Friday 26 April 2024

बीजः एक असीम संभावना...

बीजः एक असीम संभावना----

उठ सके,
अध्यात्म के शिखर तक,
छुपी हैं ऐसी
अनंत संभावनाएँ,
मनुज में।
होती हैं,
हर बीज में ज्यों
वृक्ष बनने की।
जरुरत है बस
सम्यक् तैयारी की,
समुचित खुराक,
उचित पोषण, पल्लवन की।

बीज अल्प नहीं,
मूल है वह-
समूचे वृक्ष का।
बीज रूप है सृष्टा।
बीज को बीज की तरह ही
संजोए रखा
तो क्या नया किया तुमने ?
अरे १
उसे हवा, पानी, खाद दो।
नई रौशनी दो।
फैलने को क्षितिज सा विस्तार दो।
निर्बंध कर दो उसे।
उड़ने दो पंख पसार,
सुदूर गगन में।

बीज को
वृक्ष बनाना है अगर,
मोह बीज का,
छोड़ना होगा।
पूर्ण मानव की प्रतिष्ठा हित,
मोह शिशु का,
छोड़ना होगा।

बीज हैं हम सब।
लिए अनंत संभावनाएं
निज में।
करनी है यात्राएँ अनंत,
वृक्ष बनने तक।
फलने फूलने तक।
साकार होंगी तभी,
संभावनाएँ अनंत।

असीम बनने के लिए,
करना होगा निज को,
विलीन शून्य में।
निज को बड़ा नहीं बनाना,
विसर्जित करना है खुद को।
हटानी होगी खरपतवार-
क्रोध, ईर्ष्या, नफरत, शक, संदेह की।
हो निजत्व विसर्जित,
समष्टि में।
है यही धर्म,
सार्थकता जीवन की।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

साझा संग्रह 'सृजन संसार' में प्रकाशित



Thursday 25 April 2024

भय लगता है...

भय लगता है....

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

परंपराएँ युगों-युगों की,
त्याग भला दें कैसे ?
चिकनी नयी सड़क पर बोलो,
दौड़ें  सरपट  कैसे ?
हो जाएँगे चोटिल सचमुच,
फिसले और गिरे तो।
झूठे जग के बहलावों से,
भय लगता है।

बहे नदी -सा छलछल जीवन,
रौ में रहे रवानी।
पसर न जाए तलछट भीतर,
बुढ़ा न सके जवानी।
हलचल भी गर हुई कहीं तो,
गर्दा छितराएँगे।
ठहरे जल के तालाबों से,
भय लगता है।

चूर नशे में बहक रहे सब,
परवाह किसे किसकी ?
दिखे काम बनता जिससे भी,
बस वाह करें उसकी।
झूठ-कपट का डंका बजता,
भाव गिरे हैं सच के।
स्वार्थ-लोभ के फैलावों से,
भय लगता है।

भूल संस्कृति-सभ्यता अपनी,
पर के पीछे डोलें।
अपनी ही भाषा तज बच्चे,
हिंग्लिश-विंग्लिश बोलें।
घूम रहीं घर की कन्याएँ,
पहन फटी पतलूनें।
पश्चिम के इन भटकावों से,
भय लगता है।

आज कर रहे वादे कितने,
सिर्फ वोट की खातिर।
निरे मतलबी नेता सारे,
इनसे बड़ा न शातिर।
नाम बिगाड़ें इक दूजे का,
वार करें शब्दों से।
वाणी के इन बहकावों से,
भय लगता है।

गुजरे कल की बात करें क्या,
पग-पग पर थी उलझन।
मंजर था वह बड़ा भयावह,
दोजख जैसा जीवन।
वक्त बचा लाया कर्दम से,
वरना मर ही जाते।
गए समय के दुहरावों से,
भय लगता है।

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

लगने दो कुछ हवा बदन में...

लगने दो  कुछ  हवा  बदन में...

