Friday 4 December 2020

अनजान पथिक से तुम....

अनजान पथिक से तुम....

अनजान पथिक से आज तुम, आए हो मेरे द्वारे
खोई हुई मेरी खुशियाँ सारी तलाश रही हूँ तुममें...

कितने सुहाने  पल- छिन थे, जब
चाँद-चकोर  से  हम- तुम  मिलते
मैं अपलक तुमको निरखा करती
कैरव अनगिन मन-मानस खिलते
मनमोहिनी वे छवियाँ सारी तलाश रही हूँ तुममें...

तुम  साथ  वो  पुराना  भूल  गए
जिए  हैं  मैंने   युग  संग   तुम्हारे
तुमने  अपनी   दिशा   बदल  ली
बिखर  गए  मेरे  अरमां  ही  सारे
मीठी-मीठी वे बतियाँ सारी तलाश रही हूँ तुममें...

रात अंधेरी जब  घिर -घिर  आती
मन - मानस   को   मेरे   दहलाती
चाँद -सा   मुखड़ा   देख   तुम्हारा
कुमुदिनी-सी मैं खिल-खिल जाती
मधुर रुपहली वे रतियाँ सारी तलाश रही हूँ तुममें...
खोई हुई मेरी  खुशियाँ सारी  तलाश रही हूँ तुममें...

                      ~~~सीमा~~~

Monday 30 November 2020

आवारा लड़के सा चाँद....

आवारा लड़के-सा चाँद...

रूप का उसके कोई न सानी  प्यारा-सा अलवेला चाँद
निहारे धरा को टुकुर-टुकुर गोल मटोल मटके-सा चाँद

चुपके-चुपके साँझ  ढले वह, नित  मेरी गली में  आता
नजरें बचा कर सारे जग से तड़के ही छिप जाता चाँद

कितना दौड़ूँ उसे पकड़ने पर हाथ न मेरे कभी वो आए
औचक छिटक जा पहुँचे नभ में माला के मनके-सा चाँद

पकड़ न आये शरारत उसकी शातिर वो बड़े हुनर वाला
रात-रात भर  विचरता अकेला  आवारा  लड़के-सा चाँद

-©®सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद (उ.प्र.)

'मनके मेरे मन के' से

Sunday 29 November 2020

जरा-जरा...

जरा-जरा...

खुशियाँ तनिक मिल जाएँ मुझे भी, हँस लूँगी जरा-जरा
हौले से  भर आँचल में  उनको,  नच लूँगी  जरा-जरा

आओगे जब-जब याद मुझे तुम कर लूँगी बंद आँखें
मन-मंदिर में छवि आँक तुम्हारी, मचलूँगी जरा-जरा

सामने   रह  नज़रों   में   मेरी   बनो   आईना   मेरा
बैठ के  पलकन-तले  तुम्हारी,  सज  लूँगी जरा-जरा

धवलचंद्रिका यशकी तुम्हारे आए जो छनके मुझतक
चाँद  के  संग  धूमिल  तारे-सी,  चमकूँगी  जरा-जरा 

नेह-सनी  जब  बातें होंगी  सुखद-सुहानी  रातें होंगी
देखना  तब-तब  दिल में तुम्हारे,  धड़कूँगी जरा-जरा

रहो अगर तुम  सामने मेरे  मिट जाएँ सब तम के घेरे
नगमे  कुछ मादक मधुर रसीले,  रच लूँगी  जरा-जरा
- ©® सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
'मनके मेरे मन के' से

Friday 27 November 2020

शब वो काली नहीं ढल पायी...

शब  वो  काली  नहीं  ढल  पाई...

जो  चाहा   था   नहीं   बन  पाई
मेरी  मुझ   पर  नहीं   चल  पाई

परवान  चढ़ीं  हसरतें   जब-जब 
वक्त  ने   तब-तब   की  निठुराई

बेरहमी   से   कुचले   गए   फन 
चाहत  मेरी  जब - जब  इठलाई

खुदा ही समझ  बैठा वो खुद को
पूजा    उसने     मेरी     ठुकराई

नाजुक  मोम-सा   दिल था  मेरा
किसने  उसमें  ये  अगन  लगाई

घुली  अमावस   बन  जीवन  में
शब  वो  काली  नहीं  ढल  पाई

ठिकाना  सुख को  मिल न पाया
मन   में  गहनतम   पीर   समाई

डेरा   डाल   पसर    गए    दुख
तड़प  उठा  मन   टीस अकुलाई

चलती  किस्मत  सदा  उल्टी  ही
बात   है   ये   पक्की   अजमाई

गाज   गिरी   ख्वाबों   पर   ऐसी
दिल   पथराया   नजर   धुँधलाई

भाव  विगलित  हुए सब  मन  के
रुकी कलम  फिर नहीं  चल पाई

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
" मनके मेरे मन के" से

Tuesday 24 November 2020

जगो-उठो हे, कमला कांत.... ( हरि प्रबोधिनी एकादशी पर )

जगो-उठो हे, कमला-कांत ....

