Monday 30 November 2020

आवारा लड़के सा चाँद....

आवारा लड़के-सा चाँद...

रूप का उसके कोई न सानी  प्यारा-सा अलवेला चाँद
निहारे धरा को टुकुर-टुकुर गोल मटोल मटके-सा चाँद

चुपके-चुपके साँझ  ढले वह, नित  मेरी गली में  आता
नजरें बचा कर सारे जग से तड़के ही छिप जाता चाँद

कितना दौड़ूँ उसे पकड़ने पर हाथ न मेरे कभी वो आए
औचक छिटक जा पहुँचे नभ में माला के मनके-सा चाँद

पकड़ न आये शरारत उसकी शातिर वो बड़े हुनर वाला
रात-रात भर  विचरता अकेला  आवारा  लड़के-सा चाँद

-©®सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद (उ.प्र.)

'मनके मेरे मन के' से

Sunday 29 November 2020

जरा-जरा...

जरा-जरा...

खुशियाँ तनिक मिल जाएँ मुझे भी, हँस लूँगी जरा-जरा
हौले से  भर आँचल में  उनको,  नच लूँगी  जरा-जरा

आओगे जब-जब याद मुझे तुम कर लूँगी बंद आँखें
मन-मंदिर में छवि आँक तुम्हारी, मचलूँगी जरा-जरा

सामने   रह  नज़रों   में   मेरी   बनो   आईना   मेरा
बैठ के  पलकन-तले  तुम्हारी,  सज  लूँगी जरा-जरा

धवलचंद्रिका यशकी तुम्हारे आए जो छनके मुझतक
चाँद  के  संग  धूमिल  तारे-सी,  चमकूँगी  जरा-जरा 

नेह-सनी  जब  बातें होंगी  सुखद-सुहानी  रातें होंगी
देखना  तब-तब  दिल में तुम्हारे,  धड़कूँगी जरा-जरा

रहो अगर तुम  सामने मेरे  मिट जाएँ सब तम के घेरे
नगमे  कुछ मादक मधुर रसीले,  रच लूँगी  जरा-जरा
- ©® सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
'मनके मेरे मन के' से

Friday 27 November 2020

शब वो काली नहीं ढल पायी...

शब  वो  काली  नहीं  ढल  पाई...

जो  चाहा   था   नहीं   बन  पाई
मेरी  मुझ   पर  नहीं   चल  पाई

परवान  चढ़ीं  हसरतें   जब-जब 
वक्त  ने   तब-तब   की  निठुराई

बेरहमी   से   कुचले   गए   फन 
चाहत  मेरी  जब - जब  इठलाई

खुदा ही समझ  बैठा वो खुद को
पूजा    उसने     मेरी     ठुकराई

नाजुक  मोम-सा   दिल था  मेरा
किसने  उसमें  ये  अगन  लगाई

घुली  अमावस   बन  जीवन  में
शब  वो  काली  नहीं  ढल  पाई

ठिकाना  सुख को  मिल न पाया
मन   में  गहनतम   पीर   समाई

डेरा   डाल   पसर    गए    दुख
तड़प  उठा  मन   टीस अकुलाई

चलती  किस्मत  सदा  उल्टी  ही
बात   है   ये   पक्की   अजमाई

गाज   गिरी   ख्वाबों   पर   ऐसी
दिल   पथराया   नजर   धुँधलाई

भाव  विगलित  हुए सब  मन  के
रुकी कलम  फिर नहीं  चल पाई

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
" मनके मेरे मन के" से

Tuesday 24 November 2020

जगो-उठो हे, कमला कांत.... ( हरि प्रबोधिनी एकादशी पर )

जगो-उठो हे, कमला-कांत ....

पाप शमन हों, ग्रह हों शांत
जगो-उठो हे, कमला-कांत !

आषाढ़  शुक्ल- एकादशी
चले चातुर्मास  शयन  को
दुख-भँवर में घिर गये हम
दर्शन दुर्लभ हुए नयन को
           घात   लगाए   बैठा  तबसे
           काल  बली  सर  पे  दुर्दांत

मेटो दुख हे, कमला-कांत !

रोता हमको  छोड़  गये तुम
भक्तवत्सलता तोड़ गये तुम
गम-आवर्त में देख हमें प्रभु
क्यूँ मुँह हमसे मोड़ गये तुम
          चैन न एक पल पाया तबसे
          है मन  उद्विग्न अति अशांत

लखो पीर  हे, कमला-कांत !