लगने दो  कुछ  हवा  बदन में।
निकल न जाएँ  प्राण घुटन में।

आज   रात    पाला   बरसेगा,
कुहर  घना  है  देख  गगन  में।

खोज रहा क्या सुख ये पगला,
रुक-रुक चलता चाँद गगन में।

आती  होगी   चीर  गगन  को,
किरन छुपी जो तमस गहन में।

लक्ष्य प्राप्ति हित पथिक अकेला,
चलता  जाता  दूर  विजन  में।

खुशी निराली  छायी- जब से
चाह उगी  है   मन-उपवन  में।

मद मत्सर औ स्वार्थ लिप्त हो,
झुलस रहा नर  द्वेष-अगन में।

बारिश की अब झड़ी लगेगी,
घिर  आए  हैं  मेघ  नयन में।

कतरा-कतरा   चीख रहा है,
भभक रही है आग बदन में।

अंतस सबका चीर रही है,
उफ ! कितनी है पीर कहन में।

जितने जन उतने मत 'सीमा',
बातें अनगिन भरीं जहन में।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

किस्मत का अपनी खाते हैं...

अपनी किस्मत का खाते हैं।
कुछ सूखा कुछ तर खाते हैं।  

जुड़े जिन्हें  दो जून  न रोटी,
आँसू  पीते,   गम  खाते हैं।

कितने भूखे  फुटपाथों  पर,
तड़प-तड़प कर मर जाते हैं।

हिंसक पशु भी उनसे अच्छे, 
कहर  दीन पर जो  ढाते हैं।

कर्म निरत नित जीव जगत के,
दाना-तिनका चुग लाते हैं।

नीयत शुद्ध साफ हो जिनकी,
घर हर दिल में कर जाते हैं।

जोश-लगन-जज्बा हो जिनमें,
स्वर्ग  धरा  पर  ले आते हैं। 

करें  भरोसा  कैसे उन पर,
वादों से जो  फिर  जाते हैं।

चुप कर 'सीमा' बोल न ज्यादा
सच्चाई   सब   झुठलाते  हैं। 

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

किस्मत भी कुछ भली नहीं है...

किस्मत भी कुछ  भली नहीं है।
कैसे कह दूँ        छली नहीं है।

दाल  किसी  की   आगे उसके,
देखी  हमने       गली  नहीं  है।

साथ  निभाती  झूठ  कपट का,
साँचे   सच  के  ढली  नहीं  है।

देती  पटकी      बड़े-बड़ों  को,
कोई  उस  सा   बली  नहीं  है।

स्वाद  कसैला  तीखा  उसका,
मिश्री की  वो    डली  नहीं है।

खूब  दिखाती   लटके-झटके,
घर  निर्धन के   पली  नहीं  है।

आग  उगलती     अंगारे  सी,
नाजुक  कोई   कली  नहीं है।

कितना पकड़ो हाथ न आती,
छोड़ी   कोई   गली  नहीं  है।

भली किसी की, बुरी किसी की,
साम्य-भाव  से  चली नहीं है।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

बादलों पर घर बनाया है किसी ने...

बादलों पर घर बनाया है किसी ने।
चाँद को फिर घर बुलाया है किसी ने।

भावना के द्वार जो गुमसुम खड़ा था,
गीत वो फिर गुनगुनाया है किसी ने।

आँधियों में उड़ गया जो खाक होकर,
नीड़ वो फिर से सजाया है किसी ने।

चीरकर गम-तम उजाले बीन लाया,
मौत को ठेंगा दिखाया है किसी ने।

चार दिन की चाँदनी कब तक छलेगी,
ले तुझे दर्पण दिखाया है किसी ने।

आजमाता जो रहा अब तक सभी को,
आज उसको आजमाया है किसी ने।

दोष सारे आ रहे अपने नजर अब,
आँख से परदा हटाया है किसी ने।

बिजलियाँ उस पर गिरी हैं आसमां से,
दिल किसी का जब दुखाया है किसी ने।

जुल्म अब होने नहीं देंगे कहीं हम,
आज ये बीड़ा उठाया है किसी ने।

गूँजता अब हर दिशा में नाम उसका,
काम ऐसा कर दिखाया है किसी ने।

आ रही 'सीमा' लहू की धार रिस कर,
देश हित फिर सिर कटाया है किसी ने।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद.( उ.प्र.)

