Wednesday 6 December 2017

पल रहा था नयनों के भीतर ख्बाब एक मधुर सलोना था......

कब तक जागा रहता यूँ ही
हासिल न कुछ भी होना था
एक न एक दिन तो आखिर
उसे चिर- निद्रा में सोना था

प्रेम- भाव पनपा था मन में
उमंगित हो-हो इठलाता था
पंख पसार कर नन्हे- नन्हे
किस्मत को  झुठलाता था
          जीव वो भोला जान सका ना
          नियति उसकी गम ढोना था

मन-ताल आज फिर सूखा है
प्रेम-परिंदा अतिशय भूखा है
कबसे नेहिल बरसात हुई ना
प्रिय  से जी भर  बात हुई ना
            कट रही रात नयनों में सूनी
           भाग्य में बिलखना, रोना था

पाने की मन में ललक लगी
एक पल न फिर पलक लगी
तकते एकटक नयन चकोर
उचकते रह रह उसकी ओर
          शिशु नेह का नादान बड़ा था
          चाँद को समझा खिलोना था

किसी से न उसका बैर हुआ
किसके  लिए  वह  गैर हुआ
उसकी नजर में सब थे अपने
देखता सब के सुख के सपने
          बचा न क्यूँ वो बुरी नजर से
          माथे जब नजर-डिठौना था

आता समझ यही रह रहकर
कहें आँसू भी यही लरजकर
बंजर आस क्या मन ने पाली
अरमानों पर चल गयी कुदाली
            लोभी क्यूँ मन की चाह हुई
            यह बीज न फिर से बोना था

मन का भी कोई दोष नहीं
उस पर भी कोई रोष नहीं
चाहा उसे कब बाँधे रखना
तपस्वियो-ंसा साधे रखना
              बहुत सालता था खालीपन
              सूना एक उसका कोना था

अदनी सी यह चाह थी माना
आसान न था पूरी कर पाना
दीवाना था वो धुन में अपनी
मुश्किल था उसको समझाना
            अपनी भूल गलती का आखिर
            अहसास तो उसको होना था !

- सीमा

            

Tuesday 5 December 2017

अब तक न जाना चंदा...

अधर कुछ कह न पाए
मौन वे समझ न पाए

तकते रहे हम उनको
उनसे ही नज़र चुराए

झपीं न पलकें पल भर
तक-तक न नयन अघाए

प्यास बुझी ना मन की
मेघा कितने घिर के आए

इक प्यासे चातक हित
स्वाति-बूँद कहाँ से आए

अब तक ना जाना चंदा
क्यूं चकोर के मन वो भाए

उठे मन में हूक रह-रह
छलते हमें अपने ही साए

उजड़ी बस्ती ख्वाबों की
कैसे भी अब बस न पाए

हर कोई आता- जाता
दुखती रग को छूता जाए

कौन, जो ऐसी घड़ी में
आहत मन को आस बंधाए

खुद बंधन तोड़ने वाला
क्यूँ 'सीमा' मेरी मुझे बताए

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
एक साझा काव्य संग्रह में प्रकाशित

रहस्यवाद

कवियों ने जब अव्यक्त सत्ता में निज अनुराग दिखाया
सौंदर्य-आकर्षण, विरह-मिलन का अद्भुत राग सुनाया
जब लोक-प्रेम माध्यम से हुआ उजागर प्रेम अलौकिक
ज्ञान कबीर का, प्रेम जायसी का,  रहस्यवाद कहलाया
- सीमा

Saturday 2 December 2017

परंपरा एवं आधुनिकता...

लिपटाए सीने से
आस्थाएँ
वर्षों पुरानी
नहीं गढ़ सकते हम बिंब
आज के आदर्श समाज का
बदलती है प्रकृति
पल- पल, छन- छन
स्वभाव से अपने
अनुकूलन करना
उससे टकराना
नियति है मनुज की

सतत विकास हित
समय, परिस्थिति को देखते हुए
अति आवश्यक है
स्थापित मान्यताओं में
बदलाव लाना

जड़ नहीं है
व्यवस्था समाज की
वह तो गतिशीला है
सदानीरा नदी सी
बढ़ती जाती है चंचला सी
आगे निरंतर
काटती प्रस्तर रुकावटों,
विघ्न बाधाओं के