पाप शमन हों, ग्रह हों शांत
जगो-उठो हे, कमला-कांत !

आषाढ़  शुक्ल- एकादशी
चले चातुर्मास  शयन  को
दुख-भँवर में घिर गये हम
दर्शन दुर्लभ हुए नयन को
           घात   लगाए   बैठा  तबसे
           काल  बली  सर  पे  दुर्दांत

मेटो दुख हे, कमला-कांत !

रोता हमको  छोड़  गये तुम
भक्तवत्सलता तोड़ गये तुम
गम-आवर्त में देख हमें प्रभु
क्यूँ मुँह हमसे मोड़ गये तुम
          चैन न एक पल पाया तबसे
          है मन  उद्विग्न अति अशांत

लखो पीर  हे, कमला-कांत !

बीते  चार    माह   वे  दुख  के
तिथि सुखद जागृति की आयी
रोम-रोम में  सिहरन खुशी की
बेला  पुन्य  सुकृति  की आयी
     खटते-भटकते आस में सुख की
       प्राण थकित हैं, मन है क्लांत

हरो  ताप  हे,  कमला-कांत !

जाने  कौन  देश से  चल  के
आया  मुआ    दुष्ट   कोरोना
टाले टले न, प्राण हरे कितने
आए  हर पल  हम  को रोना
        बस  उरग-सा गरल उगलता
        आया  लाँघ   सभी  सीमांत

नागांतक   पर  चढ़   आओ
त्रास  मिटाओ  हे,  श्री कांत
        जगो-उठो हे,  कमला कांत !

- © सीमा अग्रवाल
   मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"मनके मेरे मन के" से


Friday 20 November 2020

विश्व रंगमंच दिवस पर...

विश्व रंगमंच दिवस'

वृहद् रंगमंच दुनिया सारी....

विरंचि-विरचित प्रपंच यह भारी
रंगमंच-सी भासित दुनिया सारी
जीव  जहाँ  अभिनय  करता  है
नित  नूतन  अति  विस्मय कारी

नयनाभिराम  निसर्ग - दृश्यांकन
सृष्टि  अनूठी  अद्भुत   बिंबांकन
नर्तन सम्मोहक नियति-नटी का
करता नियंता  तटस्थ मूल्यांकन

अनुस्यूत कथाएँ मुख्य-प्रासंगिक
हाव-भाव  चाक्षुष और आंगिक
मिल सब  भव्य  कथानक गढ़ते
नाट्यशाला  धरा खुली नैसर्गिक

पात्र आते निज किरदार निभाते
दर्शक  उन संग  घुल-मिल जाते
गिरती  यवनिका  पटाक्षेप होता
एक नया दृश्य फिर सामने होता

त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियाँ  मानवीय
रचतीं  पल-पल  नवल  प्रकरण
व्यक्ति-अभिव्यक्ति, भाषा-शैली
करते मिल सब भाव-अलंकरण

कथानक श्लाघ्य  सदा वह होता
अंततोगत्वा अंत सुखद जिसका
नाटिका वही  सफल  कालजयी
हो उद्देश्य  महद् फलद जिसका

       इस  वृहद् रंगमंच के  पात्र  हम सब
       भूमिका लघु बेशक  पर अहं हमारी
       रचें मंच-फलक पर  निशां कुछ ऐसे
       चले युगों तक जिन पर दुनिया सारी

- डॉ.सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)

23 मार्च, 2018

'चाहत चकोर की' काव्य संग्रह में प्रकाशित

Sunday 8 November 2020

दम भर तुझे पुकारा चाँद....

दम भर तुझे पुकारा चाँद...

