Thursday 14 September 2017

हिंदी दिवस- २०१७

भारती के भाल सजे सम्मान जग में पाए हिंदी
स्वर्णिम इतिहास अपना फिर से दोहराए हिंदी

मात्र भाषा ही नहीं ये जान है निज संस्कति की
ध्वज अपने प्रतिमानों का जग में फहराए हिंदी

एक ताल पर इसकी थिरक उठे ये विश्व ही सारा
गूँज उठें सकल दिशाएँ गीत कोई जब गाए हिंदी

गंध निज माटी की सोंधी वर्ण-वर्ण से आए इसके
खुशबू भीनी संस्कारों की देश- देश बगराए हिंदी

बँधें बोलियाँ एक सूत्र में माला के रंगीं मनकों- सी
उन्नत भाल गर्व से भरा हो कंठहार बन जाए हिंदी

ओछे खेल में राजनीति के जन-मन भटक न पाए
भाषायी सब झगड़े सूझ से अपनी सुलझाए हिंदी

विविधता में एकता की झलक जहाँ पर दे दिखाई
बन-ठन आएँ सारी बोलियाँ ऐसा पर्व मनाए हिंदी

बात ही निराली मातृभाषा की माँ सम लगती प्यारी
दिखावे का प्यार और का नेह माँ सा छलकाए हिंदी

हो ग्रसित जो हीन ग्रंथि से अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे
उस भाषा में क्या है ऐसा जो न हमें सिखलाए हिंदी

गुलामी के व्यामोह से अब तो मन अपना मुक्त करो
बड़े गर्व से बड़ी शान से अधरों पे सबके आए हिंदी

- डॉ. सीमा अग्रवाल, मुरादाबाद ( उ.प्र. )


१४.०९.२०१७

हिंदी दिवस

भारती के भाल सजे सम्मान जग में पाए हिंदी
स्वर्णिम इतिहास अपना फिर से दोहराए हिंदी

मात्र भाषा ही नहीं ये जान है निज संस्कति की
ध्वज अपने प्रतिमानों का जग में फहराए हिंदी

एक ताल पर इसकी थिरक उठे ये विश्व ही सारा
गूँज उठें सकल दिशाएँ गीत कोई जब गाए हिंदी

गंध निज माटी की सोंधी वर्ण-वर्ण से आए इसके
खुशबू भीनी संस्कारों की देश- देश बगराए हिंदी

बँधें बोलियाँ एक सूत्र में माला के रंगीं मनकों- सी
उन्नत भाल गर्व से भरा हो कंठहार बन जाए हिंदी

ओछे खेल में राजनीति के जन-मन भटक न पाए
भाषायी सब झगड़े सूझ से अपनी सुलझाए हिंदी

विविधता में एकता की झलक जहाँ पर दे दिखाई
बन-ठन आएँ सारी बोलियाँ ऐसा पर्व मनाए हिंदी

बात ही निराली मातृभाषा की माँ सम लगती प्यारी
दिखावे का प्यार और का नेह माँ सा छलकाए हिंदी

हो ग्रसित जो हीन ग्रंथि से अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे
उस भाषा में क्या है ऐसा जो न हमें सिखलाए हिंदी

गुलामी के व्यामोह से अब तो मन अपना मुक्त करो
बड़े गर्व से बड़ी शान से अधरों पे सबके आए हिंदी

- सीमा
१४.०९.२०१७

Tuesday 12 September 2017

नेह नयनों में भरे ....

चित्र काव्य प्रतियोगिता हेतु -

नेह नयनों में भरे उतरी जमीं पर चाँदनी
पलकों पे ख्वाब धरे पसरी है उन्मादिनी

ताजे कदमों के निशां कर रहे हैं यह बयां
रेत पे थिरकी थकी बाला षोडशी नाजनीं

मासूम कैसे दिख रहे मीन से चंचल नयन
अंग कोमल कमनीय देह कंचन कामिनी

शहरी दरिंदों से बच दौड़ी चली आई यहाँ
कुदरत के आँचल में लेती सुूकूं सुहासिनी

माँ के स्पर्श सी सुखद प्रकृति की क्रोड़ ये
बिछौना सिकता बनी लहरें बनी हैं ओढ़नी

आश्रय ले उपधान का सोई है बेफिक्र मस्त
झिलमिलाते अंग- वस्त्र जैसे हो सौदामिनी

रजत पात्र ले चाँद भर- भर सुधा ढरकाए
झूम रही ओस न्हायी रात नशीली कासनी

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
स्वरचित