Thursday 22 December 2022
NATIONAL MATHEMATICS DAY
Saturday 17 December 2022
एक मुक्तक....
Monday 5 December 2022
गीत- अपनी गजब कहानी....
अपनी गजब कहानी...
मैं हूँ उसका राजा बाबू,
वो है मेरी रानी।
अपनी गजब कहानी।
उसकी खातिर सारे जग से,
नाता मैंने तोड़ा।
उसे खिलाता छप्पन व्यंजन,
पर खुद खाता थोड़ा।
बनी रही अंजान मगर वह,
कदर न मेरी जानी।
अपनी गजब कहानी...
बहुत प्रिया के नखरे देखे,
बहुतहिं करी चिरौरी।
उसे मनाने अल्मोड़ा से,
लाया ढूँढ सिंगौरी।
फूली कुप्पा बनी रही वह,
एक न मेरी मानी।
अपनी गजब कहानी...
कभी प्यार से कहती मुझसे,
सुन ओ मेरे राजा।
बिन तेरे मैं जी न सकूँगी,
रूठ के मुझसे न जा।
साथ-साथ बस हँसते-रोते,
हमको उम्र बितानी।
अपनी गजब कहानी...
रुनझुन-रुनझुन पायल उसकी,
गीत-गज़ल सब गाती।
रह जाता मैं देख ठगा-सा,
बात न मुँह तक आती।
आती जब-जब पास मिरे वो,
ओढ़ चुनरिया धानी।
अपनी गजब कहानी...
कभी प्यार से गले लगाती,
आँखें कभी दिखाती।
कहकर बुद्धू भोला मुझको,
कितने सबक सिखाती।
लगे नहीं रति से कमतर, जब
बातें करे रुमानी।
अपनी गजब कहानी...
सूनी उस बिन दिल की नगरी,
सूना ये घर-आँगन।
नेह-सिक्त आँचल बिन उसके,
बीते सूखा सावन।
हाथ में उसका हाथ रहे तो,
हर रुत लगे सुहानी।
अपनी गजब कहानी...
- © सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
काव्य संग्रह "सुरभित सृजन" से
Wednesday 14 September 2022
कॉलेज-गीत...
Sunday 11 September 2022
देख सिसकता भोला बचपन...
देख सिसकता भोला बचपन…
देख सिसकता भोला बचपन,
भारी बोझ तले।
क्या किस्मत है इन बच्चों की,
मन में सोच पले।
पूर्ण तृप्ति के एक कौर को,
कैसे तरस रहे।
सामने मालिक मूँछो वाले,
इन पर बरस रहे।
हल न कोई पीर का इनकी,
बेबस हाथ मले।
दिन पढ़ने-लिखने के, पर ये
कचरा बीन रहे।
जीवन पाकर भी मानव का,
भाग्य-विहीन रहे।
हौंस-हास-उल्लास बिना ही,
जीवन चला चले।
कोई खाए पिज्जा बर्गर,
कोई जूस पिए।
घूँट सब्र का पी रहे ये,
दोनों होंठ सिए।
छप्पन भोग भरी थाली का,
सपना रोज छले।
खिलने से पहले ही कोमल,
कलियाँ मसल रहे।
हाय कहें क्या अपने जन ही,
सपने कुचल रहे।
सुनी करुण जो गाथा इनकी
आँसू बह निकले।
कोई कहे मनहूस इनको,
कोई करमजला।
कौन कहे कैसे सँवरेगा,
इनका भाग्य भला।
विपदा जमकर बैठी ऐसे
टाले नहीं टले।
पाएँ वापस बचपन अपना,
मोद भरे उछलें।
मुक्त उड़ान भरें पंछी-सी,
कोमल पंख मिलें।
हासिल हों इनको भी खुशियाँ,
मेरी दुआ फले।
© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद
‘सुरभित सृजन’ से
Saturday 3 September 2022
कुछ दोहे...