सूर्य तम दलकर रहेगा...

सूर्य  तम  दलकर रहेगा।
हिम जमा गलकर रहेगा।

ज्ञान   से   अज्ञान   हरने,
दीप इक जल कर रहेगा।

लिप्त जो मिथ्याचरण में,
हाथ  वो मल कर  रहेगा।

कुलबुलाता नित नयन में
स्वप्न अब फल कर  रहेगा।

है फिसलती रेत जिसमें,
वक्त  वो टल  कर रहेगा।

तू दबा ले लाख मन में,
राज हर खुलकर रहेगा।

बोल कितने ही मधुर हों,
दुष्ट  तो  छल कर  रहेगा।

तू भला कर या बुरा कर,
कर्म हर फल कर रहेगा।

है धधकती आग जिसमें,
प्राण में  ढलकर रहेगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद.( उ.प्र.)

आज जब वाद सब सुलझने लगे...

आज जब वाद सब  सुलझने लगे।
बेवजह  आप  क्यों  उलझने लगे ?

शाख भी  फिर लचक  टूटने लगी,
फूल भी  जो खिले   मुरझने लगे।

था हमें  भी कभी   शौक ये मगर,
आप क्यों  आग से   खेलने लगे ?

रात भी जा रही क्षितिज पार अब,
चाँद - तारे   सभी   सिमटने  लगे।

दोष  मय का नहीं   होश गुल हुए,
पाँव  ये  आप  ही   बहकने  लगे।

फेर है वक्त का  अजब क्या कहें,
फूल भी आग   बन दहकने लगे।

सो रहे स्वप्न जो    रूठकर कभी,
आज फिर जी उठे  चहकने लगे।

क्या कहें क्या नहीं  सूझता न था,
वो  हमें   हम  उन्हें   देखने  लगे।

आ रही  बात सब समझ अब मुझे,
हादसे   रास्ते      बदलने    लगे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Thursday 18 April 2024

हँस जरा जो बोल दे तू...

हँस जरा जो बोल दे तू....

हँस जरा जो बोल दे तू,
बोल वो अमृत लगेगा।
दे जहर भी हाथ से फिर,
वो मुझे अमृत लगेगा।

झुरझुरी सी है बदन में,
देह ठंडी सी पड़ी है।
मौत ही यूँ लग रहा है,
सामने मेरे खड़ी है।
बोल मृदु दो बोल दे तू,
शब्द हर अमृत लगेगा।

लग रहा है आज जैसे,
खोल अपना खो रही हूँ।
प्राण तुझमें जा रहे हैं,
लय तुझी में हो रही हूँ।
आँख भर जो देख ले तू,
दृश्य वो अमृत लगेगा।

होंठ भिंचते जा रहे हैं।
बोल फँसते जा रहे हैं।
क्या कहूँ तुझसे अधिक अब,
पल सिमटते जा रहे हैं।
नेह-रस जो घोल दे तू,
आचमन अमृत लगेगा।

बैठ पल भर पास मेरे।
देख आँखों  के अँधेरे।
वत्स ! इनमें भर उजाला,
मिट चलें ये तम घनेरे।
पूर्ण अगर ये साध कर दे,
मौन भी अमृत लगेगा।

याद कर वो दिन तुझे जब
गोद में मैंने खिलाया।
बाँह का पलना बनाया,
थपकियाँ देकर सुलाया।
अंक में भर ले अगर तू,
क्षण मुझे अमृत लगेगा।

आँख जब तू फेरता है।
तम सघन मन घेरता है।
आ हलक तक प्राण मेरा ,
मौत ही तब हेरता है।
खुश नजर इस ओर कर ले,
देखना अमृत लगेगा।

मैं अकेली जब जगत में,
जीविका हित जूझती थी।
लौट जब आती, लपक कर-
बस तुझे ही चूमती थी।
आज कुछ तू ध्यान रख ले,
वक्त ये अमृत लगेगा।

हो रहा है तन शिथिल अब,
बढ़ रही है उम्र मेरी।
डगमगाते पाँव पग-पग,
माँगते हैं  टेक तेरी।
तू बने लाठी अगर तो,
ये सफर अमृत लगेगा।

फड़फड़ाती लौ दिए की,
फड़फड़ाते प्राण हैं यों।
काल हरने प्राण ही अब,
आ रहा इस ओर हो ज्यों।
मोह से निज मुक्त कर दे,
त्याग ये अमृत लगेगा।

हँस जरा कुछ बोल दे तू,
बोल हर अमृत लगेगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
'पल सुकून के' से

कभी लूडो कभी कैरम...

