे जिसका,  न बोलो कुछ किसी को भी
हमारा  फर्ज  समझाना,     न समझे तो  करें क्या हम 
सभी गम से गुजरते हैं,   न समझो खुश किसी को भी
-© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

प्यारा सा अलबेला चाँद....

प्यारा-सा अलवेला चाँद...

रूप का उसके कोई न सानी, प्यारा-सा अलवेला चाँद
निहारे धरा को टुकुर-टुकुर, गोल मटोल मटके-सा चाँद

चुपके-चुपके साँझ ढले  वह, नित मेरी गली में आता
नजरें बचाकर सारे जग से, तड़के ही छिप जाता चाँद

सहज-सरल औ रजत-धवल है, स्निग्ध वपु नवल-विमल
तुम्हारे शहर से तो उजला है, मेरी गँवई बस्ती का चाँद

जब भी दौड़ूँ उसे पकड़ने, हाथ न मेरे कभी वह आए
औचक छिटक जा पहुँचे नभ में, माला के मनके-सा चाँद

भाव दिखाकर उछल अदा से, दूर गगन में जा बैठे
नभ में  तन्हा मारे फिर मक्खी, मंदी के धंधे-सा चाँद

दूषित हवा के पड़े थपेड़े, आनन विवर्ण हुआ उसका
पाण्डु रोग से पीड़ित लगता, जर्द पड़ा हल्दी-सा चाँद

पकड़ न आये शरारत उसकी, शातिर बड़ा हुनर वाला
रात-रात भर विचरे अकेला,  आवारा  लड़के-सा चाँद

जब-जब भी मैं उसे पुकारूँ, जा छुपे बदली की ओट
कितना मनाऊँ न माने पर, क्या जानूँ क्यों रूठा चाँद

राह तक-तक नयना हारे, न जाने कहाँ छुपा है निष्ठुर
उमर उसे लग जाये मेरी,  प्रभु रहे सलामत मेरा चाँद
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Monday 5 July 2021

कभी थे फूल से कोमल- एक मुक्तक

1222 1222 1222 1222
कभी थे फूल से कोमल, मगर अब शूल से लगते
हुए जो दिल कभी इक जां, नदी के कूल से लगते
तराने प्रेम के मेरे, मुझे ही आज छलते हैं
बसी थी हर खुशी जिनमें, वही अब भूल से लगते
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"मनके मेरे मन के" से

सोने-चाँदी से न तोल सनम...

साहित्यपीडिया हिंदी
Post published!
Jul 5, 2021 · गीत
 Reading time: 1 minute

सोने-चाँदी से न तोल सनम…

Edit Post Delete Post

सोने- चाँदी से न तोल सनम….

सोने- चाँदी से न तोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम

प्यार में सौदा, तौबा रे तौबा
प्यार में शर्तें, तौबा रे तौबा
वणिक-सी बात न बोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम

तोड़ के सारी प्यार की रस्में
साथ निभाने की सब कसमें
जीवन में विष न घोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम

प्यार है पूजा, प्यार है इबादत
समझ न इसको कोई तिजारत
चले न यहाँ कोई झोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम

इस राह चलना आसान नहीं
कायर का यहाँ पर मान नहीं
खुलती है कभी तो पोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम

बड़े – बड़े नाज़ों से पाले
ऊँचें महलों में रहने वाले
बिक जाते यहाँ बेमोल सनम
प्यार होता है अनमोल सनम
सोने-चाँदी से न तोल सनम
-© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“काव्यधारा” से

Friday 2 July 2021

आज तुम्हें फिर देखा हमने....

आज तुम्हें फिर देखा हमने….

आज तुम्हें फिर देखा हमने
तड़के अपने ख्वाब में
छुप कर बैठे हो तुम जैसे
मन के कोमल भाव में

किस घड़ी ये जुड़ गया नाता
तुम बिन रहा नहीं अब जाता
कब समझे समझाने से मन
हर पल ध्यान तुम्हारा आता

जहाँ भी जाएँ पाएँ तुम्हें
निज पलकन की छाँव में

क्यों तुम इतने अच्छे लगते
मन के कितने सच्चे लगते
छल-कपट से दूर हो इतने
भोले जितने बच्चे लगते

मरहम बनकर लग जाते हो
जग से पाए घाव में

तुम पर कोई आँच न आए
बुरी नजर से प्रभु बचाए
स्वस्थ रहो खुशहाल रहो तुम
दामन सुख से भर-भर जाए

साजे पग-पग कमल-बैठकी
चुभे न काँटा पाँव में

नजर चाँद से जब तुम आते
मन बिच कैरव खिल-खिल जाते
भान वक्त का जरा न रहता
बातों में यूँ घुल-मिल जाते

यूँ ही आते-जाते रहना
मेरे मन के गाँव में

आज तुम्हें फिर देखा हमने…

– © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“मनके मेरे मन के” से

Thursday 1 July 2021

क्या क्षणिक इन आँधियों से....

