Thursday, 8 December 2016

तुम आराध्य मैं एक पुजारिन.....

तुम आराध्य, मैं एक पुजारिन
तुम सौभाग्य, मैं एक अभागिन
तुम बिन अब मेरा ठौर कहाँ
तुम सा जग में कोई और कहाँ
दर तक तुम्हारे आ न सकी तो
एक झलक तुम्हारी पा न सकी तो
तड़पूँगी जनम- जनम

आस मिलन की छूटी जिस दिन
अलविदा कह जग को उस दिन
फिर- फिर जन्मूँगी, तुम्हें खोजूँगी
बीज नेह के मन में रोपूँगी
फिर भी तुमको पा न सकी तो
करीब तुम्हारे आ न सकी तो
भटकूँगी जनम- जनम

रहे सनातन अब ये जोड़ी
तुम रहो चंदा मैं बनूँ चकोरी
रोशन करोगे जब तुम जग सारा
मेरे मन का भी धुलेगा अंधियारा
मधुर स्मित की बलवती आस लिए
नजरों में अनबुझी इक प्यास लिए
निहारूँगी जनम- जनम

चाहे दुनिया कितनी बात बनाए
चाहे मुझ पर सौ इल्जाम लगाए
चाहे तुम मुँह मोड़ लो मुझसे
चाहे हर नाता तोड़ लो मुझसे
चाहा है तुम्हें तो चाहती रहूंगी
चाहे मुँह से कुछ ना कहूँगी
इस धरती पर मैं रीत नेह की
निभाऊँगी जनम- जनम

सावन- सी घिर- घिर आऊंगी
बदली- सी बरसकर मिट जाऊंगी
जलकण खींच मन- वारिधि से
नेह- घट अंखियों से छलकाऊंगी
ढूँढोगे मेरा पता तुम जब तक
ले लूँगी विदा मैं जग से तब तक
यूँ आँख- मिचौनी मैं संग तुम्हारे
खेलूँगी जनम- जनम

- सीमा

Tuesday, 29 November 2016

आशा : एक चिराग

हर बार बना महल
सपनों का, ढह गया
खण्डहर में पर
एक चिराग जलता रह गया
आया झंझावात
जमकर वज्रपात हुआ
कोमल, नाजुक जज्बातों पर
विकट तुषारापात हुआ
ध्वस्त हो गयीं सब दीवारें
ऐसा प्रबल आघात हुआ
हुए अनगिन प्रहार
पर हार ना मानी उसने
फिर से उठने, संवरने की
हठ मन में ठानी उसने
एक- एक कर हुए तिरोहित
भाव सब जख्मी मन के
पिरोता रहा पर वह
मन ही मन
आशाओं के मन भर मनके
जलता रहा अकेले
सेंकता रहा हाथ
अपने ही अरमानों की
धधकती चिता पर
हर सुख जिसका
पलक झपकते पल भर में
साथ अश्कों के बह गया ।

- सीमा
२९-११-२०१६

अपना अपना सब खाते हैं .....

अपना- अपना सब खाते हैं !
कुछ सूखा कुछ तर खाते हैं !

नसीब न जिन्हें दो जून की रोटी
आँसू पीते और गम खाते हैं !

हिंसक पशु भी उनसे अच्छे हैं
मासूमों पर जो कहर ढाते हैं !

खुदा की नजर से बच न सकेंगे
जुल्मी यहाँ जो बच जाते हैं !

नेक नीयत होती है जिनकी
वे दिल में गहरे उतर जाते हैं !

कैसे यकीं करे कोई उन पर
करके वादे जो मुकर जाते हैं !

क्या खुशी देंगे वे किसी को
पर खुशी देख जो जल जाते हैं !

देश न उन्हें कभी माफ करेगा
जिनके विदेशों में खाते हैं !

चुप कर 'सीमा' बोल ना ज्यादा
सच को यहाँ सब झुठलाते हैं !