वाद- विवाद- संवाद
चलते यहाँ निरंतर
परस्पर,
ताकि रहे समाज
स्वस्थ निरोगी सदा
पराजित हों
यहाँ वहाँ
कुकुरमुत्ते सी उगती बीमारियाँ

बुरा नहीं
रखना आस्था में आस्था
पर आचरण, व्यवहार हो
देशकालानुरूप सदा
जरूरी है
आस्था से भी बहस, संवाद
अपनाते हुए दृष्टिकोंण वैज्ञानिक

मंजिल,
निष्कर्ष
अंतिम नहीं कोई
हमारी इस ज्ञान- यात्रा में
जानते हैं हम
ऋत हैं नियम प्रकृति के
इसी से कहलाती है
ऋतंभरा वह

चलती है परमसत्ता भी
अधीन नियमों के
उससे ऊपर नहीं
धारे है भरमार प्रपंच
यह प्रकृति गोचर
प्रतिबद्ध हैं नियम
चाँद सितारों के
उगने अस्त होने के
अमावस, पूरनमासी के
शनैः शनैः
चाँद के घटने बढ़ने के
बदलते हैं मौसम
आती ऋतुएँ विविध
ग्रीष्म, शीत,
पावस, बसंत
अलग- अलग नियम, कायदे
तासीर सबकी

देखो ना
कैसे घुमड़ आते हैं मेघ गगन में
गरजते हैं, बरसते हैं
कौंधती है बिजली
उपल वर्षा
घटाटोप बारिश
सींच देते आँचल धरा का
लहलहाती, झूमती
हरी- भरी हो जाती धरती

यह नियमबद्धता
है बड़ी ही विस्मयबोधक
पर सत्य तो है यही

मान भी लें
पर्याय एक दूजे के
सत्य औ धर्म
पर
स्थिर आचार संहिता तो नहीं
धर्म मनुज का
निश्चित ही गूढ़ होता
तत्व धर्म का
लेकिन
धर्म स्वतः
प्रकृति में अपनी
न होता गूढ़ या जड़ कभी

रहा ना जड़
धर्म कभी
हमारे देश का भी
सतत गतिशीलता
ही तो है
यह उसकी
कि नित परिष्कृत करते हुए
मथते हुए आत्मा अपनी
उसने सतत
पुनर्नवा शक्ति पायी है

अपने अपने तरीकों से
समय- समय पर
महापुरूषों ने हमारे
धर्म- चेतना को
निर्जीव, जड़ होने से रोका है

बेशक
आदरणीय हैं धर्म- ग्रंथ
सब वर्ग संप्रदाय के
पर आचरण
व्यवहार को तो
होना होगा
अद्यतन सदा
देश काल
परिस्थिति अनुसार

सदियों पुरानी
चली आ रही
जर्जरित
सामाजिक व्यवस्था की
लाठी पकड़ तो
नहीं जी सकेगा
आज का मानव
यदि जीना था उसी युग में
फिर क्या जरूरत थी
नित हो रही
नूतन खोजों की
ज्ञान- संवर्धन की
उपलब्धियों के संकलन की

सच तो यह है कि
नहीं चलता जीवन
इतिहास के सहारे
आने वाली चुनौतियों
समस्याओं के साथ
उनके समाधान हित
प्रतिपल नया होते रहना
होता उसे

कसनी होंगी निकष पर
परंपराएँ पुरानी
खरी हुईं तो अपनीय
अन्यथा त्यागनी होंगी
पुरातनता के मोह-त्याग के संग
गढ़ने होंगे फिर
मूल्य नए
अनुरूप नई जरूरतों के

जो उस समय था
आज भी अगर
वही सब चलता रहे
अपने समस्त विकारों के साथ
फिर हमने क्या किया
महज अंधानुकरण के सिवा
क्या यूँ ही चलते रहें आँखें मीचे
महज आस्था और
क्षत- विक्षत, रूढ़,
जर्जर परिपाटियों के
अनुयायी बने

स्वीकार कर
सामयिक नवीनताएँ
होतीं
जीर्ण-शीर्ण
परंपराएँ
पुष्ट, बलिष्ठ
सुशोभित होती
ज्यों जीर्ण डाल भी
नव पल्लवों से
लद जाने पर

- सीमा

Tuesday 28 November 2017

चाँद दूज का ....