बीते  चार    माह   वे  दुख  के
तिथि सुखद जागृति की आयी
रोम-रोम में  सिहरन खुशी की
बेला  पुन्य  सुकृति  की आयी
     खटते-भटकते आस में सुख की
       प्राण थकित हैं, मन है क्लांत

हरो  ताप  हे,  कमला-कांत !

जाने  कौन  देश से  चल  के
आया  मुआ    दुष्ट   कोरोना
टाले टले न, प्राण हरे कितने
आए  हर पल  हम  को रोना
        बस  उरग-सा गरल उगलता
        आया  लाँघ   सभी  सीमांत

नागांतक   पर  चढ़   आओ
त्रास  मिटाओ  हे,  श्री कांत
        जगो-उठो हे,  कमला कांत !

- © सीमा अग्रवाल
   मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"मनके मेरे मन के" से


Friday 20 November 2020

विश्व रंगमंच दिवस पर...

विश्व रंगमंच दिवस'

वृहद् रंगमंच दुनिया सारी....

विरंचि-विरचित प्रपंच यह भारी
रंगमंच-सी भासित दुनिया सारी
जीव  जहाँ  अभिनय  करता  है
नित  नूतन  अति  विस्मय कारी

नयनाभिराम  निसर्ग - दृश्यांकन
सृष्टि  अनूठी  अद्भुत   बिंबांकन
नर्तन सम्मोहक नियति-नटी का
करता नियंता  तटस्थ मूल्यांकन

अनुस्यूत कथाएँ मुख्य-प्रासंगिक
हाव-भाव  चाक्षुष और आंगिक
मिल सब  भव्य  कथानक गढ़ते
नाट्यशाला  धरा खुली नैसर्गिक

पात्र आते निज किरदार निभाते
दर्शक  उन संग  घुल-मिल जाते
गिरती  यवनिका  पटाक्षेप होता
एक नया दृश्य फिर सामने होता

त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियाँ  मानवीय
रचतीं  पल-पल  नवल  प्रकरण
व्यक्ति-अभिव्यक्ति, भाषा-शैली
करते मिल सब भाव-अलंकरण

कथानक श्लाघ्य  सदा वह होता
अंततोगत्वा अंत सुखद जिसका
नाटिका वही  सफल  कालजयी
हो उद्देश्य  महद् फलद जिसका

       इस  वृहद् रंगमंच के  पात्र  हम सब
       भूमिका लघु बेशक  पर अहं हमारी
       रचें मंच-फलक पर  निशां कुछ ऐसे
       चले युगों तक जिन पर दुनिया सारी

- डॉ.सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)

23 मार्च, 2018

'चाहत चकोर की' काव्य संग्रह में प्रकाशित

Sunday 8 November 2020

दम भर तुझे पुकारा चाँद....

दम भर तुझे पुकारा चाँद...

तन्हा रात  नयन उन्मीलित
कितना तुझे पुकारा चाँद
गढ़ के अनगिन छवियाँ मन में
तेरा  रूप  निहारा  चाँद

दूर क्यों इतनी रहते मुझसे
कह न सकूँ निज मन की तुमसे
भाव हमारे मन के भीतर
रहते चुप-चुप हर पल गुम से

नेह - सने अधरों से हमने
तेरा नाम उचारा चाँद

करतब  रिदय  में  तेरे  गुने
कुछ शब्द गढ़े औ गीत बुने
चुन-चुन पोए मनके मन के 
तुझ बिन इन्हें पर कौन सुने

बिन तेरे इक दिन ये तन्हा
कैसे हमने गुजारा चाँद

झलक न तेरी पड़े दिखायी
जैसे रात अमा की आयी
बढ़ा आ रहा गहन अँधेरा
अरमानों पर बदली छायी

मानस में कल्पित बिंब लिए
अंक भर तुझे दुलारा चाँद

बिन कहे न यूँ छुप जाया कर
कुछ तो इंगित कर जाया कर
रो- रोकर  हाल बुरा दिल का
तरस कुछ मुझ पर खाया कर

सच कहती हूँ भू पर मेरा
तुझ बिन नहीं गुज़ारा चाँद

कितना तुझे पुकारा चाँद...

- ©®सीमा