- सीमा

Friday, 25 November 2016

वर्ण- पिरामिड

वर्ण- पिरामिड

रे   -१
मन   -२
नादान   -३
होश में आ  -४
बात ले मान   -५
होगा एहसान   -६
मुझ पर ये तेरा   -७
क्यूँ आस करे उसकी   -८
कभी हो न सके जो तेरा   -९
ना थका यूँ आँखें तू अपनी   -१०
तक अनथक राह उसकी   -११
नहीं कद्र उसे जब तेरी   -१०
क्यूँ तू उसकी चाह करे   -९
ना कर पीछा उसका   -८
आ लौट आ पगले   -७
लौटा ले कदम   -६
मंजिल नहीं   -५
वह तेरी   -४
मायूस   -३
ना हो   -२
रे   -१

- सीमा
२५- ११- २०१६

Wednesday, 23 November 2016

मिलता ना कभी क्यूँ मनचाहा ---

चाहे कितना प्यार लुटा दो किसी पर
जब जरुरत हो खुद को, नहीं मिलता
यूँ तो बहुत कुछ मिल जाता बिन माँगे
मगर मन चाहे जिस को, नहीं मिलता
- सीमा

Monday, 21 November 2016

मेरी कलम से ---

ये मौहब्बत ही तो है, जो धड़कती है आज भी सीने में
वरना सांसें तो हमारी भी कब की थम गयी होतीं !

"अर्थ मौहब्बत का- बस देते जाना" कहा था उसने
बस इसीलिए हमने पलटकर कभी कोई चाह न की !

- सीमा

Monday, 14 November 2016

मेरा तुम्हारा प्रेम सनातन---

निखर-निखर जाए रूप मेरा
मिले मुझे जो प्यार तुम्हारा
तुम्हीं तो हो श्रंगार प्रिय मेरा
तुम पर मैंने तन- मन वारा

वजूद नहीं था मेरा कोई
ना ही कोई रूप था मेरा
मैं धी एक लोंदा माटी का
तुमने ही तो मुझे संवारा

निरख तुम्हारी छवि दूर से
कली दिल की खिल जाए
रवि-कमलिनी,चाँद-कुमुदिनी
सा अनन्य है प्रेम हमारा

तुम जब चंदा बनकर आते
मैं मुग्धा चकोरी हो जाती
बिंब तुम्हारा कल्पित कर
झपट चुग लेती मैं अंगारा

जब तुम बरसते बादल से
मैं चातकी प्यासी हो जाती
बुझती तृषा युगों- युगों की
पी निर्मल स्नेह- जल धारा

मेरा तुम्हारा प्रेम सनातन
मैं हूँ राधा, तुम हो मोहन
रहें अभिन्न हम एक दूजे से
लाख उलाहनें दे जग सारा

- सीमा
१५/११/२०१६

Thursday, 10 November 2016

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे ---

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे
कैसे हँसी लबों पर लाऊँ !
सच्चाई पे परदा डाल दूँ  कैसे
भाग्य को कैसे झुठलाऊँ !

हँसी- ठिठोली करूँ गर कोई
वो भी किसी के मन ना भाए
सिमट रहूँ गर अपने तक ही
तो भी तो जग ये बात बनाए
               दरक रहा कुछ मन के भीतर
               पर कतरे ये किसको दिखलाऊँ !

चिरसंगिनी है उदासी तो मेरी
भला जुदा हो कैसे मन से मेरे
कवच- कुंडल सी चिपकी है
जन्म से ही यह तो तन से मेरे
                मुखौटा पहन खुशी का पल भर
                कैसे इससे अपनी नजर चुराऊँ !

हुई संध्या, तम सघन घिर आया
संदेश न कोई पर प्रिय का आया
पथराईं आँखें पथ जोहते-जोहते
साया भी उसका नजर ना आया
                तनहा बिलखते मन- प्राणों को
                कैसे समझाऊँ, कैसे बहलाऊँ !

गम ही लिखे जब भाग्य में मेरे
कैसे हँसी लबों पर लाऊँ !
सच्चाई पे परदा डाल दूँ  कैसे
भाग्य को कैसे झुठलाऊँ !