कित्ता प्यारा चाँद दूज का
देखो न यारा चाँद दूज का

अपनी लघुता पर इठलाए
क्यों सकुचाए चाँद दूज का

नयन कोर से इंगित करता
मन को भाए चाँद दूज का

खींच रहा मन अपनी ओर
मस्त अदा से चाँद दूज का

बेध रहा तम दम पर अपने
क्षीण बदन ये चाँद दूज का

अपनी इयत्ता में खुश रहना
समझाए हमें ये चाँद दूज का

देख लो जी भर आज इसे
फिर कब आए चाँद दूज का

तुम असीम, मेरी लघु 'सीमा'
तुम हो गगन मैं चाँद दूज का

- सीमा

Monday 20 November 2017

कल जब न रहूँगी मैं...

कल जब न रहूँगी मैं
मुझे याद करोगे तुम
एक झलक पाने की
फरियाद करोगे तुम ?

उन्मन कभी जो होगे
मैं याद तुम्हें आऊंगी
मेरे प्यार से दिल को
आबाद करोगे तुम ?

आऊंगी याद कभी
या भुला दोगे यूँ ही
क्या गुनगुनाके मुझे
दिलशाद करोगे तुम ?

सामने रख तस्वीर
महसूसके मेरी पीर
नयनों से बैनों का
संवाद करोगे तुम ?

बतलाओ सच-सच
दिल से क्या अपने
मेरी चाहत का पंछी
आजाद करोगे तुम ?

क्या तोड़ के ये बंधन
और आगे बढ़ोगे तुम
नई और एक 'सीमा'
क्या ईजाद करोगे तुम ?

- डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

कल जब न रहूँगी मैं...

Monday 30 October 2017

निपट निराली प्रीत...

कभी आँखों में आँसू हैं, कभी अधरों पे गीत।
अजब-गजब सा मीत है, निपट निराली प्रीत।।

रोऊँ ना तो क्या करूँ, किस विध धरूँ मैं धीर !
वो निर्मोही क्या जाने, मेरे प्रेमिल मन की पीर !!

- सीमा

Thursday 14 September 2017

हिंदी दिवस- २०१७

भारती के भाल सजे सम्मान जग में पाए हिंदी
स्वर्णिम इतिहास अपना फिर से दोहराए हिंदी

मात्र भाषा ही नहीं ये जान है निज संस्कति की
ध्वज अपने प्रतिमानों का जग में फहराए हिंदी

एक ताल पर इसकी थिरक उठे ये विश्व ही सारा
गूँज उठें सकल दिशाएँ गीत कोई जब गाए हिंदी

गंध निज माटी की सोंधी वर्ण-वर्ण से आए इसके
खुशबू भीनी संस्कारों की देश- देश बगराए हिंदी

बँधें बोलियाँ एक सूत्र में माला के रंगीं मनकों- सी
उन्नत भाल गर्व से भरा हो कंठहार बन जाए हिंदी

ओछे खेल में राजनीति के जन-मन भटक न पाए
भाषायी सब झगड़े सूझ से अपनी सुलझाए हिंदी

विविधता में एकता की झलक जहाँ पर दे दिखाई
बन-ठन आएँ सारी बोलियाँ ऐसा पर्व मनाए हिंदी

बात ही निराली मातृभाषा की माँ सम लगती प्यारी
दिखावे का प्यार और का नेह माँ सा छलकाए हिंदी

हो ग्रसित जो हीन ग्रंथि से अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे
उस भाषा में क्या है ऐसा जो न हमें सिखलाए हिंदी

गुलामी के व्यामोह से अब तो मन अपना मुक्त करो
बड़े गर्व से बड़ी शान से अधरों पे सबके आए हिंदी

- डॉ. सीमा अग्रवाल, मुरादाबाद ( उ.प्र. )


१४.०९.२०१७

हिंदी दिवस

भारती के भाल सजे सम्मान जग में पाए हिंदी
स्वर्णिम इतिहास अपना फिर से दोहराए हिंदी

मात्र भाषा ही नहीं ये जान है निज संस्कति की
ध्वज अपने प्रतिमानों का जग में फहराए हिंदी

एक ताल पर इसकी थिरक उठे ये विश्व ही सारा
गूँज उठें सकल दिशाएँ गीत कोई जब गाए हिंदी