रहे न अगर आस तो....

क्या क्षणिक इन आँधियों से,जिंदगी डर जाएगी
रहे न अगर  आस तो हाँ, प्यास  ही  मर जाएगी

तू बस अपना काम कर
फल चला खुद आएगा
तीरगी  को  चीर,  वहीं
रौशनी    रख   जाएगा
मन में  शीतल  शुद्ध  हवा,  ताजगी भर जाएगी
रहे न अगर  आस तो हाँ.....

वक्त ठहर गया तो क्या
समय न अपना तू गँवा
हौसलों  में   जान   रहे
पल में  होगा दुख  हवा
झोंका सुख का आएगा,  किस्मत सँवर जाएगी
रहे न अगर  आस तो हाँ.....

पहुँच न ले  गंतव्य  तक
न तब तलक तू साँस ले
मंजिल  निकट  आएगी
मिट   जाएँगे    फासले
छूकर  मन  की  भावना, मौत  भी  तर  जाएगी
रहे न अगर  आस तो हाँ......

जिंदगी का  सुर्ख सफ़ा
पल-पल नजरों  में  रहे
हार-जीत का फलसफ़ा
नित-नित  साँसों में बहे
ढील  जरा  भी  दी  अगर, चेतना  मर  जाएगी
रहे न अगर  आस तो हाँ, प्यास ही मर जाएगी
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"मनके मेरे मन के" से

Wednesday 30 June 2021

निर्मम, क्यूँ ऐसे ठुकराया....

निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया...

निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया
जरा भी मुझपे तरस न आया

खड़ी रही मैं द्वार तुम्हारे
निर्मल स्नेह- डोर सहारे
थक गयी आस,  दरस न पाया

पलक-पाँवड़े बिछाए मैंने
आरती- दीप  सजाए मैंने
जलद नेह का,  बरस न पाया

कितने फागुन बीते यूँ ही
कितने सावन  रीते यूँ ही
हाय! मिलन का, बरस न आया

कितने तूने  गले  लगाए
छूकर पारस खूब बनाए
खड़ी  दूर   मैं,   परस  न  पाया

निर्मम ! क्यूँ ऐसे ठुकराया....

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Friday 25 June 2021

खींच मत अपनी ओर ...

https://hindi.sahityapedia.com/?p=139497

खींच मत अपनी ओर अतीत
साथ हमारा  गया  अब  बीत

माना  तू  सुहाना  बहुत  है
पर अब मुझसे दूर बहुत है
आकर्षण में  बँध  मैं आती
दिखता तुझमें  नूर बहुत है
          गुजरी तेरे  साथ  मौज  से  
          जिंदगी हसीं गयी वो बीत
खींच मत ....
तेरा - मेरा      नाता     टूटा
मैं   आगे   तू   पीछे   छूटा
वर्तमान से  मिल कर रहना
उसकी हाँ में हाँ अब कहना
         दुनिया चले  वक्त की शै पर
         वक्त से कोई  सका न जीत
खींच मत ....
काश ! कभी  पीछे आ पाती
ख्वाब  सभी  पूरे  कर जाती
हड़बड़ी  में   हाथ   से   छूटी
खुशी  साथ  अपने ले जाती
         गीत मेरे सुर - ताल  पे  तेरी  
         रचते  मिल  मधुमय  संगीत
खींच मत ....
वे दिन  भी क्या  सुंदर  दिन थे
ख्वाब नयन में तब अनगिन थे
गमों का था  न पता - ठिकाना
कितने मौज भरे  पल-छिन थे
       भूली  नहीं  आज भी  दिन वो
       मिला था जब मुझको मनमीत
खींच मत ....
भरसक तूने   साथ   निभाया
पर किस्मत को रास न आया
आज उदासी  के  आलम  में
याद  तुझे  कर  जीवन  पाया
             यूँ ही निज कोटर में साथी
             रखना  छुपाए   मेरी  प्रीत
खींच मत अपनी ओर.....
©-डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
"मनके मेरे मन के" से

Wednesday 23 June 2021

मनहरण घनाक्षरी....

पड़ी वक्त की लताड़, जिंदगी हुई उजाड़,
आस-प्यास सब मिटी, चाह दुखदायी है।

हाय ये कैसी बेबसी, माँ- बहन चल बसी,
रिश्तों को यूँ खोते जाना, घोर कष्टदायी है।

दोस्त भी कुछ खो दिए, दूर ही बैठे रो दिए,
दूरियाँ-मजबूरियाँ, क्या-क्या संग लायी है।

लपलपाती जीभ ले, अदृश्य कालदण्ड ले,
कालिका-सी किलकती, महामारी आयी है।

-© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Saturday 19 June 2021

रात बदरिया घिर-घिर आए...

