जब हृदय निज देखती हूँ।
बस तुम्हें ही देखती हूँ।
शीत की ठंडी लहर में,
हो उतरते ताप से तुम।
जम गए जो भाव उनमें,
लग रहो हो भाप से तुम।
गुनगुनी इस धूप में मैं,
प्राण शीतल सेकती हूँ।
लाँघता हर कामना की,
आज जर्जर देहरी मन।
भावनाएँ पूत सारी,
कर चला तुमको समर्पन।
आज बाँहों को तुम्हारी,
प्राण घायल सौंपती हूँ।
प्यास जीवन की मिटी अब,
भर गए मनकूप सारे।
तिर रहे हैं नैन में बस,
मनलुभावन रूप प्यारे।
अब झुकी दर पर तुम्हारे,
माथ अपना टेकती हूँ।
प्यार जो हमने किया था,
क्या किसी को प्यार होगा ?
प्यार की इस श्रंखला का,
कौन अब हकदार होगा ?
लद गए हा ! दिन सुखद वो
ताल गम की ठोकती हूँ।
मैं खिली सूरजमुखी सी,
ज्येष्ठ का जब सूर्य थे तुम।
काम को मन पर मिली जो,
उस विजय का तूर्य थे तुम।
क्या समय था क्या हुआ अब,
शांत बैठी सोचती हूँ।
बस तुम्हें ही देखती हूँ।
जब स्वयं को देखती हूँ।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
No comments:
Post a Comment