गंध निज माटी की सोंधी वर्ण-वर्ण से आए इसके
खुशबू भीनी संस्कारों की देश- देश बगराए हिंदी

बँधें बोलियाँ एक सूत्र में माला के रंगीं मनकों- सी
उन्नत भाल गर्व से भरा हो कंठहार बन जाए हिंदी

ओछे खेल में राजनीति के जन-मन भटक न पाए
भाषायी सब झगड़े सूझ से अपनी सुलझाए हिंदी

विविधता में एकता की झलक जहाँ पर दे दिखाई
बन-ठन आएँ सारी बोलियाँ ऐसा पर्व मनाए हिंदी

बात ही निराली मातृभाषा की माँ सम लगती प्यारी
दिखावे का प्यार और का नेह माँ सा छलकाए हिंदी

हो ग्रसित जो हीन ग्रंथि से अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे
उस भाषा में क्या है ऐसा जो न हमें सिखलाए हिंदी

गुलामी के व्यामोह से अब तो मन अपना मुक्त करो
बड़े गर्व से बड़ी शान से अधरों पे सबके आए हिंदी

- सीमा
१४.०९.२०१७

Tuesday 12 September 2017

नेह नयनों में भरे ....

चित्र काव्य प्रतियोगिता हेतु -

नेह नयनों में भरे उतरी जमीं पर चाँदनी
पलकों पे ख्वाब धरे पसरी है उन्मादिनी

ताजे कदमों के निशां कर रहे हैं यह बयां
रेत पे थिरकी थकी बाला षोडशी नाजनीं

मासूम कैसे दिख रहे मीन से चंचल नयन
अंग कोमल कमनीय देह कंचन कामिनी

शहरी दरिंदों से बच दौड़ी चली आई यहाँ
कुदरत के आँचल में लेती सुूकूं सुहासिनी

माँ के स्पर्श सी सुखद प्रकृति की क्रोड़ ये
बिछौना सिकता बनी लहरें बनी हैं ओढ़नी

आश्रय ले उपधान का सोई है बेफिक्र मस्त
झिलमिलाते अंग- वस्त्र जैसे हो सौदामिनी

रजत पात्र ले चाँद भर- भर सुधा ढरकाए
झूम रही ओस न्हायी रात नशीली कासनी

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
स्वरचित

Thursday 31 August 2017

शुभकामनाएँ जन्मदिन की ~~~

जगमगाए चाँद जब तक उस नीलगगन की बाँहों में
स्वागतोत्सुक फूल सितारे मग जोहें आपका राहों में

दैदीप्यमान भाल सूर्य का हरे ज्यों जग का अंधियारा
मनोविकार धुल जाएँ उसके आए जो इन पनाहों में

रहो सदा चिन्मय, चिरजीवी, प्रेममय यह जग कर दो
रंग भरो झिलमिल सपनों में, सच हो जो है ख्वाबों में

मंत्रमुग्ध हो देखे जमाना, कृत्य अनूठे और मौलिक हों
मनोकामना पूर्ण सदा हो, कल्प वृक्ष की घनेरी छाँव में

बारंबार शुभ दिन यह आए, आएँ शत-शत शरद बसंत
स्वस्थ रहो सानंद रहो, सतत संलग्न रहो शुभ कामों में

~ सीमा

Wednesday 26 July 2017

आओ प्रिय बैठो पास ---

आओ प्रिय बैठो पास, कुछ ख्वाब मधुर से बुन लें
कुछ कहो जो तुम आँखों से, हम आँखों से सुन लें

भावों की इस नगरी में, लफ़्जों का कोई काम नहीं
दिल लगाकर दिल से, हर धड़कन दिल की सुन लें

कितनी मादक प्रिय रात चाँदनी, चाँद सुधा बरसाता
प्रणय निवेदन करे रजनी से, गुपचुप हम भी सुन लें

आबद्ध आलिंगन में दो प्रेमी, बिछी है सेज फूलों की
प्रेयसी के कंपित अधरों की, थिरकन हम भी सुन लें

मैं बन जाऊँ रात रूपहली प्रिय तुम चंदा बन जाओ
प्रणय केलि से चंद्र-निशा की कुछ गुर हम भी गुन लें

लबों ने चुप्पी साधी अगर है, आँखों से ही कुछ बोलो
प्यार का इजहार हो सुख की कलियाँ हम भी चुन लें

- सीमा

Sunday 16 July 2017

सबकी 'सीमा' खैर मना...

