प्रकाशनार्थ
मुक्तक- विधाता छंद
जपूँ नित राम मैं मन में, बसे बस राम हैं मन में। नहीं कुछ कामना मन में, दिखें बस राम कन-कन में।
न कोई आस अब बाकी, न कोई प्यास अब बाकी,
सगे बस राम हैं जग में, रमे बस राम हैं मन में।१।
करूँ मैं क्या प्रभो अर्पण, नहीं कुछ भी यहाँ मेरा।
मिला है जो मुझे जग में, सभी कुछ तो दिया तेरा।
करूँ तेरा तुझे अर्पण, कहाँ इसमें समर्पण है ?
शरण में लो मुझे अपनी, मिटे अज्ञान का घेरा।२।
नसीबों से मिली तुझको, बड़ी दुर्लभ मनुज काया।
लगा सत्कर्म में तन-मन, न पल भी व्यर्थ कर जाया।
सुअवसर है यही पगले, बना ले राम मय जीवन,
गलेगा ग्लानि में तन-मन, गया फिर वक्त कब आया।३।
न हो तुम यूँ दुखी साथी, बुरे दिन बीत जाएँगे।
भरे गम से लबालब भी, समंदर रीत जाएँगे।
रखो बस हौसला मन में, निराशा छोड़कर सारी,
मिलेगा न्याय हमको भी, समर हम जीत जाएँगे।४।
नचाती जग इशारे पर, अनूठी नाट्यशाला है।
सिखाती नित सबक सबको, गजब की पाठशाला है।
गलत हरकत किसी की भी, सहन कुदरत न कर पाती।
उछलता जो भरा मद में, निकल जाता दिवाला है।५।
© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )
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