रात  बदरिया  घिर - घिर  आए
पास  न   कोई   दिल   घबराए

बागी  हुआ     निगोड़ा  मौसम
आ  धमकाए    लाज  न  आए

उफ   कैसी   मनहूस   घड़ी  है
बात - बात  पर  जी  अकुलाए

बेढब   चालें     चलती   दुनिया
बिना  बात   ही     बात  बनाए

बुझी - बुझी   सी   लगे  चाँदनी
करके   इंगित     पास    बुलाए 

किस  गम   में    डूबा   है  चंदा
फिर-फिर आए  फिर-फिर जाए

विरह - भुजंगम     टले  न  टाले
बैठा    भीतर       घात    लगाए

बैन   रुँधे   हैं    नैन    पिपासित
रैन  न  जाए         चैन  न  आए

क्या - क्या  और    देखना बाकी
'सीमा' गम की        कौन बताए

- सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
"मनके मेरे मन के" से

Tuesday 15 June 2021

तुम ना आए....

तुम ना आए...√

उग आया लो चाँद गगन में
तुम ना आए
खोई  तुममें  रही  मगन  मैं
तुम ना आए

याद करो  तुम ही कहते थे
साँझ ढले  घर आ जाऊँगा
निकलेगा जब  चाँद गली में
मैं तुमसे मिलने आऊँगा
            लो, आया वो चाँद गली में
            तुम ना आए....

बिना तुम्हारे गम सहकर भी
हमने जग  के  फर्ज  निभाए
अवधि गिन-गिन जिए रहे हम
जीवन के सब कर्ज चुकाए
        देखा तुमको चाँद - झलक में
        तुम ना आए....

बड़ी खुशी से संग सखी के
हमने  सब  सिंगार  सजाए
वेणी  गूँथी    माँग   सजाई
जड़े  सितारे     हार  बनाए
        उलझ गया लो चाँद अलक में
        तुम ना आए....

गुजरीं   कितनी  पूरनमासी
कितनी घोर अमावस आयीं
शिशिर-हेमंत-बसंत-पतझर
षड्ऋतु आतप-पावस छायीं
        आँसू  आ-आ रुके पलक में
        तुम ना आए
        डूब गया लो  चाँद फलक में
        तुम ना आए....
-डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
https://hindi.sahityapedia.com/user/seema0806

Tuesday 8 June 2021

स्वरचित दोहे...

दोहे....

सावन आया देखकर, हर्षित दादुर मोर।
चंदा बदली में छुपा,   रोता फिरे चकोर।।१।।

अबके सावन करो प्रभु, करुणा की बरसात।
शाख  ना  टूटे  कोई,   हुलसें  घर-घर  पात।।२।।

सब जन विकार मुक्त हों, धुल जाएँ सब पाप।
बह जाए ये वायरस,      मिट जाएँ भव-ताप।।३।।

मेघ बरसते देखकर,       मन में उगा विचार।
जग के सब कल्मष बहें, रहे न लेश विकार।।४।।

हर ले मलिनता सारी,    बारिश की बौछार।
मन-गंगा निर्मल बहे,      तर जाएँ नर-नार।।५।।

महामारी में लिपटी,  देख धरा लाचार।
रोए गगन भी देखो,  आँसू नौ-नौ धार।।6।।

जिस अदने वायरस ने,    छीने होश-हवास।
अबकी बारिश जल मरे, जैसे आक-जवास।।७।।

वर्षा जीवन-दायिनी,      तप्त धरा की आस।
सकल चराचर जगत की, यही बुझाए प्यास।।८।।

पानी बिन जीवन नहीं, वर्षा जल की खान।
बूँद-बूँद  संग्रह करो, इसका   अमृत  जान।।९।।

-डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Saturday 5 June 2021

आज तुम्हें फिर देखा हमने...

आज तुम्हें फिर देखा हमने...

आज तुम्हें फिर देखा हमने
तड़के अपने ख्वाब में
छुप कर बैठे हो तुम जैसे
मन के कोमल भाव में

किस घड़ी ये जुड़ गया नाता
तुम बिन रहा नहीं अब जाता
कब समझे समझाने से मन
हर पल ध्यान तुम्हारा आता

जहाँ भी जाएँ पाएँ तुम्हें
निज पलकन की छाँव में

क्यों तुम इतने अच्छे लगते
मन के कितने  सच्चे लगते
छल-कपट से दूर हो इतने
भोले  जितने  बच्चे  लगते

मरहम बनकर लग जाते हो
जग से पाए घाव में

तुम पर  कोई  आँच न आए
बुरी  नजर  से  प्रभु  बचाए
स्वस्थ रहो खुशहाल रहो तुम
दामन सुख से भर-भर जाए

यूँ ही आते-जाते रहना
मेरे मन के गाँव में...