इधर-उधर मत ताका कर
मन के भीतर झाँका कर

काँटों भरी राह पर भी तू
फूल खुशी के टाँका कर

मोती भी चुग लाया कर
यूँ ही धूल न फाँका कर

किया कर कुछ काम की बातें
खाली गप्प ना हाँका कर

सबकी अपनी कीमत है
कम न किसी को आँका कर

हुनर उजागर कर सबके, पर
दोष न अपने ढाँका कर

सबकी 'सीमा' खैर मना
बाल न किसी का बाँका कर

- सीमा
26-04-2013

Tuesday 11 July 2017

आई पावस ऋतु मनभावन ------

आई पावस ऋतु मनभावन
घनन-घनन-घन बरसे सावन

हुलस रहा सृष्टि का कन-कन
अद्भुत ये कुदरत का प्रांगण

सूखतीं नदियाँ, ताल, सरोवर
सूखी हरियाली, सूखे उपवन

इतना बरसो आज तुम बदरा
भर जाए रिक्त धरा का दामन

उमस, तपन, नीरसता बीते
भर किलकारी चहकें आँगन

जलधार मधुमय संगीत रचे
सुर बने श्रुति- मधुर लुभावन

सबको अपना मनमीत मिले
आन मिले सजनी से साजन

सखियाँ सोलह श्रंगार करें
गाएँ पेंग ले कजरी सुहावन

सुखों की हो न कोई 'सीमा'
बने ऋतु हर ताप नसावन

सुखद संदेशे घर-घर आएँ
हों शगुन शुभ मंगल पावन

- डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ. प्र. )

Tuesday 16 May 2017

अवकाश पर है चाँद....


हाँ
रात हूँ मैं
काली अंधियारी
नहीं रूपसी मैं कोई
पर हो जाती हूँ रूपहली
रूप का आगार
मेरा अतुल श्रंगार
उज्ज्वल सलोना चाँद जब
आ विराजता अंक में मेरे
दमक उठता श्याम रंग
निखर उठता अंग- अंग
फूली ना समाती मैं

मुझे है भरोसा
दिन भर की अथक गति से ऊब
डूबेगा रवि जब
उदधि के गहन गह्वर में
तुम चले आओगे
शीतोदधि में नहा
पहन उजला वसन सजीला
डग भरते शनैः शनैः
आगोश में मेरे
छुप जाओगे
कर दोगे आलोकित
मेरा तमसावृत सूना जहां

दिन भर ही तो
तकती हैं निगाहें
छुप- छुप तेरे पदचिन्ह धूमिल
दूर एक कोने से
उस छोर तक क्षितिज के
आस में तेरे आगम की
टकटकी लगाए
निहारा करती तुझे मैं अपलक, अविराम
कि होते ही दिवसावसान
आन समाएगा तू अंक में मेरे
मिट जाएगी मधुर स्पर्श से तेरे
दिन भर की थकन मेरी भी

पर आज तो
बीतती गयीं घड़ियाँ इंतजार की
रीतती गयी हर आस
ना मिली जब तेरी रत्तीभर भी झलक
मेरी भी थकी- हारी मुंदने लगीं पलक
तुझे ना आना था, ना आया
निढाल, बेबस, अनमनी सी मैं
जूझती रही अंधेरों से
पूछती रही पता तेरा सितारों से
सुना तो सन्नाटे में रह गयी
पता चला अमावस है आज
ये तेरा मासिक अवकाश है !

