Wednesday 13 July 2016

ना जाने क्यूँ

वो हसरतें मन की
वो चाहतें
भोली,निश्छल,मासूम
तुम्हें देखने, बतियाने की
मधुर स्पर्श पाने की
हर्षातिरेक में बेसुध रोमांचित हो
तुमसे लिपट जाने की
मायूस हो
डरी- सहमी सी
जा दुबकी हैं आज
सुबकती हुई
मन के किसी
गहन अंधेरे कोने में
ना जाने क्यूँ !

वे ख्वाब मनोहर
जो बुन रही थीं आँखें
इस आस में
कि कभी तो मिलेगा
सुंदर सा आकार इन्हें
सार्थक होगा प्रयास
मन फूला ना समाएगा
आज हुए सब आहत
मिटने लगे यकायक
होने लगे
बदरंग धूमिल से
टप- टप झरते
अश्कों के मिल जाने से
ना जाने क्यूँ !

फिर लिपट गई है
वजूद से
गहन उदासी
अमा की
मन पर
उतर आई पीतिमा
विलुप्त हुई ज्योत्सना
हुई मद्धम
रोशनी चाँद की
बदला चाँद
दिशा बदल
कहीं और
लुटाता है चाँदनी
ना जाने क्यूँ !

मानता नहीं मन
वो लुकाछिपी उसकी
वो अठखेलियाँ
वो करतब अनगिन
वो छवि मनहर
वो बयन स्नेह सिक्त
थे बस यूँ ही
क्यों विमोहित कर मुझे
बाँध गया यूं
मोह- पाश में अपने
क्यों रंग गया मन रंग में उसके
बीती यादों संग
आज नयन आते हैं भर- भर
ना जाने क्यूँ !

- सीमा

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