तन्हा रात  नयन उन्मीलित
कितना तुझे पुकारा चाँद
गढ़ के अनगिन छवियाँ मन में
तेरा  रूप  निहारा  चाँद

दूर क्यों इतनी रहते मुझसे
कह न सकूँ निज मन की तुमसे
भाव हमारे मन के भीतर
रहते चुप-चुप हर पल गुम से

नेह - सने अधरों से हमने
तेरा नाम उचारा चाँद

करतब  रिदय  में  तेरे  गुने
कुछ शब्द गढ़े औ गीत बुने
चुन-चुन पोए मनके मन के 
तुझ बिन इन्हें पर कौन सुने

बिन तेरे इक दिन ये तन्हा
कैसे हमने गुजारा चाँद

झलक न तेरी पड़े दिखायी
जैसे रात अमा की आयी
बढ़ा आ रहा गहन अँधेरा
अरमानों पर बदली छायी

मानस में कल्पित बिंब लिए
अंक भर तुझे दुलारा चाँद

बिन कहे न यूँ छुप जाया कर
कुछ तो इंगित कर जाया कर
रो- रोकर  हाल बुरा दिल का
तरस कुछ मुझ पर खाया कर

सच कहती हूँ भू पर मेरा
तुझ बिन नहीं गुज़ारा चाँद

कितना तुझे पुकारा चाँद...

- ©®सीमा

Friday 21 August 2020

कब सोचा था...

कब सोचा था....

सोचा था तुझसे ब्याह करूँगी
प्यार  तुझे   बेपनाह   करूँगी

साँझ  ढले  जब   घर आएगा
निहारा  तेरी    राह    करूँगी

तेरी  लंबी  उमर  की  खातिर
उपवास इक हर माह करूँगी

पूरा न  जिसको   कर पाये तू
कोई  न  ऐसी   चाह   करूँगी

रहूँगी  तले  पलकों   के  तेरी
कभी न ऊँची निगाह करूँगी

मरते दम तक   साथ  तेरे  ही
जीवन अपना निबाह करूँगी

तुझसे जुदा होकर  जीने  का
सोचा कब था  गुनाह करूँगी

कब   सोचा था  याद में  तेरी
रातें  अपनी   स्याह   करूँगी

साथ  तेरे  जो   बुने  चाव  से 
उन  सपनों का  दाह  करूँगी

              ---सीमा---

Wednesday 19 August 2020

सावन बीता...

सावन      बीता
आस  न   बीती
ढुलक पलक से
बदली      रीती

हद   से   प्यारा
मीत      हमारा
बातें     उसकी
थीं     मनचीती

बैठी     उन्मना
भोली   जोगन
फटे  बसन  ले
कथरी    सीती

होश  न अपना
सुध  न तन की
बंजर  आस ले
मर - मर जीती

प्रेम - पंथ - पग
रखा सँभलकर
हारी  फिर  भी
कभी न  जीती

क्षुधित  तन  है
प्यासा  मन  है
गम  खा  लेती
आँसू      पीती

तन की मन से
मन की तन से
होती    हरदम
तुक्काफजीती

- सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

कितना सच अनजाना तुमसे....

कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा
क्या करना कुछ कहकर अब
रहने दो जो नहीं कहा

कौन सुखी है इस दुनिया में
जो दर्द मैं अपना रोऊँ
बना लूँ दर्द को साथी अपना 
सुकून से संग ले सोऊँ

बन्दिशों में  रहते-रहते 
बन्धनों का आदी हुआ मन
अब क्या करनी मन की अपने
मन ही न जब अपना रहा

सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं,
सबकी अपनी नियति है
मरे बिना स्वर्ग न मिलता
मिलती किसको सुगति है

जमावड़ा गमों का दिल में
बन गयी पीर हिमालय
गहराता समंदर अश्कों का 
बहने दो जो नहीं बहा

हुज्जूम उमड़कर यादों का
मन को क्षणिक बहलाता है
रख काँधे पर हाथ प्यार से
रिसते  जख्म  सहलाता है

कलपता है मन रहरह कर
हूक सी दिल में उठती है
ढूह जीर्ण-शीर्ण यादों का
ढहने दो  जो नहीं ढहा

औरों की गलती के भी
लगते आरोप हमीं पर
साथ न देकर देव हमारा
बरसाते कोप हमीं पर

छलक पड़े न पीर नयन से
घोंट लिए सब आँसू भीतर
सीकर होंठ सदा अपने
क्या-क्या हमने नहीं सहा

सच
कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा....

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Friday 14 August 2020

कितना सच अनजाना तुमसे....

कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा
क्या करना कुछ कहकर अब
रहने दो जो नहीं कहा

कौन सुखी है इस दुनिया में
जो दर्द मैं अपना रोऊँ
बना लूँ दर्द को साथी अपना 
सुकून से संग ले सोऊँ

बन्दिशों में  रहते-रहते 
बन्धनों का आदी हुआ मन
अब क्या करनी मन की अपने
मन ही न जब अपना रहा

सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं,
सबकी अपनी नियति है
मरे बिना स्वर्ग न मिलता
मिलती किसको सुगति है

जमावड़ा गमों का दिल में
बन गयी पीर हिमालय
गहराता समंदर अश्कों का 
बहने दो जो नहीं बहा
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Thursday 14 May 2020

मन कर रहा आज ये मेरा....