                   --- सीमा अग्रवाल ---

Thursday 2 March 2017

रे मन पगले, मान ले बात ---

लुटाता रहा तू सब पर प्यार
कभी तो अपनी ओर निहार

स्वार्थ ग्रसित है जग ये सारा
सिर्फ अपने मतलब का यार

जगती हँसती सुख में अपने
तू क्यों ढोए अश्कों का भार

तू ही नहीं जब अपना होगा
कौन करेगा तुझपर उपकार

गिरती दिन- दिन सेहत तेरी
पड़ेगा एक दिन लंबा बीमार

रे मन पगले, मान ले अब तू
ना कर यूँ खुद पर अत्याचार

घटता जाए तिल-तिल जीवन
किस पल का है तुझे इंतजार

जब अपने पर आकर पड़ती
रोता है मनुज तब नौ-नौ धार

अपनी खुशी में खुश रह तू भी
जी मस्ती में दिन बचे जो चार

उस असीम का अंश है तू भी
सीमा पर अपनी कर न विचार

कोई न खेवट जीवन- नैया का
सँभाल तू खुद अपनी पतवार

- सीमा
०२-०३-२०१७

Wednesday 1 March 2017

ये कैसी खामोशियाँ -

उमड़ रहा पारावार खुशी का
फिर क्यों हैं ये खामोशियाँ
लब हों भले ही शांत, ठिठके
नजरें तोड़ रहीं खामोशियाँ
लगी है देखो आग फाग की
गुनगुनाओ कि कोई राग सजे
मुसकुरा रहे तुम जो मंद- मंद
गढ़ रहीं भाषा नई खामोशियाँ
- सीमा

Sunday 12 February 2017

बस यूँ ही हम हँसते रहे ---


बस यूँ ही हम हँसते रहे
रेखाएँ गम की ढकते रहे

उमड़ा सैलाब दुखों का
एक खुशीे को भटकते रहे

रीत गया दिन आस लगाए
साथ को उनके तरसते रहे

आलिंगन उनका पा न सके
दूर- दूर से ही बस तकते रहे

मन की जमीं सूखी ही रही
नयनों से बदरा बरसते रहे

क्यूं अपनी ही नजरों में हम
बन कर काँटा कसकते रहे

हम बेबस हुए, लाचार हुए
बिलखते रहे, सिसकते रहे

न आया उन्हें तरस भी जरा
बेबसी पे हमारी हँसते रहे

ढाढस तो क्या बँधातेे हमें
फब्तियाँ हम पर कसते रहे

कंचन- सा मन अपना हम
कसौटी पर नित कसते रहे

भाव उनके आसमां पे चढ़े
हम मगर सस्ते के सस्ते रहे

हुए नाकाम, साहिल न मिला
बीच- भंवर हम उलझते रहे

उम्मीदों के पल, तिल- तिल
मुट्ठी से हमारी खिसकते रहे

झेलते रहे सितम पर सितम
ये उम्र न घटी, हम जीते रहे

पिंजर में 'सीमा' के कैद हुए
उड़ने को पंख ये मचलते रहे

- सीमा
12-02-2017

Thursday 9 February 2017

तेरी खातिर -----

आई हूँ जग में तेरी खातिर
जाऊँगी जग से तेरी खातिर

पढ़ें लिखे को चाहेे कितने
मैंने लिखा पर तेरी खातिर

हुनर न कोई लेकर मैं आई
मैंने सीखा सब तेरी खातिर

मुझ पर कितने जुल्म हुए
हँसके सहे सब तेरी खातिर

हर एक बंधन ठुकराया मैंने
लाँघी हर सीमा तेरी खातिर

कुछ भी अर्थ निकाले कोई
जीवन ये मेरा तेरी खातिर

विष का प्याला मिला मुझे
मैंने पिया पर तेरी खातिर

मूक नहीं थी रसना ये मेरी
सी ली पर मैंने तेरी खातिर

कर्ज है तेरा मुझ पर भारी
मैंने पाया जो भी तेरी खातिर

किस्मत हो चाहे कितनी शातिर
बदलेगी एक दिन मेरी खातिर

- सीमा

Sunday 29 January 2017

जनमत

जनता की, जनता द्वारा,जनता के लिए बनती सरकार
स्वस्थ जनमत बनता सदा, लोकतंत्र का सबल आधार
करो देश की नींव सुदृढ़, अपने मत की ईंट रखो तुम
जागो देश के नौजवानो, एक नया इतिहास रचो तुम

Tuesday 24 January 2017

आने वाला बसंत

शीत के इस कहर का, होने वाला बस अंत
कुछ ही दिन अब शेष हैं, आने वाला बसंत
सीमा

मधुमास आया

आहत हुआ विश्वास, प्रिय नहीं आए
रही अनबुझी प्यास, प्रिय नहीं आए
खिल उठे सुमन, मुदित सकल उपवन
आया सखि मधुमास, प्रिय नहीं आए
- सीमा
२४.०१.२०१७