मेरी भी प्रभु सुध धरो, छुपा न तुमसे हाल।
पीर गुनी जब भक्त की, दौड़ पड़े तत्काल।।१।।
समता उसके रूप की, मिले कहीं न अन्य।
निर्मल छवि मन आँककर, नैन हुए हैं धन्य।।२।।
दिल में उसकी याद है, आँखों में तस्वीर।
उलझे-उलझे ख्वाब की, कौन कहे ताबीर।।३।।
चाहे कितना हो सगा, देना नहीं उधार।
एक बार जो पड़ गयी, मिटती नहीं दरार।।४।।
पुष्पवाण साधे कभी, साधे कभी गुलेल।
हाथों में डोरी लिए, विधना खेले खेल।।५।।
प्रक्षालन नित कीजिए, चढ़े न मन पर मैल।
काबू में आता नहीं, अश्व अड़ा बिगड़ैल।।६।।
एक बराबर वक्त है, हम सबके ही पास।
कोई सोकर काटता, कोई करता खास।।७।।
कला काल से जुड़ करे, सार्थक जब संवाद।
कालजयी रचना बने, लिए सुघर बुनियाद।।८।।
मन से मन का मेल तो, भले कहीं हो देह।
प्यास पपीहे की बुझे, पीकर स्वाती-मेह।।९।।
बात-बात पर क्रोध से, बढ़ता मन-संताप।
वशीभूत प्रतिशोध के, करे अहित नर आप।।१०।।
क्षणभर का आवेग यह, देर तलक दे शोक।
भाव प्रबल प्रतिशोध का, किसी तरह भी रोक।।११।।
-© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )
“सुरभित सृजन” से
Friday 2 September 2022
माना तुम्हारे मुक़ाबिल नहीं मैं ...
Saturday 13 August 2022
कर रहे शुभकामना...
Thursday 14 July 2022
Monday 11 July 2022
हृद् कामना...
Thursday 7 July 2022
दोहे एकादश....
Sunday 26 June 2022
मौन मुखर था...
अधर मौन थे, मौन मुखर था…
अधर मौन थे, मौन मुखर था…
कितना सुखद हसीं अवसर था।
अधर मौन थे, मौन मुखर था।
पूर्ण चंद्र था,
उगा गगन में।
राका प्रमुदित,
मन ही मन में।
टुकुर-टुकुर झिलमिल नैनों से,
धरती को तकता अंबर था।
मन-मानस बिच,
खिलते शतदल।
प्रिय-दरस हित,
आतुर चंचल।
टँके फलक पर चाँद-सितारे,
बिछा चाँदनी का बिस्तर था।
सरल मधुर थीं,
प्रिय की बातें।
मदिर ऊँँघती,
ठिठुरी रातें।
रात्रि का अंतिम प्रहर था,
डूबा रौशनी में शहर था।
प्रेमातुर अति,
चाँद-चाँदनी।
मादक मंथर,
रात कासनी।
और न कोई दूर-दूर तक,
प्रिय, प्रेयसी और शशधर था।
डग भर दोनों,
बढ़ते जाते।
इक दूजे को,
पढ़ते जाते।
मंजिल का ना पता-ठिकाना,
खोया-खोया-सा रहबर था।
अधर मौन थे, मौन मुखर था…
( “मनके मेरे मन के” से )
– © डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
Saturday 25 June 2022
वापस लौट नहीं आना....