मन कर रहा आज ये मेरा......

मन कर रहा  आज ये मेरा
ख़त एक तुम्हारे नाम लिखूँ
बिना तुम्हारे कट रहीं कैसे
मेरी सुबहें और शाम लिखूँ

आए हर पल याद तुम्हारी
तुम पर मैंने हर खुशी बारी
खुद को प्रेम- दीवानी मीरा
तुम्हें प्यारा घनश्याम लिखूँ

लिखूँ तुम्हें हाले दिल अपना
हर सुख जैसे हुआ है सपना
विरहानल में जलजलकर मैं
तड़पूँ कैसे आठों याम लिखूँ

चले आते नयनों में बीते पल
सूझे न  कोई विपदा का हल
तन्हा पाकर इक अबला को
सताए नित कैसे काम लिखूँ

अब न भाए सावन की रुत
चकरी-सी घूमूँ बस इत-उत
इतने काम लदे हैं काँधों पर 
एक पल नहीं आराम लिखूँ

पाऊँ मैं कहाँ से पता तुम्हारा
लाऊँ न जुबां पे नाम तुम्हारा
ढूँढे से नहीं  मिलता हरकारा
इस हाल में क्या पैगाम लिखूँ

मन कर रहा आज ये मेरा
ख़त एक तुम्हारे नाम लिखूँ
बिना तुम्हारे कट रहीं कैसे
मेरी सुबहें और शाम लिखूँ

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

सोलह श्रंगार...

सुघड़  सलोनी  रूपसी   नार
किए   बैठी    सोलह   श्रंगार

लाल  है  चोली   लाल  घघरा
नयन विशाल फब रहा कजरा
माथे    बेंदी     मांग     सिंदूर
गुँथा  हुआ    वेणी   में  गजरा

प्रिय-छवि  नयनन में  साकार
किए    बैठी    सोलह   श्रंगार

माँग  टीका  लग   रहा  नीका
चाँद भी  उसके  आगे  फीका
फब   रहा   बाजूबंद   मनोहर
औ कमरबंद  कमर-वलय पर

नथ, कर्णफूल,   गले  में  हार
किए   बैठी     सोलह   श्रंगार

हाथ  में  चूड़ी-कंगना  खनके
मुद्रिका हीरक  दम-दम दमके
पादांगुली  द्वय बिछिया  सोहे
महावर पाँव  रचित  मन मोहे

छम-छम  पायल की झनकार
किए   बैठी    सोलह   श्रंगार
               सुघड़  सलोनी  रूपसी   नार

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Wednesday 13 May 2020

पूछना तुम चाँद से...

पूछना तुम चाँद से ...

कब तलक जागे रहे हम,   पूछना तुम चाँद से
कब तलक आँखें रहीं नम, पूछना तुम चाँद से

चाँद भी जब छुप गया, बदलियों की ओट में
किस कदर छाया रहा तम, पूछना तुम चाँद से

अलमस्त सोई चाँदनी भी, चाँद के आगोश में
आया न उसको भी रहम, पूछना तुम चाँद से

कुछ पल ऊँघे सितारे, फिर मूंद पलकें सो गए
बस तन्हाई संग थी हरदम,पूछना तुम चाँद से

नयनन में दीप बाले, विरहन तकती रही गगन
परिस्थिति थी कैसी विषम, पूछना तुम चाँद से

उघड़े रहे नैन हर पल, उसके दरस की चाह में
हुआ न क्यों विसाले सनम, पूछना तुम चाँद से

औचक उस चंद्रवलय में आई छवि उसकी नजर
बड़ा मनमोहक था ये भरम, पूछना तुम चाँद से

चाँद ही है एक गवाह जो हर पल मेरे साथ रहा
कितने थे इस दिल पे जख़्म, पूछना तुम चाँद से

साक्षी है असीम आकाश, सीमा का मेरे प्रेम की
समझता था दिल का मरम, पूछना तुम चाँद से

उसकी किसी बात पर, हो गर यकीं तुमको नहीं
चाँदनी की तब दे के कसम, पूछना तुम चाँद से

                    ~~~सीमा अग्रवाल~~~
                             ~मुरादाबाद~




Tuesday 12 May 2020

बूढ़े गमों को ढोते-ढोते....

ऐसी माँ के जने हैं हम...