- स+ई+म+आ

Tuesday, 8 November 2016

कैसी विवशता आई

कैसी विवशता आई, खुल गयी भरी तिजोरी
पाई- पाई निकल गयी जोड़ी जो चोरी- चोरी
जोड़ी जो चोरी-चोरी, खुल गयी उसकी पोल
मोदी जी क्या समझेंगे, गाढ़ी कमाई का मोल
एक दिन की मोहलत दी न की व्यवस्था कैसी
दिखाते- छुपाते ना बने, आई विवशता कैसी !
- सीमा

Saturday, 5 November 2016

मुझे संग बचपन के जीने दो

जैसे जीती रही हूँ अब तक
मुझे बैसे ही अब भी जीने दो
ख्बाब दिखाकर खुशियों के
तिल- तिल न मुझे यूँ मरने दो

ना छलकाओ प्रेम का आसव
ना ये अमृत-कलश ढुलकाओ
रहने दो प्रभुवर करुणा अपनी
मुझे गरल ही गमों का पीने दो

नहीं कामना करूँ अब सुख की
दुख ही अंतरंग संबंधी अब मेरे
बार- बार सीवन उधड़े जिनकी
वे जख्म ही फिर- फिर सीने दो

आसमां छूने की ललक में मैंने
प्रगति के नित नव सोपान चढ़े
बड़प्पन में पर सुख नहीं कोई
मुझे बचपन के संग ही जीने दो

- सीमा

Thursday, 27 October 2016

तुम आराध्य मैं एक पुजारिन

तुम आराध्य, मैं एक पुजारिन
तुम ममभाग्य,मैं एक अभागिन
तुम बिन अब मेरा ठौर कहाँ
तुम सा जग में कोई और कहाँ
दर तक तुम्हारे आ न सकी तो
एक झलक तुम्हारी पा न सकी तो
तड़पूँगी जनम- जनम

आस मिलन की छूटी जिस दिन
अलविदा कह जग को उस दिन
फिर- फिर जन्मूँगी, तुम्हें खोजूँगी
बीज नेह के मन में रोपूँगी
फिर भी तुमको पा न सकी तो
करीब तुम्हारे आ न सकी तो
भटकूँगी जनम- जनम

रहे सनातन अब ये जोड़ी
तुम रहो चंदा मैं बनूँ चकोरी
रोशन करोगे जब तुम जग सारा
मेरे मन का भी धुलेगा अंधियारा
मधुर स्मित की बलवती आस लिए
नजरों में अनबुझी इक प्यास लिए
निहारूँगी जनम- जनम

- सीमा
२७.१०.२०१६

Saturday, 15 October 2016

तुम चाँद बने, मैं निशा बनी

तुम चाँद बने, मैं निशा बनी

लो फिर आई
शरद की पूरनमासी
विगसा चाँद गगन में
सोलह कलाएँ धारे
देखो, कैसा दिप रहा कलाधर
आसमां निरभ्र
धवल चाँदनी छिटकी
नहा जुन्हाई में
गुराई निशा
निखरा अंग- अंग
गर्वीली नार- सी
मदमाती उन्मादिनी
नतनयना, कुसुमित यौवना
निहार छवि प्रिय की मनमोहिनी
फूली ना समाती यामिनी

दमक उठा तन- मन
दिन भर के आतप से
संवलाई निशा का
सद्यस्नाता, दुग्ध- धवल
तारों जड़ित
रुपहले परिधान सजी
चहक रही अब कैसे बाबरी
रिझाने चली प्रिय को
ओढ़े दुकुल रत्न- खचित चाँदनी
श्वेताभिसारिका मानिनी

याद करो प्रिय दिन वह
पहली बार
मिले थे जब हम तुम
बनी थी जब पहचान युगों की
यही चाँदनी बिखरी थी सर्वत्र
झर- झर अमृत झरता था
बाहुपाश में जकड़ निशा को
प्रेमोन्मत्त चाँद
लजाए आरक्त कपोलों पर उसके
अगणित चुंबन जड़ता था

युग बीते अब देखे तुम्हें
काश तुम भी आ जाते एक बार
जैसे उजली रात ये आई
धुल जाते गम मेरे
ताप शमित सब होते
सुधा सम
स्नेह- वर्षण से तुम्हारे
देखो तो रखी कबसे
आस-अटारी पे
पायस मन में संजोए भावों की,
अधूरे रहे ख्बाबों की !

याद आते रह-रह पल वो
कैसा सुहाना दृश्य था
दूर- दूर हम- तुम बैठे थे
प्रथम दर्शन था
प्रथम था परिचय
मन संकुचित, हिचक भरा
मूक अधर
कुछ न कहते बनता था
यदाकदा कभी मिल जातीं नजरें
कैसे शरमा जाते थे हम- तुम
निश्छल, नादानियाँ देख हमारी
आगोश में चंद्र के राका
मधुर हास बिखराती थी !