वापस लौट नहीं आना…
वापस लौट नहीं आना…
मंजिल तक जाने में निश्चित,
व्यवधान बहुत आएंगे।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।
दुख को चखकर सुख की कीमत,
और अधिक बढ़ जाती है।
रौंदी जाकर भी तो देखो,
धूल गगन चढ़ जाती है।
देख सामने कठिन चुनौती,
हिम्मत हार नहीं जाना।
सागर से मिलने की धुन में,
नदियाँ बढ़ती जाती हैं।
जज्बा, लगन, हौसले के नव,
मानक गढ़ती जाती हैं।
तुम भी अनथक बढ़ते जाना,
जब तक पार नहीं पाना।
रोड़े-पत्थर काँटे-कंकड़,
पग-पग पथ में आएंगे।
कितने लालच दुनिया भर के,
आ ईमान डिगाएंगे।
कितना कोई दुख बरपाए,
पर तुम खार नहीं खाना।
धूप-शीत-तम-अंधड़-बारिश,
खड़ा यती-सा सहता है।
चीर जड़ों को देखो तरु की,
मीठा झरना बहता है।
तप-तप कर ही स्वर्ण निखरता,
सच ये भूल नहीं जाना।
गरज-गरज कर काले बादल,
आसमान पर छाएंगे।
भूस्खलन और ओलावृष्टि,
मिल उत्पात मचाएंगे।
पाँव जमा अंगद से रखना,
अरि से मात नहीं खाना।
साँझ ढले से देखो चंदा,
निडर गगन में चलता है।
निविड़ तिमिर की चीर कालिमा
जग को रोशन करता है।
तुम भी अपनी धुन में चलना,
पथ से भटक नहीं जाना।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।
– © डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
“सृजन शर्मिष्ठा” से
रहे न अगर आस तो...
रहे न अगर आस तो….
क्या क्षणिक इन आँधियों से,जिंदगी डर जाएगी ?
रहे न अगर आस तो हाँ, प्यास ही मर जाएगी ।
तू बस अपना काम कर,
फल चला खुद आएगा।
तीरगी को चीर, वहीं,
रौशनी रख जाएगा।
मन में शीतल शुद्ध हवा, ताजगी भर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ…..
वक्त ठहर गया तो क्या,
समय न अपना तू गँवा।
हौसलों में जान रहे,
पल में होगा दुख हवा।
झोंका सुख का आएगा, किस्मत सँवर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ…..
पहुँच न ले गंतव्य तक,
न तब तलक तू साँस ले।
मंजिल निकट आएगी,
मिट जाएँगे फासले।
छूकर मन की भावना, मौत भी तर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ……
जिंदगी का सुर्ख सफ़ा,
पल-पल नजरों में रहे।
हार-जीत का फलसफ़ा,
नित-नित साँसों में बहे।
ढील जरा भी दी अगर, चेतना मर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ, प्यास ही मर जाएगी।
© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“सृजन प्रवाह” से
Friday 24 June 2022
पाँव में छाले पड़े हैं...
पाँव में छाले पड़े हैं ...
वेदना में जल रही हूँ, आँसुओं में गल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
ओ नियंता दर्द मेरा, देख तू भी इक बारगी।
फर्क मुझ पर क्या पड़े अब, रोशनी हो या तीरगी।
हाथ में गम की लकीरें, साथ तम के पल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
कौन जाने कब मुझे हो, इस जहां को छोड़ जाना।
कौन जाने किस सुबह फिर, हो यहाँ पर लौट आना।
दिवस का अवसान होता, रात में अब ढल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
शिकवा न कोई मैं करूँ, रुचे जो जिनको वो करें।
मार्ग फिर भी रोक लेतीं, हा हर कदम पर ठोकरें।
आस मंजिल की लगाए, नित स्वयं को छल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
देता न कोई साथ है, आज समझ ये पायी हूँ ।
पास कुछ न और बाकी, भाव-सुमन बस लायी हूँ।
कल मुझे जो मीत कहते, आज उनको खल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
खुशी के रेले मिलेंगे, ख्वाब देखे थे नज़र ने।
मर्म जीवन का सुझाया, नत खड़े गुमसुम शज़र ने।
लुट गया रोशन जहां अब, हाथ खाली मल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
पर निरंतर चल रही हूँ।
- © डॉ0 सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद ( उ.प्र.)
साझा संग्रह "प्रभांजलि" से
Saturday 18 June 2022
चंद दोहे....
Sunday 8 May 2022
मेरी माँ...
माँ सच्ची संवेदना, माँ कोमल अहसास।
मेरे जीवन-पुष्प में, माँ खुशबू का वास।।
रंग भरे जीवन में जिसने, महकाया संसार।
पाला पोसा जानोतन से, दिया सुघड़ आकार।
खुश रही जो मेरी खुशी में, अपनी खुशी बिसार,
ममता की मूरत उस माँ पर, दूँ सर्वस्व निसार।
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद