Tuesday 29 November 2016

आशा : एक चिराग

हर बार बना महल
सपनों का, ढह गया
खण्डहर में पर
एक चिराग जलता रह गया
आया झंझावात
जमकर वज्रपात हुआ
कोमल, नाजुक जज्बातों पर
विकट तुषारापात हुआ
ध्वस्त हो गयीं सब दीवारें
ऐसा प्रबल आघात हुआ
हुए अनगिन प्रहार
पर हार ना मानी उसने
फिर से उठने, संवरने की
हठ मन में ठानी उसने
एक- एक कर हुए तिरोहित
भाव सब जख्मी मन के
पिरोता रहा पर वह
मन ही मन
आशाओं के मन भर मनके
जलता रहा अकेले
सेंकता रहा हाथ
अपने ही अरमानों की
धधकती चिता पर
हर सुख जिसका
पलक झपकते पल भर में
साथ अश्कों के बह गया ।

- सीमा
२९-११-२०१६

अपना अपना सब खाते हैं .....

अपना- अपना सब खाते हैं !
कुछ सूखा कुछ तर खाते हैं !

नसीब न जिन्हें दो जून की रोटी
आँसू पीते और गम खाते हैं !

हिंसक पशु भी उनसे अच्छे हैं
मासूमों पर जो कहर ढाते हैं !

खुदा की नजर से बच न सकेंगे
जुल्मी यहाँ जो बच जाते हैं !

नेक नीयत होती है जिनकी
वे दिल में गहरे उतर जाते हैं !

कैसे यकीं करे कोई उन पर
करके वादे जो मुकर जाते हैं !

क्या खुशी देंगे वे किसी को
पर खुशी देख जो जल जाते हैं !

देश न उन्हें कभी माफ करेगा
जिनके विदेशों में खाते हैं !

चुप कर 'सीमा' बोल ना ज्यादा
सच को यहाँ सब झुठलाते हैं !

- सीमा

Friday 25 November 2016

वर्ण- पिरामिड

वर्ण- पिरामिड

रे   -१
मन   -२
नादान   -३
होश में आ  -४
बात ले मान   -५
होगा एहसान   -६
मुझ पर ये तेरा   -७
क्यूँ आस करे उसकी   -८
कभी हो न सके जो तेरा   -९
ना थका यूँ आँखें तू अपनी   -१०
तक अनथक राह उसकी   -११
नहीं कद्र उसे जब तेरी   -१०
क्यूँ तू उसकी चाह करे   -९
ना कर पीछा उसका   -८
आ लौट आ पगले   -७
लौटा ले कदम   -६
मंजिल नहीं   -५
वह तेरी   -४
मायूस   -३
ना हो   -२
रे   -१

- सीमा
२५- ११- २०१६

Wednesday 23 November 2016

मिलता ना कभी क्यूँ मनचाहा ---

चाहे कितना प्यार लुटा दो किसी पर
जब जरुरत हो खुद को, नहीं मिलता
यूँ तो बहुत कुछ मिल जाता बिन माँगे
मगर मन चाहे जिस को, नहीं मिलता
- सीमा

Monday 21 November 2016

मेरी कलम से ---

ये मौहब्बत ही तो है, जो धड़कती है आज भी सीने में
वरना सांसें तो हमारी भी कब की थम गयी होतीं !

"अर्थ मौहब्बत का- बस देते जाना" कहा था उसने
बस इसीलिए हमने पलटकर कभी कोई चाह न की !

- सीमा

Monday 14 November 2016

मेरा तुम्हारा प्रेम सनातन---

निखर-निखर जाए रूप मेरा
मिले मुझे जो प्यार तुम्हारा
तुम्हीं तो हो श्रंगार प्रिय मेरा
तुम पर मैंने तन- मन वारा

वजूद नहीं था मेरा कोई
ना ही कोई रूप था मेरा
मैं धी एक लोंदा माटी का
तुमने ही तो मुझे संवारा

निरख तुम्हारी छवि दूर से
कली दिल की खिल जाए
रवि-कमलिनी,चाँद-कुमुदिनी
सा अनन्य है प्रेम हमारा

तुम जब चंदा बनकर आते
मैं मुग्धा चकोरी हो जाती
बिंब तुम्हारा कल्पित कर
झपट चुग लेती मैं अंगारा

जब तुम बरसते बादल से
मैं चातकी प्यासी हो जाती
बुझती तृषा युगों- युगों की
पी निर्मल स्नेह- जल धारा

मेरा तुम्हारा प्रेम सनातन
मैं हूँ राधा, तुम हो मोहन
रहें अभिन्न हम एक दूजे से
लाख उलाहनें दे जग सारा

- सीमा
१५/११/२०१६

Thursday 10 November 2016

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे ---

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे
कैसे हँसी लबों पर लाऊँ !
सच्चाई पे परदा डाल दूँ  कैसे
भाग्य को कैसे झुठलाऊँ !

हँसी- ठिठोली करूँ गर कोई
वो भी किसी के मन ना भाए
सिमट रहूँ गर अपने तक ही
तो भी तो जग ये बात बनाए
               दरक रहा कुछ मन के भीतर
               पर कतरे ये किसको दिखलाऊँ !

चिरसंगिनी है उदासी तो मेरी
भला जुदा हो कैसे मन से मेरे
कवच- कुंडल सी चिपकी है
जन्म से ही यह तो तन से मेरे
                मुखौटा पहन खुशी का पल भर
                कैसे इससे अपनी नजर चुराऊँ !

हुई संध्या, तम सघन घिर आया
संदेश न कोई पर प्रिय का आया
पथराईं आँखें पथ जोहते-जोहते
साया भी उसका नजर ना आया
                तनहा बिलखते मन- प्राणों को
                कैसे समझाऊँ, कैसे बहलाऊँ !

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे
कैसे हँसी लबों पर लाऊँ !
सच्चाई पे परदा डाल दूँ  कैसे
भाग्य को कैसे झुठलाऊँ !

- स+ई+म+आ

Tuesday 8 November 2016

कैसी विवशता आई

कैसी विवशता आई, खुल गयी भरी तिजोरी
पाई- पाई निकल गयी जोड़ी जो चोरी- चोरी
जोड़ी जो चोरी-चोरी, खुल गयी उसकी पोल
मोदी जी क्या समझेंगे, गाढ़ी कमाई का मोल
एक दिन की मोहलत दी न की व्यवस्था कैसी
दिखाते- छुपाते ना बने, आई विवशता कैसी !
- सीमा

Saturday 5 November 2016

मुझे संग बचपन के जीने दो

जैसे जीती रही हूँ अब तक
मुझे बैसे ही अब भी जीने दो
ख्बाब दिखाकर खुशियों के
तिल- तिल न मुझे यूँ मरने दो

ना छलकाओ प्रेम का आसव
ना ये अमृत-कलश ढुलकाओ
रहने दो प्रभुवर करुणा अपनी
मुझे गरल ही गमों का पीने दो

नहीं कामना करूँ अब सुख की
दुख ही अंतरंग संबंधी अब मेरे
बार- बार सीवन उधड़े जिनकी
वे जख्म ही फिर- फिर सीने दो

आसमां छूने की ललक में मैंने
प्रगति के नित नव सोपान चढ़े
बड़प्पन में पर सुख नहीं कोई
मुझे बचपन के संग ही जीने दो

- सीमा