बूढ़े  गमों  को   ढोते - ढोते
जिंदा   लाश   बने   हैं  हम
गर्द- ए- दर्द  की  कर्दम  में
आपादमस्तक  सने हैं  हम

खुशियों  के  इस  उत्सव में
नगमे  गम   के   कौन  सुने
रोड़े-पत्थर  पथ   में  आएँ
राहें    ऐसी      कौन    चुने

शिकवा  करें  क्या  जग से 
खुद से  ही  अनमने हैं  हम

झेलते  रहे  घात  पर  घात
पर पीर न  अधरों पर आई
कहते किससे मन की बात
देते  आखिर किसे  सफाई

पूछता  हैरान  हो  गम  भी
किस  माटी से  बने हैं  हम

सुख को हम मीत समझ बैठे
पर हाय कहाँ वो अपना था
जब आँख  खुली  तो जाना
वो तो एक मोहक सपना था

झर गए सुख के पात सभी
फिर भी  देखो तने  हैं  हम

बूढ़े  गमों  को   ढोते - ढोते
जिंदा   लाश   बने   हैं  हम
गर्द- ए- दर्द  की  कर्दम  में
आपादमस्तक  सने हैं  हम

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

यूँ तो कोई काम नहीं है ---

यूँ  तो कोई काम नहीं है
पर मन को आराम नहीं है

ढल जाए तेरी याद बिना
ऐसी  कोई  शाम नहीं है

लूँ न एक साँस भी ऐसी
जिसमें तेरा नाम नहीं है

चाहत मन की मन के भीतर
गुम है पर गुमनाम नहीं है

कब से नैन लगे हैं दर पर
आया कोई पैगाम नहीं है

- सीमा अग्रवाल

ऐसा गया बिलट के....

ऐसा  गया  बिलट के...

ऐसा  गया  बिलट के
देखा  नहीं  पलट  के

किस्मत  कैसी लंपट
खेली खेल  कपट के

नन्हीं   खुशियाँ  मेरी
ले ही  गयी  झपट के

पाकर उसकी आहट
भागी  नींद  उचट के

मिला नहीं  सुख मेरा
देखा  उलट-पलट के

सेहत  बिगड़  न पाये
खायी दवा  निपट के

गम को गले  लगाया
रोये  खूब  लिपट  के

'सीमा' अपनी  जानी
खुद में रहे  सिमट के

बुझती लौ जीवन की
बस यूँ ही घट-घट के

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद 


Wednesday 6 May 2020

रोगजनकों में क्रमिक अभिवृद्धि-मानव पर प्रकृति की महा मार


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Sunday 3 May 2020

करें क्या....

आज जग वीरान   करें क्या
वक्त  भी   हैरान   करें  क्या

न सुकून है  न  करार  कहीं
दिल भी  परेशान  करें  क्या

सुना  गया  कोई   कान   में  
मौत  का फरमान  करें क्या

कैद  पायी  काल  अनिश्चित  
बंद  जिस्मो जान  करें  क्या

निज गृह हुआ  हवालात-सा
जब्त सब अरमान  करें क्या

दहशत का  साम्राज्य  हर सूं
छिन गयी  मुस्कान करें क्या

खोज रहे मिल  सभी निदान
पर  नहीं  आसान  करें  क्या

मनुजता का  सूर्य  ढल  रहा
दिख रहा अवसान करें क्या

झूठे   पड़े     वरदान    सभी
फला न कोई  दान  करें क्या

स्वार्थ  तुच्छ  ढा  रहा  कहर
सँभले  न  इंसान   करें  क्या

पड़े - पड़े    बंदी    घरों   में
हो  गये   बेजान   करें  क्या

चिढ़ा रहे मुँह  आज खगमृग
पी  रहे  अपमान   करें  क्या

हो कठोर नियति भी 'सीमा'
ले रही  इम्तिहान  करें  क्या

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद(उ.प्र.)

कुंडलिया-कोरोना....

कोरोना का वायरस,  मचा  रहा  है  धूम
सुना भयावह रोग है, आया यम को चूम
आया यम को चूम, मौत का खौफ जगाए
अदना सा ये जीव, सभी का दिल दहलाए
प्रभु विनय कर जोड़, करे न वार कोरोना
रहें सभी सलामत, पड़े न किसी को रोना
-डॉ.सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद (उ.प्र.)

सोच रही गौरैया...

सोच रही गौरैया.....

सींखचे पर खिड़की के आज आ बैठी एक गौरैया
देख रही थी  टुकुर-टुकुर  खामोश थे भाभी-भैया
चिंतामगन बैठे थे दोनों बीच में एक मीटर की दूरी
कोई किसी को टच करे न  हुई ऐसी क्या मजबूरी
काम पर भी नहीं जाते  क्यों  खाली बैठे घर भैया
सोच रही गौरैया...