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Sunday 30 May 2021

जब आया बरसात का मौसम...

https://hindi.sahityapedia.com/?p=137345

जब आया बरसात का मौसम...

जब आया  बरसात  का मौसम
घिर आया  जज्ब़ात का मौसम

उँगली अधर  पर  धरता  आया
मन से  मन की बात का मौसम

खड़ा द्वार  ज्यों  दे रहा  दस्तक
प्रेम- सनी   सौगात का  मौसम

संग  चाँदनी   छिप  गया  चंदा
घुप  अँधियारा  रात का मौसम
                     
याद आ फिर-फिर मुझे  सताए
हुई  उनसे  हर  बात का मौसम

दिल पर छाप अमिट छोड़ गया
इक हसीं  मुलाकात का मौसम

वो छुवन मृदुल  मधुर आलिंगन
भूलूँ    न  जुमेरात  का   मौसम

मीठी  अगन में  झुलसे  विरहन
रूठा  सुकूं-हयात   का  मौसम

मुरझी   आस   बरसें  दो   नैना
यादों   की   बारात  का  मौसम

बरसे  कहीं    पर  यहाँ न आए
भीख-दया-खैरात   का  मौसम

नाजुक  मन  ये  सहे  तो  कैसे
पाहन  सम आघात का मौसम

-सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Thursday 13 May 2021

कोरोना काले.....

कल क्या होगा ?

कुछ ख्वाब नयन में हैं बाकी
क्या यहीं धरे रह जाएंगे ?
उनको पूरा करने फिर हम
क्या लौट धरा पर आएंगे ?

बचा रहेगा भू पर जीवन
या सब मिट्टी हो जाएगा ?
कौन बचेगा इस धरती पर
ये कौन हमें बतलाएगा ?

हम न रहेंगे, तुम न रहोगे
ऐसा भी इक दिन आएगा
जितना मान कमाया जग में
पल में स्वाहा हो जाएगा

फिर से युग परिवर्तन होगा
सतयुग फिर वापस आएगा
कलयुग का क्या हश्र हुआ था
जो शेष रहा, बतलाएगा

जाते-जाते अब भी गर हम
सत्कर्मो के बीज बिखेरें
स्वार्थ त्याग कर मानवता के
धरा-भित्ति पर चित्र उकेरें

पूर्वजों का इस मिस अपने
कुछ मान यहाँ रह जाएगा
प्राण निकलते कष्ट न होगा
अपराध-बोध न सताएगा

अपने तुच्छ लाभ की खातिर
पाप सदा करते आए हैं
माँ धरती, माँ प्रकृति का हम
दिल छलनी करते आए हैं

जितना छला प्रकृति को हमने
वो सब वापस उसे लौटा दें
पाटीं नदियाँ खोल दें फिर से
पंछियों के फिर नीड़ बसा दें

फिर गोद में बैठ प्रकृति की
नफरत-हिंसा-द्वेष मिटा दें
आस भरे निरीह जीवों पर
फिर से अपना प्यार लुटा दें
-सीमा अग्रवाल

Saturday 20 February 2021

विवाह-जयंती...

जीवन महके फूलों-सा बिखरे मादक गंध बसंती
मन-संपुट प्रेम-पराग भरे शुभ बहुत हो विवाह- जयंती

मधुर भावों के कलरव से मन गुंजित, आह्लादित हो
फैले धवल  यश-चन्द्रिका तुम्हारी  दिग्दिगंत दिपंती
-सीमाअग्रवाल
मुरादाबाद

Thursday 18 February 2021

हम-तुम दीपक-बाती...

हम-तुम दीपक-बाती...

वो रात कभी तो आती
तुम होते  साथ मेरे  मैं जी  भर  तुमसे  बतियाती
मुँह  छुपा  सीने  में  तुम्हारे  बेसुध  हो  सो जाती
पाकर  साथ  तुम्हारा  फूली  न  खुद  में  समाती
निश्छल नेह तुम्हारा  मेरी जनम-जनम की थाती
तुम कान्हा मैं मीरा रच-रच  गीत प्रणय के गाती
आ जाती जब  नींद  तुम्हें  मैं धीमे  से उठ जाती
निरखती मुखड़ा तुम्हारा आनंद अलौकिक पाती
लिखती-मिटाती रहती  मैं  नाम की तुम्हारे पाती
राह तकती अथक तुम्हारी पलक-पाँवड़े बिछाती
चुन स्मृतियाँ मधुर सजीली मन का द्वार  सजाती
मिल हर लेते तम गम का  हम-तुम दीपक-बाती
-सीमा
मुरादाबाद