क्या ही अद्भुत पल था वह
मन संग जब इन्द्रियाँ सकल
उतावली हो
पाने को तुम्हारी एक झलक
नयनों के झरोखों से
निहारतीं प्रिय छवि उझक- उझक

फिर
नजरोें से नजरें सम्भाषण करतीं
रूप पान करतीं. न अघातीं
तन क्या मन भी वे छू आतीं
खुशबू तुम्हारी संग ले आतीं
हौले से तुम्हारे कानों में
चाह मन की अपने कह आतीं
यूँ दूरी से ही देख तुम्हें
दृश्य,श्रव्य,स्वाद स्पर्श,गंध
हर आत्मिक सुख पा जातीं

इसी तरह बस यूँ ही सनातन
मन से मन के तार जुड़े
क्या हुआ जो तन से तन ना मिले
समाए हैं एक दूजे में
अधूरे सदा एक दूजे बिन
तुम चाँद बने
मैं निशा बनी
यों अमर हमारी हुई कहानी
अब
जब- जब आए रुत ये सुहानी
चाँदनी मिस तुम उतर धरा पर
फिर- फिर मुझसे आन मिले.
शरद की निर्मल जोन्हाई में ज्यों
राधा से कृष्ण कन्हाई मिले !

- सीमा


Tuesday, 11 October 2016

ए चाँद मेरे

ए चाँद मेरे रुख कर ले इधर
तेरा मुख तो नजर आ जाए !
मैं भी चख लूँ सुखमय हाला
दो बूँद गर तू छलका जाए !

मुझे मिले जो तेरी चाँदनी
सुकूं मेरे मन को आ जाए !
एक किरन निसृत हो तुझसे
सूने अंक में आ समा जाए !

- सीमा

Friday, 23 September 2016

उपहास

जब- जब आँख से मेरी एक आँसू छलकता है
दुनिया की आँखों में कहीं उपहास झलकता है
समझाती हूँ मन को ना हुआ कर पागल इतना
वो भी हो गया है जिद्दी कहाँ मेरी सुना करता है
- सीमा

Thursday, 22 September 2016

मगरूर बहुत होती हैं खुशियाँ

मगरूर बहुत होती हैं खुशियाँ
पहुँच से दूर बहूत होती हैं खुशियाँ

आगा पीछा कुछ देख ना पातीं
नशे में चूर बहुत होती हैं खुशियाँ

गम तो लगते औबदरंग औ बेनूर
कोहिनूर मगर लगती हैं खुशियाँ

गम तो लपक के गले लग जाते
दूर खड़ी तरसाती हैं खुशियाँ

गम तो मुश्किल से साथ छुड़ाते
पल में छिटक जातीं हैं खुशियाँ

गमों का कोई नाज ना नखरा
कितने नाच नचातीं हैं खुशियाँ

खुद ब खुद गम आकर मिल जाते
माँगे से नहीं मिलती हैं खुशियाँ

गम ही सहलाते दुखती रग जब
मिलते मिलते रह जाती हैंं खुशियाँ

हमें तो बस अपने गम ही प्यारे
जरा भी रास नहीं आती हैं खुशियाँ

- सीमा
22/09/2016

Sunday, 11 September 2016

मुझे याद तुम्हारी आती है

बदली जब नभ में छाती है
धरा झूम- झूम इठलाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

स्वाति की एक बूंद बरस जब
चातक की प्यास बुझाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

चन्द्रिका चाँद की चकोरी को
धवल ओढ़नी उढ़ा जब जाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

मधुर स्पर्श पा रवि-करों का
कमलिनी जब खिल खिल जाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

खो जाती हूँ जब ऐसे खयालों में
खुद की भी सुध ना आती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

बेबस, तनहा पाकर जब मुझको
परछांई भी मेरी डराती है
मुझे नींद जरा ना आती है

खोई खोई सूनी अँखियों में मेरी
अश्रु-धार उमड़ तब आती है
मुझे याद तुम्हारी आती है

आँखों में अनगिन ख्वाब लिए
यूँ ही रात गुजर तब जाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है
              
                बहुत याद तुम्हारी आती है

- सीमा

Saturday, 6 August 2016

सौदागर सपनों का

रात ख्वाब में आया मेरे एक सौदागर सपनों का
कितने ख्वाब दिखा गया मुझको वो सौदागर सपनों का