रद्द किया  कहीं आना-जाना  रद्द  किए सब न्योते
कितनी बार उठ-उठकर दोनों हाथ रगड़कर धोते
एक कमरे में चुन्नू अकेला दिखी एक में बूढ़ी मैया
क्यों नहीं छत पर आते भैया उड़ाने अब कनकैया
सोच रही गौरैया.....

जगी जिज्ञासा मन में उसकी था कोई ओर न छोर
कातर नज़रों से देख रहीं क्यों  भाभी उसकी ओर
पिंजरे में बंदकर मुझको जो कहतीं थी सोनचिरैया
उनके लिए बन गयी पिंजर अपनी ही आज मड़ैया
सोच रही गौरैया....

सुना एक वायरस 'कोरोना' उड़ चीन देश से आया
मंडरा रहा समूची दुनिया पर काल रूप धर आया
लाचार  बेबस आज मनुज  फँसी  मझधार में नैया 
उठ जाएगा मेरा दाना-पानी  गर रहे न भाभी-भैया
सोच रही गौरैया....

- डॉ.सीमा अग्रवाल
सी-89, जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)

जान है तो जहान है ....


न सँभले हैं अभी हालात और कुछ दिन  घर में रहो
ख्याल रखो अपना-अपनों का न बीच शहर  में रहो

संयम से रह  किसी तरह  ये मुश्किल दिन बिता लो
रहो  सुकून  से  घर में  दो रोटी  सुकून  की  खा लो
प्राण हथेली पर  ले अपने निकलो न जबरन  बाहर
एकांतवास  करो निज घर में  आई विपद् को टालो

मंडरा रहा है काल देखो  दुनिया ही समूची  लीलने
ए परिंदों ! इल्तिज़ा ये तुमसे  तुम भी  शज़र में रहो

जीविका हित दूर हो  प्राण कलपते रहे जिनके लिए
आज नसीब से पल मिले ये जी लो इन्हें उनके लिए
*जान है तो जहान है* वरना जग ही सारा मसान है
रहें मिल सब घर में अपने हितकर यही सबके लिए

गिले-शिकवे रह न जाएँ पल ऐसे फिर आएँ न आएँ
अपने रहें नज़रों में तुम्हारी  तुम उनकी नज़र में रहो

जान के घाटे से बेहतर अर्थ-व्यापार में घाटा सह लो
जीभर सुनो व्यथा अपनों की जीभर अपनी कह लो
कठिन घड़ी है कठिन चुनौती करो सामना हिम्मत से
कुदरत की सौगात समझ नेह-पिंजर में अपने रह लो

न  जोश-ए-वहशत  में  रहो   न  ग़म-ए-दहर  में  रहो
ए गज़ल ! तुम भी कुछ दिन  बंद अपनी बहर में रहो

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

*ग़म-ए-दहर-sorrow of world*
*जोशे-वहशत=उन्माद की तीव्रता*

भाखा किसकी हाय फली है....

भाखा किसकी हाय फली है
सूनी  शहर की  हर  गली  है

काँप  रही  है  दुनिया थरथर
बैठा  सर  पर  काल  बली है

दिन  बीता  अफरातफरी  में
गम  में  डूबी  साँझ  ढली  है

अच्छे दिन अब  क्या आयेंगे
मुरझ गयी उम्मीद - कली  है

दूर है मंजिल   साथ न  कोई
राह   पथरीली    दलदली  है

जीवन-संध्या   खड़ी  सामने
उमर  जवानी  बीत  चली  है

क्या-क्या और  देखना बाकी
घड़ी  कठिन  बड़ी  बेकली है

भोग रहा नर  फल करनी का
खग-मृगकुल में  बात चली है

लगता अगली राह  मनुज की
मुड़  निसर्ग की ओर  चली है

कानों में  रस  घोल  रही  आ
गुंजित   हवा  में  काकली  है

मिट रही अब  धैर्य की 'सीमा'
मच रही  दिल में  खलबली है

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

गो कोरोना गो कोरोना....

गो कोरोना, गो कोरोना....

ये करो ना वो करो ना
क्या करो और क्या करो ना
आयी कैसी मनहूस घड़ी ये
जां साँसत में आ रहा रोना
गो कोरोना, गो कोरोना....

साथ न रहना साथ न सोना
सोते लेकर अलग बिछोना
हाथ भी धोते रगड़-रगड़ कर
हो न जाए कुछ अनहोना
गो कोरोना, गो कोरोना...

बाहर न जाते मास्क लगाते
अपने ही घर में गश्त लगाते
बड़ी वीरानगी पसरी हर सूं
सूना जग का कोना-कोना
गो कोरोना, गो कोरोना...

