सघन गहन अँधियार सा, रूप विकट विकराल।
घन बिच बिजुरी सी लसे, गल विद्युत की माल।।
काला है माँ का बदन, काले बिखरे बाल।
दुष्टों के हित धारतीं, काल रूप विकराल।।
श्यामल है माँ का बदन, कालरात्रि है नाम।
दुष्टों का संहार कर, पहुँचाती निज धाम।।
खल-दल का मर्दन करें, कालरात्रि बन काल।
भय निकालने भक्त का, धरें रूप विकराल।।
लपट आग की नाक से, निकल रही अविराम।
गर्दभ वाहन मातु का, त्रिपुर भैरवी नाम।।
रूप भयंकर काल सा, देतीं शुभता दान।
वरद हस्त रख शीश पर, करतीं अभय प्रदान।।
माता के मन को रुचे, मालपुए का भोग।
भोग लगाए जो इन्हें, हर लें उसके रोग।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह " किंजल्किनी" से
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फोटो गूगल से साभार
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