मैंने पूछा- मोल है क्या ?
वह बोला- कोई मोल नहीं
जितना जी चाहे देखो इन्हें
कोई हिसाब कोई तोल नहीं
भर गया आँखों में सपने अनगिन वो सौदागर सपनों का

बोला- यूं शरमाओ ना
पास तो मेरे आओ ना
स्पर्श कर मन-आँखों से
तासीर इनकी बताओ ना
भोली अदा से लुभा गया मुझको वो सौदागर सपनों का

चाँद सा उजला  उसका रूप
आ रही थी छनकर मीठी धूप
थिरकता मुख पर मृदुल हास
किरनें करती थीं अद्भुत लास
स्नेह-डोर से बाँध गया मुझको वो सौदागर सपनों का
रात ख्वाब में आया मेरे एक सौदागर सपनों का

- सीमा

Thursday, 28 July 2016

साथ तुम्हारा गर किस्मत से पाती---

साथ तुम्हारा गर किस्मत से पाती
फूली ना समाती, कितना इतराती !

गुमां होता मुझे भी भाग्य पे अपने
झूमती, गाती, मदमाती, इठलाती !

भर आँखों में मादक सपन सुहाने
राह में तुम्हारी पलकें मैं बिछाती !

जो जो तुम कहते वही मैं बनाती
चाव से फिर सब तुम्हें खिलाती !

तृषित थकित तन-मन पे तुम्हारे
बदली बन- बन बरस मैं जाती !

जो बाँहों में अपनी मुझे तुम लेते
सच लाज से दोहरी मैं हो जाती !

मिल जातीं जब जब नजरें तुमसे
शरमा के तुमसे लिपट मैं जाती !

जो अधरों पे मेरे अधर तुम रखते
विचुम्बित कंपित सिहर मैं जाती !

तुम संग सोती, तुम संग जगती
ढल कर तुममें तुम सी हो जाती !

तुम मेघ रूप बन छाते मुझ पर
बदली सी उमड़ बरस मैं जाती !

मिल दो तन एक जान हम होते
तुम मुझमय मैं तुममय हो जाती !

कोई पृथक् ना होती पहचान मेरी
बस नाम से तुम्हारे मैं जानी जाती !

रूठ जाते गर तुम तो तुम्हें मनाती
कभी मानिनी सी नखरे दिखाती !

छवि पान कर मैं कभी ना अघाती
तुम कान्हा तो मैं मीरा बन जाती !

रचते गीत एक दूजे पर हम दोनों
तुम सुर देते और मैं गुनगुनाती !

तुम अनुभूति मैं, अभिव्यक्ति तुम्हारी
तुम अजस्र प्रवाह मैं छंदोमय हो जाती !

बस कर 'सीमा' यूं ख्वाब ना देख
किस्मत ना सदा यूं साथ निभाती !

- सीमा

Monday, 25 July 2016

थका-थका सा चाँद ----

थका- थका सा चाँद एक दिन
कितने सागर लाँघ के एक दिन
कितने पर्वत फाँद के एक दिन
आ पहुँचा मेरे द्वार पे एक दिन

टुकुर- टुकुर वो झाँक रहा था
मन में जैसे कुछ आँक रहा था
कितना मधुर बोल था धीमा
रही ना मेरे अचरज की सीमा

भुला ना पाऊंगी वो पल छिन
आया घर मेरे चाँद जिस दिन

उफ कैसा मनोहर उसका रूप
आ रही थी छनकर मीठी धूप
दौड़ी मैं लपक कर उसकी ओर
लाज ने खींच ली मन की डोर

झूम उठी मैं खुशी से उस दिन
जी भर के देखा चाँद उस दिन

निकट उसे जब अपने पाया
प्यार छलक आँखों में आया
मैं उचकी कुछ उसे झुकाया 
फिर वो मुझमें आन समाया

रही ना बाकी प्यास उस दिन
घुली चाँदनी मन में उस दिन

प्यार से उसको अंक लगाया
लोरी गा गाकर उसे सुलाया
उसे सुलाए आँचल में अपने
देखती रही मैं अनगिन सपने

कुछ ना छुपाया मैंने उस दिन
कह दी मन की बात उस दिन

जल्दी ही तन्द्रा टूट गयी मेरी
किस्मत जाग के सो गयी मेरी
जाना जब ये ख्बाव था मेरा
घिर आया आँखों तले अंधेरा

