मन चला प्रभु की शरण में...
शुद्धता भर आचरण में।
मन चला प्रभु की शरण में।
होम कर सब कामनाएँ,
सिर झुका उसके चरण में।
ओsम का स्वर गूँजता बस,
घोलता सा रस श्रवण में।
गंध तिरती है अगरु की,
वायु के मृदु संचरण में।
भोर रक्तिम झाँकती है,
रात के अंतिम चरण में।
दिव्यता का भाव ही बस,
भर रहा अंतः करण में।
भाव से रहता विमुख जो,
दोष ढूँढे व्याकरण में।
है पृथक् सबकी महत्ता,
कार्य - कर्ता या करण में।
ले अ'सीमा'नंद जग के,
रह सचेतन जागरण में।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ. प्र. )
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