Thursday 27 October 2016

तुम आराध्य मैं एक पुजारिन

तुम आराध्य, मैं एक पुजारिन
तुम ममभाग्य,मैं एक अभागिन
तुम बिन अब मेरा ठौर कहाँ
तुम सा जग में कोई और कहाँ
दर तक तुम्हारे आ न सकी तो
एक झलक तुम्हारी पा न सकी तो
तड़पूँगी जनम- जनम

आस मिलन की छूटी जिस दिन
अलविदा कह जग को उस दिन
फिर- फिर जन्मूँगी, तुम्हें खोजूँगी
बीज नेह के मन में रोपूँगी
फिर भी तुमको पा न सकी तो
करीब तुम्हारे आ न सकी तो
भटकूँगी जनम- जनम

रहे सनातन अब ये जोड़ी
तुम रहो चंदा मैं बनूँ चकोरी
रोशन करोगे जब तुम जग सारा
मेरे मन का भी धुलेगा अंधियारा
मधुर स्मित की बलवती आस लिए
नजरों में अनबुझी इक प्यास लिए
निहारूँगी जनम- जनम

- सीमा
२७.१०.२०१६

Saturday 15 October 2016

तुम चाँद बने, मैं निशा बनी

तुम चाँद बने, मैं निशा बनी

लो फिर आई
शरद की पूरनमासी
विगसा चाँद गगन में
सोलह कलाएँ धारे
देखो, कैसा दिप रहा कलाधर
आसमां निरभ्र
धवल चाँदनी छिटकी
नहा जुन्हाई में
गुराई निशा
निखरा अंग- अंग
गर्वीली नार- सी
मदमाती उन्मादिनी
नतनयना, कुसुमित यौवना
निहार छवि प्रिय की मनमोहिनी
फूली ना समाती यामिनी

दमक उठा तन- मन
दिन भर के आतप से
संवलाई निशा का
सद्यस्नाता, दुग्ध- धवल
तारों जड़ित
रुपहले परिधान सजी
चहक रही अब कैसे बाबरी
रिझाने चली प्रिय को
ओढ़े दुकुल रत्न- खचित चाँदनी
श्वेताभिसारिका मानिनी

याद करो प्रिय दिन वह
पहली बार
मिले थे जब हम तुम
बनी थी जब पहचान युगों की
यही चाँदनी बिखरी थी सर्वत्र
झर- झर अमृत झरता था
बाहुपाश में जकड़ निशा को
प्रेमोन्मत्त चाँद
लजाए आरक्त कपोलों पर उसके
अगणित चुंबन जड़ता था

युग बीते अब देखे तुम्हें
काश तुम भी आ जाते एक बार
जैसे उजली रात ये आई
धुल जाते गम मेरे
ताप शमित सब होते
सुधा सम
स्नेह- वर्षण से तुम्हारे
देखो तो रखी कबसे
आस-अटारी पे
पायस मन में संजोए भावों की,
अधूरे रहे ख्बाबों की !

याद आते रह-रह पल वो
कैसा सुहाना दृश्य था
दूर- दूर हम- तुम बैठे थे
प्रथम दर्शन था
प्रथम था परिचय
मन संकुचित, हिचक भरा
मूक अधर
कुछ न कहते बनता था
यदाकदा कभी मिल जातीं नजरें
कैसे शरमा जाते थे हम- तुम
निश्छल, नादानियाँ देख हमारी
आगोश में चंद्र के राका
मधुर हास बिखराती थी !

क्या ही अद्भुत पल था वह
मन संग जब इन्द्रियाँ सकल
उतावली हो
पाने को तुम्हारी एक झलक
नयनों के झरोखों से
निहारतीं प्रिय छवि उझक- उझक

फिर
नजरोें से नजरें सम्भाषण करतीं
रूप पान करतीं. न अघातीं
तन क्या मन भी वे छू आतीं
खुशबू तुम्हारी संग ले आतीं
हौले से तुम्हारे कानों में
चाह मन की अपने कह आतीं
यूँ दूरी से ही देख तुम्हें
दृश्य,श्रव्य,स्वाद स्पर्श,गंध
हर आत्मिक सुख पा जातीं

इसी तरह बस यूँ ही सनातन
मन से मन के तार जुड़े
क्या हुआ जो तन से तन ना मिले
समाए हैं एक दूजे में
अधूरे सदा एक दूजे बिन
तुम चाँद बने
मैं निशा बनी
यों अमर हमारी हुई कहानी
अब
जब- जब आए रुत ये सुहानी
चाँदनी मिस तुम उतर धरा पर
फिर- फिर मुझसे आन मिले.
शरद की निर्मल जोन्हाई में ज्यों
राधा से कृष्ण कन्हाई मिले !

- सीमा


Tuesday 11 October 2016

ए चाँद मेरे

ए चाँद मेरे रुख कर ले इधर
तेरा मुख तो नजर आ जाए !
मैं भी चख लूँ सुखमय हाला
दो बूँद गर तू छलका जाए !

मुझे मिले जो तेरी चाँदनी
सुकूं मेरे मन को आ जाए !
एक किरन निसृत हो तुझसे
सूने अंक में आ समा जाए !

- सीमा