जनता की, जनता द्वारा,जनता के लिए बनती सरकार
स्वस्थ जनमत बनता सदा, लोकतंत्र का सबल आधार
करो देश की नींव सुदृढ़, अपने मत की ईंट रखो तुम
जागो देश के नौजवानो, एक नया इतिहास रचो तुम
Sunday 29 January 2017
जनमत
Tuesday 24 January 2017
मधुमास आया
आहत हुआ विश्वास, प्रिय नहीं आए
रही अनबुझी प्यास, प्रिय नहीं आए
खिल उठे सुमन, मुदित सकल उपवन
आया सखि मधुमास, प्रिय नहीं आए
- सीमा
२४.०१.२०१७
मतदाता जागरुकता
बज रहा हर सूं बिगुल चुनावी
सर्द मौसम कुछ लगा गरमाने
निकल पड़े राजभवन से नेता
फिर से जन- मन को भरमाने
हाथ जोड़े कैसे आ रहे देखो
कांधों पे वादों का झोला लादे
वोट की खातिर आज ये आए
महज जुमलों से हमें बहलाने
जन- मन को खुश करने की
कैसी होड़ लगी है हर दल में
कितनी शिद्दत से लगे हैं सारे
अपनी- अपनी दुकान सजाने
देख बस ऊपरी चमक- दमक
बातों में इनकी आ ना जाना
दायित्व निर्वहन करना बखूबी
जरा भी ढीले तुम पड़ न जाना
दल,जाति,धर्म से ऊपर उठकर
सोच- समझ कर निर्णय लेना
रुचे ना तुम्हें गर प्रत्याशी कोई
तो विकल्प नोटा का चुन लेना
मत देना है अधिकार तुम्हारा
खुद को ना वंचित तुम रखना
लोकतंत्र को सफल बनाना
सर्वथा योग्य पर मुहर लगाना
जन- जन के सजग प्रयासों से
भविष्य देश का संवर उठेगा
शत प्रतिशत मतदान से सच्चे
एक कर्मठ नेता हमें मिलेगा
- डॉ. सीमा अग्रवाल
२३ जनवरी, २०१७
Saturday 7 January 2017
तुम और मैं ---
गगन सा विस्तार तुम
जिसमें जड़ी मैं एक सितारे सी
टिमटिमाती
दीन-हीन
अबोध, अनजान, नादान
क्या मालूम है तुम्हें
गिनती अपने भीतर जगमगाते
जलते- बुझते अहर्निश
अनगिन सितारों की
देखो,
मैं भी तो तुमसे जनमती
तुममें विलय हो जाती
तुमसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं मेरा
पहचानो मुझे
अंश हूँ मैं तुम्हारा
विलग नहीं तुमसे
यूँ अनजान ना रहो मुझसे
हर पल मैं तुममें डूबती- उतराती
मुग्ध होती निहार
छवि तुम्हारी अद्भुत
चाहती एक लघु स्पर्श भर तुम्हारा
नेह भरा
ताकि हो स्पंदन कुछ तो
मेरे इस निर्जीव पाषाण तन में
झिंझोड़ दो मुझे
पकड़ बलिष्ठ बाँहों से अपनी
कि ये जड़ता अब सही नहीं जाती
पल भर के लिए
अपना यह वृहत् रूप तज
धारो मुझ सा लघ्वाकार
मिलो मुझसे
आमने- सामने साकार
एक बार कभी तो
हो समरूप
मिलें हम
दूरस्थ कहीं ऐसे वीराने में
जहाँ सिर्फ मैं और तुम हों
और ना कोई
निहारें अपलक एक दूजे को
हो अनिर्वचनीय शब्दातीत
तुम जानो मुझे
मैं तुम्हे
आहिस्ता- आहिस्ता तुम समा मुझमें
क्षणिक ही सही
मुझे भी एक अलौकिक स्वर्गिक अहसास दो
छिटक तुमसे
जा पड़ी दूर कहीं
किसी एक सुनसान कोने में
राह तकती मैं
युगो-ं युगों से तुम्हारी
नयनों में अनगिन ख्बाव संजोए
काश कभी तो पल वह आए
ये लघु अस्तित्व
सहज समर्पित भाव लिए
एकाकार हो
सदा- सदा को
तुम में घुल- मिल जाए
यूं तज मोह विराट का पल भर
गर स्वीकार करो तुम
मेरी लघु सीमा का बंधन
मैं मिल तुमसे, तुम्हारी
थाह अगाधता की पा लूँ !
तुम मेरी हद को जानो
मेरे सुख- दुख पहचानो
मैं उन्मुक्त, असीम हो
देखूँ तुम्हारे करतब न्यारे
एक सुर, एक लय हो यूं
तुम मुझमय, मैं तुममय हो जाऊँ
- सीमा
०८-०१-२०१७
कल, आज और कल
"कल" और "कल" की इस कलकल में
कहीं "आज" भी हाथ से छूट ना जाए !
जी लो "आज" को जी भर कर आज
वो "कल" ना लौटे, वो "कल" ना आए !
- सीमा
०७-०१-२०१७