प्रच्छन्न रूप में क्यों तुम आये
घात भी करते नज़र  चुराये
कौन जनम का बैर हो पाले
हिम्मत हो तो खुलके कहो ना
गो कोरोना, गो कोरोना...

भेजे हो किसके कुछ तो बोलो
चुप न रहो यूँ राज तो खोलो
लड़ो वीर से समर-भूमि में
छुपछुपकर यूँ वार करो ना
गो कोरोना, गो कोरोना...

लगते  कोई असुर मायावी
नजर न आए कहीं छाया भी
अमूर्त रूप में काल बन आए
करते हो क्या जादू-टोना
गो कोरोना, गो कोरोना...

जिसकी शह पे तुम यहाँ आए
लाज उसे क्या जरा न आए
वजूद उसका कितना बौना
खेल रहा जो खेल घिनौना
गो कोरोना, गो कोरोना...

जहाँ से आए जाओ वहीं अब
बेवजह यूँ न सताओ हमें अब
कुछ तो अपना मान भी रखो
ढीठ से आखिर जमे रहो ना
गो कोरोना, गो कोरोना...

लॉक डाउन हुए हम घर में
अपराधी से अपनी नजर में
बिन गलती के दण्ड मिले तो
कहो, आए न किसको रोना
गो कोरोना, गो कोरोना

निज गृह में हम बंदी तुम्हारे
कैदी- जीवन जीते हारे
बहुत हुआ अब बस भी करो ना
कैद से अपनी मुक्त करो ना
गो कोरोना, गो कोरोना...

-डॉ.सीमा अग्रवाल
सी-89, जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Wednesday 5 February 2020

मन अनुरागी श्याम तुम्हारा...

१- मन अनुरागी श्याम तुम्हारा... मन अनुरागी श्याम तुम्हारा मेरे भटकते मन- प्राणों का, तुम ही एक सहारा साँवरे रूप में डूब तुम्हारे, निखरा रंग हमारा मन-मंदिर के वासी तुमसे, प्रतिबिंबित जग सारा तब-तब ठोकर खाई मैंने, जब-जब तुम्हें बिसारा कितने अधम जनों को तुमने, एक पुकार पर तारा लेने को मेरी प्रेम-परीक्षा, माया का मोहक जाल पसारा भव-बंधन से मुक्त करो अब, तोड़ ये निर्मम कारा । २ संग अंधेरों के मैं खेली... संग अंधेरों के मैं खेली रात है मेरी सखी सहेली प्यार से अपने अंक लगाती रहने न देती मुझे अकेली चाँद-सितारे उतर के नभ से संग मेरे करते अठखेली हँसें मंद-मंद चाँद-चाँदनी लगे मन नीकी रात जुनेली पग धर धरा पर धीरे-धीरे चलती सँभलकर नार नवेली जिंदगी जो आसान कभी थी लगती वही अब गूढ़ पहेली जिन सपनों पे लुटाया जीवन उन सपनों ने जान ही ले ली रहे न हास-हुलास-रास-रंग सूनी है अब दिल की हवेली नेह का सागर जहाँ छलकता हमने वहाँ भी जिल्लत झेली कोई किसी से बड़ा न छोटा राजा भोज या गंगू तेली खुशियाँ हाट मिलें नहीं 'सीमा' धरे रह जाते रुपया- धेली - डॉ.सीमा अग्रवाल सी-89, जिगर कॉलोनी मुरादाबाद (उ.प्र.)

इश्क आसान नहीं होता है...

इश्क आसान  नहीं होता है ------

मन-सीपी    याद सँजोता है
कभी हँसता   कभी रोता है
सुख चैन खुदी सब खोता है
इश्क   आसान नहीं होता है

उसकी यादें       उसकी बातें
उसके सपने        बुनती रातें
विकल मन  करता हाहाकार
मिलतीं अश्कों की    सौगातें
              हँस   भार गमों का  ढोता है
              इश्क   आसान नहीं होता है

जग से        बेगाना रहता है
खुद से       अंजाना रहता है
गुमसुम-गुमसुम खोया रहता
पर गम न किसी से कहता है
             अपने पग     कंटक बोता है
              इश्क  आसान नहीं होता है

राह इसकी   बड़ी पथरीली
चाहत भी है अति नखरीली
मन आँकता  छवि प्रिय की
रहती हरदम  आँख पनीली
              एक पल न चैन से सोता है
              इश्क आसान नहीं होता है

