कल तक
विशुद्ध प्रेम जल से
भरा था
सराबोर था-
गहन गूढ़ स्नेहिल भावों से
कोई समझ न थी
भले बुरे की !
मर्यादित बंधन की !
आबद्ध हुआ तुमसे
गुंथा स्नेह सूत्र में तुम्हारे
रिसता था
बरसता था
नैनों से
वाणी से
शब्दों से
आती जाती हर सांस से
हर स्पंदन से
रोम रोम से
अंतर की अतल गहराई से
बस उलीच रहा था
भर- भर दोनों करों से
प्रेम- सीकर
निर्विकार !
निस्पृह !
बेपरवाह !
थाह न थी आनंद की
लुटाते हुए कोष अपना
रत्ती भर भी तो
न हुई आशंका कभी
रिक्त होने की
लबलबाता था और अधिक
बरसने के बाद !
भिगोकर आकंठ तुम्हें
निश्छल प्रेम जल में अपने
कैसा आह्लादित हो उठता था
उदधि मेरे मन का !
इठलाता था
लजाता था
बलखाता था कभी
खिंचा चला आता था
बेरोकटोक
खुद ब खुद
पास तुम्हारे
व्यस्त देख
निहारा करता था तुम्हें
अपलक अनथक एकटक
बिसरा सुध-बुध अपनी
बसा छवि नैनों में
अघाता न था कभी !
पर यह क्या !
अकस्मात दो कंकड़
उपहास औ मखौल के
ओहदे की माप तौल के
आ गिरे इसमें कहां से !
कब कैसे और क्यों !
जान सका न मन
आलोड़ित हो उठा
समग्र स्नेह-जल
पल भर को तो !
भंग हुई तन्मयता
स्तब्ध हुआ यकायक
शंकाओं के भँवर बने
गूँज आने लगीं कानों में
बेमानी था समर्पण मेरा
कोई मोल नहीं इसका
निगाहों में तुम्हारी !
कहाँ राजा भोज तुम
कहाँ मैं गंगू तेली
क्या मेल भला दोनों का
कभी पासंग भी नहीं
रही मैं तुम्हारी
हँसते रहे तुम सदा
इस निश्छल अवदान पर मेरे !
मन आज व्यथित
यह सोच सोच
कि रुचा नहीं तुम्हें कभी
मेरा अद्भुत यह प्रेम समर्पण
काश कुछ मुझसे
कहा होता तुमने
चेता दिया होता मुझे
सुनती जो तुमसे
न कष्ट होता इतना
क्यों गैर निगाहों में
गिरा मुझे
उपहास किया मेरा !
कैसे झेलूं यह दंश
उत्तर दो तुम्हीं
राह मुझे सुझाओ
आज भी छलक रहा है
यह सागर
पर नहीं उस खुशी में
बस बेबसी पर अपनी
अश्कों में ढलक रहा है !
पर आज भी
मन में मेरे कहीं
विश्वास ये सघन है
कि गलत थी वो अनुगूँज
जो पड़ी इन कानों में
तुम हो वही
मैं भी वही
कलकल बहता
बीच हमारे
स्नेह-सोता वही
प्रदूषित करने की मंशा से
पाक जल को
यूं ही आते-जाते हैं
कंकड़
नहीं कर पाते पर मलिन
अंतर उसका !
निर्लिप्त सभी विकारों से
अविचल बहती स्नेह-धारा
पा ही लेती है अंततः
महाविश्राम
लग ह्रदय-तल से
अपने प्रेमोदधि के !
-सीमा अग्रवाल
-सीमा अग्रवाल
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