पर ख्बाव ये पूरा होगा एक दिन
आएगा सचमुच चाँद एक दिन

- सीमा

Tuesday, 19 July 2016

उसको देखे बीते अरसे ---

अंखियाँ बरसें
सावन बरसे
फिर भी मनवा
प्यासा तरसे

नेह बरसता
आँगन जिसके
लौटे प्यासे
उसके दर से

याद सताए
वो ना आए
बिंध गया मन
मनसिज शर से

कैसे कह दूँ
मन की अपने
काँपूं थर- थर
जग के डर से

जाने कैसी
चली पुरवाई
खिसक गया सुख
मेरे कर से

रह ना पाते
इक पल जिस बिन
उसको देखे
बीते अरसे

- सीमा

Wednesday, 13 July 2016

ना जाने क्यूँ

वो हसरतें मन की
वो चाहतें
भोली,निश्छल,मासूम
तुम्हें देखने, बतियाने की
मधुर स्पर्श पाने की
हर्षातिरेक में बेसुध रोमांचित हो
तुमसे लिपट जाने की
मायूस हो
डरी- सहमी सी
जा दुबकी हैं आज
सुबकती हुई
मन के किसी
गहन अंधेरे कोने में
ना जाने क्यूँ !

वे ख्वाब मनोहर
जो बुन रही थीं आँखें
इस आस में
कि कभी तो मिलेगा
सुंदर सा आकार इन्हें
सार्थक होगा प्रयास
मन फूला ना समाएगा
आज हुए सब आहत
मिटने लगे यकायक
होने लगे
बदरंग धूमिल से
टप- टप झरते
अश्कों के मिल जाने से
ना जाने क्यूँ !

फिर लिपट गई है
वजूद से
गहन उदासी
अमा की
मन पर
उतर आई पीतिमा
विलुप्त हुई ज्योत्सना
हुई मद्धम
रोशनी चाँद की
बदला चाँद
दिशा बदल
कहीं और
लुटाता है चाँदनी
ना जाने क्यूँ !

मानता नहीं मन
वो लुकाछिपी उसकी
वो अठखेलियाँ
वो करतब अनगिन
वो छवि मनहर
वो बयन स्नेह सिक्त
थे बस यूँ ही
क्यों विमोहित कर मुझे
बाँध गया यूं
मोह- पाश में अपने
क्यों रंग गया मन रंग में उसके
बीती यादों संग
आज नयन आते हैं भर- भर
ना जाने क्यूँ !

- सीमा

Tuesday, 5 July 2016

आ जाओ के रोजा इफ्तार कर लें ---

तकते हैं हम राह तुम्हारी आ जाओ के रोजा इफ्तार कर लें
जी भर के चाँद का अपने आज तो हम भी दीदार कर लें

ये लम्बी दूरी मीलों तक की सही ना जाती अब हमसे
आओ जो तुम एक बार उम्र भर को तुम्हें गिरफ्तार कर लें

- सीमा

Thursday, 23 June 2016

पाहुन तुम दिल में आए हो ---

पाहुन ! तुम दिल में आए हो,
रव का दिया वरदान बनकर !
मन-मंदिर में बसे हुए हो,
आज तुम्ही भगवान बनकर !

पहली बार नजर जब आए,
चुपके से आ दिल पर छाए,
मेरे लवों पर थिरक रहे हो,
आज तुम्ही मुस्कान बनकर !

जुड़ा है तुमसे अद्भुत नाता,
अब न कोई तुम बिन भाता,
आन छुपे हो , दिल में मेरे
सबसे हसीन अरमां बनकर !

ये जग शातिर बड़ा लुटेरा,
डाले रहता हर पल डेरा,
इस मंदिर का देतीं पहरा,
साँसें मेरी दरबान बनकर !

वरना क्या हस्ती थी मेरी,
वीरान पड़ी बस्ती थी मेरी,
आईं बहारें मेरे दर तक,
कुदरत का फरमान बनकर !

अब न मुझसे नजर चुराना,
कभी न अपना साथ छुड़ाना,
रह जाएगा बुत ये मेरा,
तुम बिन तो बेजान बनकर  !

सिर्फ तुम्हें ही मन ने पूजा
तुम सा कोई और ना दूजा
जनम जनम के मीत, मन में
रहो ना यूँ मेहमान बनकर !

