छाया दी जिस वृक्ष ने, पोसा देकर अन्न।
आज उसी को काटता, मानव बड़ा कृतघ्न।।
चिड़िया बैठी सोच में, तिनका-तिनका जोड़।
रचूँ नीड़ किस वृक्ष पर, कब मानव दे तोड़।।
बंदर बेघर हो रहे, छिने ठिकाने-ठौर।
जाएँ तो जाएँ कहाँ, कौन करे ये गौर।।
छीन रहे हम स्वार्थ-वश, वन्य-जीव आवास।
पशु-पक्षी बेघर हुए, झेल रहे संत्रास।।
नीड़-माँद उजड़े सभी, बिखरे तिनका-पात।
खग-मृग मन-मन कोसते, क्या मानव की जात।।
पादप सत के रोपिए, पनपे अंतस - बोध।
अहं भाव को रोकिए, बस इतना अनुरोध।।
मिले फसल मनभावनी, बिरबे ऐसे रोप।
फल आशा-अनुरूप हो, झलके आनन ओप।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'किंजल्किनी' से
फोटो गूगल से साभार
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