Friday 21 August 2020

कब सोचा था...

कब सोचा था....

सोचा था तुझसे ब्याह करूँगी
प्यार  तुझे   बेपनाह   करूँगी

साँझ  ढले  जब   घर आएगा
निहारा  तेरी    राह    करूँगी

तेरी  लंबी  उमर  की  खातिर
उपवास इक हर माह करूँगी

पूरा न  जिसको   कर पाये तू
कोई  न  ऐसी   चाह   करूँगी

रहूँगी  तले  पलकों   के  तेरी
कभी न ऊँची निगाह करूँगी

मरते दम तक   साथ  तेरे  ही
जीवन अपना निबाह करूँगी

तुझसे जुदा होकर  जीने  का
सोचा कब था  गुनाह करूँगी

कब   सोचा था  याद में  तेरी
रातें  अपनी   स्याह   करूँगी

साथ  तेरे  जो   बुने  चाव  से 
उन  सपनों का  दाह  करूँगी

              ---सीमा---

Wednesday 19 August 2020

सावन बीता...

सावन      बीता
आस  न   बीती
ढुलक पलक से
बदली      रीती

हद   से   प्यारा
मीत      हमारा
बातें     उसकी
थीं     मनचीती

बैठी     उन्मना
भोली   जोगन
फटे  बसन  ले
कथरी    सीती

होश  न अपना
सुध  न तन की
बंजर  आस ले
मर - मर जीती

प्रेम - पंथ - पग
रखा सँभलकर
हारी  फिर  भी
कभी न  जीती

क्षुधित  तन  है
प्यासा  मन  है
गम  खा  लेती
आँसू      पीती

तन की मन से
मन की तन से
होती    हरदम
तुक्काफजीती

- सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

कितना सच अनजाना तुमसे....

कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा
क्या करना कुछ कहकर अब
रहने दो जो नहीं कहा

कौन सुखी है इस दुनिया में
जो दर्द मैं अपना रोऊँ
बना लूँ दर्द को साथी अपना 
सुकून से संग ले सोऊँ

बन्दिशों में  रहते-रहते 
बन्धनों का आदी हुआ मन
अब क्या करनी मन की अपने
मन ही न जब अपना रहा

सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं,
सबकी अपनी नियति है
मरे बिना स्वर्ग न मिलता
मिलती किसको सुगति है

जमावड़ा गमों का दिल में
बन गयी पीर हिमालय
गहराता समंदर अश्कों का 
बहने दो जो नहीं बहा

हुज्जूम उमड़कर यादों का
मन को क्षणिक बहलाता है
रख काँधे पर हाथ प्यार से
रिसते  जख्म  सहलाता है

कलपता है मन रहरह कर
हूक सी दिल में उठती है
ढूह जीर्ण-शीर्ण यादों का
ढहने दो  जो नहीं ढहा

औरों की गलती के भी
लगते आरोप हमीं पर
साथ न देकर देव हमारा
बरसाते कोप हमीं पर

छलक पड़े न पीर नयन से
घोंट लिए सब आँसू भीतर
सीकर होंठ सदा अपने
क्या-क्या हमने नहीं सहा

सच
कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा....

-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Friday 14 August 2020

कितना सच अनजाना तुमसे....

कितना सच अनजाना तुमसे
कितना कुछ अनकहा
क्या करना कुछ कहकर अब
रहने दो जो नहीं कहा

कौन सुखी है इस दुनिया में
जो दर्द मैं अपना रोऊँ
बना लूँ दर्द को साथी अपना 
सुकून से संग ले सोऊँ

बन्दिशों में  रहते-रहते 
बन्धनों का आदी हुआ मन
अब क्या करनी मन की अपने
मन ही न जब अपना रहा

सबकी अपनी मर्यादाएँ हैं,
सबकी अपनी नियति है
मरे बिना स्वर्ग न मिलता
मिलती किसको सुगति है

जमावड़ा गमों का दिल में
बन गयी पीर हिमालय
गहराता समंदर अश्कों का 
बहने दो जो नहीं बहा
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद