रहता जल में ज्यों कमल, रहे जगत में राम।
माया से निर्लिप्त थे, मायापति सुखधाम।।१।।
काँजी की इक बूँद से, फटते नहीं समुद्र।
मान न घटता राम का, कह लें कुछ भी क्षुद्र।।२।।
अद्भुत संयम शील है, नहीं आप सा अन्य।
चरण-आचरण आपके, करें जगत को धन्य।।३।।
मिले चरण-रज आपकी, धन्य बना लूँ प्राण।
जग के माया-जाल से, मिले तनिक तो त्राण।।४।।
वह भी उतना दुष्ट है, करे दुष्ट का पक्ष।
अनुयायी अन्याय का, अन्यायी समकक्ष।।५।।
बाधक होते लक्ष्य में, कायरता- अविवेक।
सोच-समझ जो डग भरे, पाता मंजिल नेक।।६।।
सहिष्णुता-संयम-दया, सेवा-प्रेम-विवेक।
करुणा-नय-औदार्य-सत्, गढ़ें धर्मपथ नेक।।७।।
बनते काम बिगाड़ती, देती मन को खीज।
ऐन वक्त पर ऐंठती, किस्मत भी क्या चीज।।८।।
सबकी तुलना में जिसे, समझा सबसे खास।
घात लगा विश्वास में, सौंप गया संत्रास।।९।।
कोख हरी भू की करे, डाल बीज में जान।
परहित जीवन वार दे, घन सा कौन महान ?।।१०।
उजड़े उपवन-क्यारियाँ, बिगड़ा प्राकृत रूप।
पोषक भी शोषक हुए, अम्ल उगलती धूप।।११।।
धूलि-कणों से बिद्ध हो, पौन सोचती मौन।
गंगा भी मैली जहाँ, धुला दूध का कौन ?१२।।
अपने पर आयी बला, रहे और पर डाल।
चूल्हे पर पर के चढ़ा, गला रहे निज दाल।।१३।।
समझ हमें सब आ गया, कितने हो तुम घाघ।
अगन भरे हो जेठ से, बस दिखने के माघ।।१४।।
शिक्षा को समझो नहीं, दाल-भात का कौर।
चने चबाए लौह के, मिले उसे ही ठौर।।१५।।
रोजगार सबको मिले, रहे आत्म सम्मान।
बनें आत्मनिर्भर सभी, हो अपनी पहचान।।१६।।
प्रो. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
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