पाहुन ! तुम दिल में आए हो,
रव का दिया वरदान बनकर !
मन-मंदिर में बसे हुए हो,
आज तुम्ही भगवान बनकर !

-सीमा अग्रवाल

Sunday, 29 May 2016

ए चाँद रात भर कहाँ विरमाए-----

कितना पुकारा
तुम नही आए !
ए चाँद रातभर
कहाँ विरमाए !

जीती हूँ मैं तो
देख तुम्हें ही
तुम बिन कैसे
नींद आ जाए !

नीरव रजनी
सोई है जगती
तनहाई मेरी
मुझे ही डराए !

इतनी दूर बस
रहो तुम प्यारे
धवल चाँदनी
मुझ तक आए !

निशाकंत तुम
कलावंत तुम
रूप तुम्हारा
मन को लुभाए !

मिट जाए अगन
थकन भी सारी
आगोश में अपने
जो मुझे सुलाए !

जितना जग से
मिलता हलाहल
उतना संजीवन
मन तुझसे पाए !

विचरो स्वच्छंद
नील निलय में
तुम पर ना कोई
बादल मंडराए !

छलकें जो बूँदें
सुधारस भीनी
पलकें झपें मेरी
नींद आ जाए !

- सीमा

Sunday, 22 May 2016

तुम प्रतिमा शब्दों की मेरे ----

तुम प्रतिमा शब्दों की मेरे
भावों का मेरे आलम्बन !
तुम मेरी लघुता की गरिमा
जड़ता का मेरी स्पंदन !

अब मैं तुमसे दूर कहाँ
मन से मन के तार जुड़े
पग बढ़ें जिधर भी मेरे
मन ये तुम्हारी ओर मुड़े

चाह रही ना कोई बाकी
मिला तुम्हारा अवलंबन !

सांध्य गगन में जीवन के
चाँद से नजर तुम आए
पाकर मन की शीतलता
मेरा रोम- रोम हरषाए

सरकने लगा है धीरे धीरे
ख्वाबों से मेरे अवगुंठन !

तुम आदर्श मेरे जीवन के
सृजन का आधार हो तुम
दूर रहो तुम चाहे जितना
मन में सदा साकार हो तुम

मेरे उच्छृंखल प्राणों का
हो तुम्हीं मर्यादित बंधन !

बीन- सी स्वर लहरी सुन
होता विकल मन का हिरन
निरख छवि घनश्याम-सी
मन- मयूर करता है नर्तन

झंकृत हो उठता तार-तार
है कैसा अद्भुत ये आकर्षन !

- सीमा

Saturday, 21 May 2016

मैं तुम पर कोई गीत लिखूं----

मन कर रहा आज ये मेरा
मैं तुम पर कोई गीत लिखूँ
तुम ही बता दो, नाम तुम्हारा
चितचोर लिखूँ, मनमीत लिखूँ !

कैसा व्यापार लगाया मैंने
क्या खोया क्या पाया मैंने
जान सके न मन ये बाबरा
हार लिखूँ या जीत लिखूँ !

प्यार से अपने मुझे सँवारा
बदल दी मेरी जीवन- धारा
है रोम- रोम स्पन्दित जिससे
वो जीवन का संगीत लिखूँ !

जब से तुम जीवन में आए
मन ने कितने ख्वाब सजाए
कितनी अनोखी, कितनी प्यारी
तुम संग अपनी प्रीत लिखूँ !

कभी क्रोध में गरजे मुझ पर
कभी अभ्र से बरसे मुझ पर
समझ ना आए तासीर तुम्हारी
उष्ण लिखूँ या शीत लिखूँ !

मन कर रहा आज ये मेरा
मैं तुम पर कोई गीत लिखूँ !
तुम ही बता दो, नाम तुम्हारा
चितचोर लिखूँ, मनमीत लिखूँ !

