Sunday 22 March 2015

ओ प्रेम-पयोनिधि मेरे ---

कल तक
विशुद्ध प्रेम जल से
भरा था
सराबोर था-
गहन गूढ़ स्नेहिल भावों से
कोई समझ न थी
भले बुरे की !
मर्यादित बंधन की !

आबद्ध हुआ तुमसे
गुंथा स्नेह सूत्र में तुम्हारे
रिसता था
बरसता था
नैनों से
वाणी से
शब्दों से
आती जाती हर सांस से
हर स्पंदन से
रोम रोम से
अंतर की अतल गहराई से

बस उलीच रहा था
भर- भर दोनों करों से
प्रेम- सीकर
निर्विकार !
निस्पृह !
बेपरवाह !
थाह न थी आनंद की
लुटाते हुए कोष अपना
रत्ती भर भी तो
न हुई आशंका कभी
रिक्त होने की
लबलबाता था और अधिक
बरसने के बाद !
भिगोकर आकंठ तुम्हें
निश्छल प्रेम जल में अपने
कैसा आह्लादित हो उठता था
उदधि मेरे मन का !

इठलाता था
लजाता था
बलखाता था कभी
खिंचा चला आता था
बेरोकटोक
खुद ब खुद
पास तुम्हारे
व्यस्त देख
निहारा करता था तुम्हें
अपलक अनथक एकटक
बिसरा सुध-बुध अपनी
बसा छवि नैनों में
अघाता न था कभी !

पर यह क्या !
अकस्मात दो कंकड़
उपहास औ मखौल के
ओहदे की माप तौल के
आ गिरे इसमें कहां से !
कब कैसे और क्यों !
जान सका न मन
आलोड़ित हो उठा
समग्र स्नेह-जल
पल भर को तो !

भंग हुई तन्मयता
स्तब्ध हुआ यकायक
शंकाओं के भँवर बने
गूँज आने लगीं कानों में
बेमानी था समर्पण मेरा
कोई मोल नहीं इसका
निगाहों में तुम्हारी !

कहाँ राजा भोज तुम
कहाँ मैं गंगू तेली
क्या मेल भला दोनों का
कभी पासंग भी नहीं
रही मैं तुम्हारी
हँसते रहे तुम सदा
इस निश्छल अवदान पर मेरे !

मन आज व्यथित
यह सोच सोच
कि रुचा नहीं तुम्हें कभी
मेरा अद्भुत यह प्रेम समर्पण
काश कुछ मुझसे
कहा होता तुमने
चेता दिया होता मुझे
सुनती जो तुमसे
न कष्ट होता इतना
क्यों गैर निगाहों में
गिरा मुझे
उपहास किया मेरा !

कैसे झेलूं यह दंश
उत्तर दो तुम्हीं
राह मुझे सुझाओ
आज भी छलक रहा है
यह सागर
पर नहीं उस खुशी में
बस बेबसी पर अपनी
अश्कों में ढलक रहा है !

पर आज भी
मन में मेरे कहीं
विश्वास ये सघन है
कि गलत थी वो अनुगूँज
जो पड़ी इन कानों में
तुम हो वही
मैं भी वही
कलकल बहता
बीच हमारे
स्नेह-सोता वही
प्रदूषित करने की मंशा से
पाक जल को
यूं ही आते-जाते हैं
कंकड़
नहीं कर पाते पर मलिन
अंतर उसका !

निर्लिप्त सभी विकारों से
अविचल बहती स्नेह-धारा
पा ही लेती है अंततः
महाविश्राम
लग ह्रदय-तल से
अपने प्रेमोदधि के  !

-सीमा अग्रवाल
                

-सीमा अग्रवाल

Thursday 19 March 2015

ये कैसी मुझे सजा दी !

हँसी न आने दी अधरों पर,
अश्कों पर भी रोक लगा दी !
ए मेरे निष्ठुर भाग्य-विधाता,
मुझे तुमने ये कैसी सज़ा दी !

कैसे इठलाते फिरते थे
रोके न किसी के रुकते थे
दिल में मचलते अरमानों की
अर्थी ही हाय ! उठा दी !

अंधड़ आया, बादल गरजे,
और टूटकर बरसा पानी !
नन्हें, नाजुक सपनों की,
सबने मिल हस्ती मिटा दी !

कितने प्यारे दिन थे आए
मन ने अनगिन ख्वाब सजाए
कान भरे किस्मत के किस ने
उसने लिखके खुशी मिटा दी !

चैन आए अब कैसे दिल को
कैसे आँखों में निंदिया आए
मसलकर मेरे सुख की कलियाँ
क्यों काँटों की सेज बिछा दी !

-सीमा अग्रवाल

Friday 6 March 2015

चाहत चकोर की ---

चाहत चकोर की चाँद भला क्या जाने
एक से बढ़कर एक उसके कई दीवाने

-सीमा

दोहा

गली गली में हो रहा, होली का हुड़दंग !
श्वेत-श्याम सी मैं खड़ी, कौन लगाए रंग !!

-सीमा

Monday 2 March 2015

तेरी मेरी एक कहानी---

विरह की देखो तोप दगी है
दिल में बादल के चोट लगी है !
नेत्रमय बन गया तन सारा
अश्कों की कैसी झड़ी लगी है !

अंबर से धरती तक आकर
ढूँढ रहा है अपना साजन
कण-कण से वो पूछ रहा है
छुपा कहाँ मेरा मनभावन !
        बिजली चमकी दिल में गोया
        आशा की एक किरण जगी है !

रोके नहीं रुकते हैं आँसू
गला ये रुँध रुँध जाता है
दिल से उमड़ व्यथा का सागर
जग को हरा कर जाता है
         सुख देगी यह दुख की सीमा
         कोरी नहीं ये दिल की लगी है !

आओ बदरा ! मेरे भाई
मुझपे भी ये विपदा आई
मैं भी तुम-सी गम की मारी
छोड़ चला मुझको हरजाई
          है तेरी मेरी एक कहानी
          निष्ठुर प्रिय के प्रेम पगी है !

रखो व्यथा को दिल में छुपाकर
अग-जग में यूँ न करो उजागर
फिर क्या रहेगा पास तुम्हारे
अश्कों की सारी पूंजी गंवाकर
          कभी ये तुम्हारा साथ न देगी
          दुनिया किसी की नहीं सगी है !

-सीमा अग्रवाल