गम खाकर औ आँसू पीकर
जीवन का गुजारा करता है
डूबा रहता याद में प्रिय की
खुद को ही बिसारा करता है
              बड़ा अजब नज़ारा होता है
              इश्क आसान  नहीं होता है

नैन गगरिया   छलकी जाती
जीवन-बाती   घटती  जाती
छाती धड़कती फटती जाती
जिह्वा नाम बस रटती जाती
                दीदार न जब तक होता है
                इश्क आसान नहीं होता है

अंगार-सा  जलना होता है
बादल-सा बरसना होता है
बिंधता  कली-सा शूलों से
तब हार रिदय का होता है
             अश्कों में   लगाता गोता है
             इश्क आसान  नहीं होता है

पर इश्क न हो  गर जीवन में
जीने का मज़ा कहाँ आता है
प्रिय-छवि न हो गर  नैनन में
मन-पृष्ठ   कोरा  रह जाता है
            बहता छलछल नीर नयन से
            विकार सब मन का धोता है

इश्क आसान  नहीं होता है...

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

मेरी तीन रचनाएँ...


१- गुनो सार जीवन का...

इधर-उधर  मत  डोलो
मन  की  आँखें  खोलो

तोड़ो न दिल किसी का
असत्य  कभी  न बोलो

रखकर  कर्म-तुला  पर
सुख-दुख  दोनों  तोलो

प्रायश्चित   के  जल  से
मल  पापों  का धो  लो

लौट  अतीत  की  ओर
बिखरे  मनके   पो  लो

फैले   बेल   खुशी   की
बीज  नेह   के  बो   लो

हो  शरीक  पर-गम   में
पलभर पलक भिगो लो

करो  न  बैर  किसी  से
सबके  अपने   हो   लो

बोलो    अमृत     वाणी
गरल  न  मन  में  घोलो

गुनो  सार   जीवन   का
यादें   मधुर   सँजो   लो

मूंद  लो   थकी   पलकें
नींद  सुकूं  की  सो  लो

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

२- वक्त-वक्त की बात ....

कल वक्त हम पर अनुरक्त हुआ
पल आज वो गुजरा  वक्त हुआ

आज  वो   हमसे  दूर  बहुत  है
दिल जिसपे कभी आसक्त हुआ

वक्त-वक्त की है बात, कहें क्या
कभी नरम कभी तो सख्त हुआ

दम से जिसके  हसीं थी दुनिया
वही  अब  हमसे  विरक्त  हुआ

जब-जब भी उससे नज़र मिली
मुखड़ा  लजाया  आरक्त  हुआ

उफनता  सागर  जज़्बातों   का
शब्दों में  कहाँ अभिव्यक्त हुआ

साथ छोड़ चले  जब अपने  ही 
भारी  पलड़ा भी  अशक्त हुआ

शीशा ए दिल का  हाल न पूछो
कितने हिस्सों  में  विभक्त हुआ

सुकून  कहाँ  मन पाए  उसका
जो अपनों  से  परित्यक्त  हुआ

चल निकलीं तिकड़में जिसकी
वही सब पर हावी सशक्त हुआ

साथ जिसका दिया किस्मत ने
जमाना  उसी  का  भक्त  हुआ

हुई  विलीन असीम  में  'सीमा'
अंश  अंशी   से  संपृक्त   हुआ

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

३- हर लो हरि-हर...

हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !
लगा लिया अब मैंने प्रभुवर,
तुम्हारे चरन-कमलों में डेरा !
हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !

तेरी जगती में जब सब सोते,
बस एक अकेली जगती हूँ मैं !
नाम की तेरे  दे कर दुहाई,
प्राणों को अपने ठगती हूँ मैं !
      मन में मूरत बसी है तेरी,
      जिह्वा पर बस नाम है तेरा !
हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !

मैंने सुना है भक्त पुकारे,
तब तुम दौड़े आते हो !
अपना हर एक काम जरूरी
उस पल छोड़े आते हो !
      अपने प्रन की लाज रख लो,
      डालो इधर भी फेरा !
हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !

जाना जब से, अंश हूँ तेरा
खोज में तेरी, हुई दीवानी ।
नाता जबसे जुड़ा है तुमसे
जग से मैं सारे, हुई बेगानी ।
      अज्ञान-तिमिर हर लो मेरा,
      कर दो अब सुखद सवेरा ।
हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !

खुद से जुदा कर मुझको तुमने
भेज दिया संसार में ।
कैसे तुम तक अब मैं आऊँ
भटक रही मझधार में ।
       कोई सुगम सी राह सुझा दो
        मुझे महा विपद् ने घेरा ।
हर लो हरि-हर, हर गम मेरा !

-डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)