-सीमा

Friday, 20 May 2016

रिदय के कोरे पृष्ठों पर आज मैं ------

रिदय के कोरे पृष्ठों पर आज मैं
मन की अपने हर बात लिख दूँ

लिख दूँ खुद को जनम की प्यासी
तुमको रिमझिम बरसात लिख दूँ

रह- रह जो बनते- बिगड़ते मन में
चुन- चुन वो सारे जज्बात लिख दूँ

लिख दूँ तुम्हें मैं विभा शशधर की
खुद को चकोरी साँवल गात लिख दूँ

लिख दूँ तुम्हें मैं चितचोर कन्हैया
खुद को ग्वालन एक अज्ञात लिख दूँ

लिख दूँ तुम्हें अरुणिमा दिनकर की
खुद को विकसता जलजात लिख दूँ

मैं तो सीमा- बद्ध क्षणिक एक बंधन
तुम्हें अखिल विश्व में व्याप्त लिख दूँ

- सीमा

Wednesday, 11 May 2016

ए मन ये क्या कर दिया तूने ---

मुझे ही मुझसे छीन लिया तूने !
ए मन ! ये क्या कर दिया तूने !

आँखों में मेरी अश्क भर दिए
अधरों को मेरे सी दिया तूने !

विवेक को भी तो बख्शा न मेरे
संज्ञा शून्य उसे कर दिया तूने !

उखाड़ के मुझको मेरी जमीं से
क्यूं चाह को पंख दे दिया तूने !

रहने ही देता मुझे सीमा में मेरी
असीम से क्यूँ मिला दिया तूने !

- सीमा

मधुर होते दुख के परिणाम---

मधुर होते दुःख के परिणाम
अंत होता उनका अभिराम
एक समय वह भी आता है
जब लेती है निशा विश्राम
        विकसता नवल रवि सुखधाम    
         मधुर होते दुःख के परिणाम !

अगर करें हम समुचित न्याय
तो रात नही दुःख का पर्याय
सुबह के स्वर्णिम पृष्ठों पर लिखती
झिलमिल सपनों का अध्याय
        हारती न कभी जीवन- संग्राम
        मधुर होते दुःख के परिणाम !

जब भी दुख जीवन में आए
सुख सारे लगने लगें पराए
धर धीरज कर्म निरत रहना
यही तो है जो भाग्य बनाए
        सुख-दुःख का चक्र चले अविराम
        मधुर होते दुःख के परिणाम !

जो पीड़ा से नजर ना चुराते
प्यार से उसको गले लगाते
सुख पाकर जो नहीं मदमाते
मिलते गम तो नही घबराते
        वे समदर्शी सुखी आठों याम
        मधुर होते दुःख के परिणाम !

- डॉ0 सीमा अग्रवाल

Monday, 9 May 2016

जाऊंगी तुमसे पहले ----

हर काम तुम ही क्यों करोगे मुझसे पहले
आई हूँ तुम्हारे बाद, जाऊंगी तुमसे पहले
- सीमा

कभी पास हों तो -----

सिर्फ कल्पना से मन कब तक बहले !
कभी पास हों तो, मन मन की कह ले !!

मिले रात को जो बाँहों का हार तुम्हारी !
दिन भर हर थकन मन हँसकर सह ले !!

तुम्हें सुला प्यार से खुद भी सो जाऊं !
जब जागूं तो देखूं तुम्हें मैं सबसे पहले !!

दिल की धड़कन, सांसों का स्पंदन तुम
तुम बिन जान कहो तन में कैसे रह ले !!

पाहुन आ पहुँचा है 'सीमा' दर पे तेरे !
अश्क पोंछ ले प्रेम- समन्दर में बह ले !!

- सीमा

Thursday, 21 April 2016

बस तुममें तुमको देखा है---

चाँद नहीं सूरज भी नहीं
बस तुममें तुमको देखा है !
सबसे अलग सबसे जुदा
बस हमने तुमको देखा है !

छल नहीं, कोई छद्म नहीं
अहं नहीं, कोई दंभ नहीं
स्नेहिल नजरों से मंद-मंद
मुस्कुराते तुमको देखा है !

धवल चंद्र सम रूप तुम्हारा
वृत्त ज्यों निर्मल जल की धारा
स्त्रवनों में मधुरिम बतियों का
रस ढुलकाते तुमको देखा है !

यूँ तो दूर बहुत तुम पास नही
मिलने की भी कोई आस नहीं
आँखें मूंद पर जब भी देखा
अपने दिल में तुमको देखा है !

लुकते, छिपते, ओझल होते
कभी शांत कभी चंचल होते
इंदु सम अपने मन-मानस में
अठखेली करते तुमको देखा है !

बहुमुखी प्रतिभा को धारे
अद्भुत मौलिक सृजन सहारे
कन- कन में इस जगती के
सुधा छलकाते तुमको देखा है !

- सीमा