मतदाता जागरुकता

बज रहा हर सूं बिगुल चुनावी
सर्द मौसम कुछ लगा गरमाने
निकल पड़े राजभवन से नेता
फिर से जन- मन को भरमाने

हाथ जोड़े कैसे आ रहे देखो
कांधों पे वादों का झोला लादे
वोट की खातिर आज ये आए
महज जुमलों से हमें बहलाने

जन- मन को खुश करने की
कैसी होड़ लगी है हर दल में
कितनी शिद्दत से लगे हैं सारे
अपनी- अपनी दुकान सजाने

देख बस ऊपरी चमक- दमक
बातों में इनकी आ ना जाना
दायित्व निर्वहन करना बखूबी
जरा भी ढीले तुम पड़ न जाना

दल,जाति,धर्म से ऊपर उठकर
सोच- समझ कर निर्णय लेना
रुचे ना तुम्हें गर प्रत्याशी कोई
तो विकल्प नोटा का चुन लेना

मत देना है अधिकार तुम्हारा
खुद को ना वंचित तुम रखना
लोकतंत्र को सफल बनाना
सर्वथा योग्य पर मुहर लगाना

जन- जन के सजग प्रयासों से
भविष्य देश का संवर उठेगा
शत प्रतिशत मतदान से सच्चे
एक कर्मठ नेता हमें मिलेगा

- डॉ. सीमा अग्रवाल
२३ जनवरी, २०१७

Saturday 7 January 2017

तुम और मैं ---

गगन सा विस्तार तुम
जिसमें जड़ी मैं एक सितारे सी
टिमटिमाती
दीन-हीन
अबोध, अनजान, नादान
क्या मालूम है तुम्हें
गिनती अपने भीतर जगमगाते
जलते- बुझते अहर्निश
अनगिन सितारों की
देखो,
मैं भी तो तुमसे जनमती
तुममें विलय हो जाती
तुमसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं मेरा
पहचानो मुझे
अंश हूँ मैं तुम्हारा
विलग नहीं तुमसे
यूँ अनजान ना रहो मुझसे
हर पल मैं तुममें डूबती- उतराती
मुग्ध होती निहार
छवि तुम्हारी अद्भुत
चाहती एक लघु स्पर्श भर तुम्हारा
नेह भरा
ताकि हो स्पंदन कुछ तो
मेरे इस निर्जीव पाषाण तन में
झिंझोड़ दो मुझे
पकड़ बलिष्ठ बाँहों से अपनी
कि ये जड़ता अब सही नहीं जाती
पल भर के लिए
अपना यह वृहत् रूप तज
धारो मुझ सा लघ्वाकार
मिलो मुझसे
आमने- सामने साकार
एक बार कभी तो
हो समरूप

मिलें हम
दूरस्थ कहीं ऐसे वीराने में
जहाँ सिर्फ मैं और तुम हों
और ना कोई
निहारें अपलक एक दूजे को
हो अनिर्वचनीय शब्दातीत
तुम जानो मुझे
मैं तुम्हे
आहिस्ता- आहिस्ता तुम समा मुझमें
क्षणिक ही सही
मुझे भी एक अलौकिक स्वर्गिक अहसास दो
छिटक तुमसे
जा पड़ी दूर कहीं
किसी एक सुनसान कोने में
राह तकती मैं
युगो-ं युगों से तुम्हारी
नयनों में अनगिन ख्बाव संजोए
काश कभी तो पल वह आए
ये लघु अस्तित्व
सहज समर्पित भाव लिए
एकाकार हो
सदा- सदा को
तुम में घुल- मिल जाए
यूं तज मोह विराट का पल भर
गर स्वीकार करो तुम
मेरी लघु सीमा का बंधन
मैं मिल तुमसे, तुम्हारी
थाह अगाधता की पा लूँ !
तुम मेरी हद को जानो
मेरे सुख- दुख पहचानो
मैं उन्मुक्त, असीम हो
देखूँ तुम्हारे करतब न्यारे
एक सुर, एक लय हो यूं
तुम मुझमय, मैं तुममय हो जाऊँ

- सीमा
०८-०१-२०१७

कल, आज और कल

"कल" और "कल" की इस कलकल में
कहीं "आज" भी हाथ से छूट ना जाए !

जी लो "आज" को जी भर कर आज
वो "कल" ना लौटे, वो "कल" ना आए !

- सीमा
०७-०१-२०१७