कभी लूडो कभी कैरम, कभी शतरंज से यारी।
कभी हो ताश की बाजी, सुडोकू भी लगे प्यारी।
कहीं लगता नहीं जब मन, इन्हीं से बस बहलता है,
हमें प्रिय खेल ये सारे, लगी है लत हमें भारी।

रखे हों पास में लड्डू, न ललचाए मगर रसना।
भले ही लार टपके पर, नहीं इक कौर भी चखना।
यही है पाठ संयम का, सदा कसना कसौटी पर,
नियंत्रण में परम सुख है, यही बस ध्यान तुम रखना।



© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Tuesday 16 April 2024

पर्वत और गिलहरी...

पर्वत और गिलहरी...

एक दिवस कुछ बहस छिड़ी,
पर्वत और गिलहरी में।
पर्वत विशाल था, बोला-
ए तुच्छ ! किस हेकड़ी में ?

बोली गिलहरी सच कहा,
निस्संदेह तुम्हीं बड़े हो।
स्थिर हो यूँ एक जगह,
क्यूँ अकड़े तने खड़े हो ?

राह मनोरम प्यारी-सी,
माना तुम्हीं बनाते हो।
हँसो और पर इस काबिल,
न इससे तुम हो जाते हो।

नहीं तुम्हारी-सी मैं तो,
तुम्हीं कहाँ मेरे से हो ?
मैं फुर्तीली चुस्त बड़ी,
तुम स्थिर बुत जैसे हो।

नहीं ग्लानि मुझको कोई,
अगर नहीं मैं तुम जैसी।
नहीं तनिक भी तो तुममें,
त्वरित सोच  मेरे जैसी।

सिर्फ एक के होने से,
जगत न बनता-मिटता है।
टर्र-टर्र से मेंढक की,
मौसम नहीं बदलता है।

एक अकेला चना कहो,
फोड़ कभी क्या भाड़ सके?
खड़ा मूढ़मति एक जगह,
आया जोखिम ताड़ सके ?

सबको सबसे अलग करें,
कौशल सबके जुदा-जुदा।
परख हुनर हर प्राणी के,
देता उन में बाँट खुदा।

खुश मैं लघुता में अपनी
होड़ न जग से करती हूँ।
स्वच्छंद विचरती हर सूं,
जरा न तुम से डरती हूँ।

तुच्छ बदन पर मैं अपने,
वन यदि लाद नहीं सकती।
नट ये तोड़ दिखा दो तुम,
अधिक विवाद नहीं करती।

काम बनाए सुईं जहाँ,
तलवार पड़ी रह जाए।
समझ सको ये मर्म अगर,
किस्सा यहीं सुलझ जाए।

नियत सभी की सीमाएँ,
नियत सभी के काम यहाँ।
रचयिता अपनी सृष्टि का,
देख रहा सब बैठ वहाँ।

और अधिक क्या जिरह करूँ
तुमसे मेरा जोड़ कहाँ ?
सच कहते हो भाई तुम,
मेरी तुमसे होड़ कहाँ ?

अपनी-अपनी कह दोनों,
करने अपना काम चले।
हम भी थककर चूर हुए,
करने अब आराम चले।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'पल सुकून के' से

(आंग्ल कवि Ralph Waldo Emerson की कविता 'The mountain and the squirrel' का मेरे द्वारा काव्यात्मक भावानुवाद)

Monday 8 April 2024

माता के नवरूप...

अद्भुत माँ की शक्तियाँ,  अद्भुत माँ के रूप।
दर्शन दो माँ भक्त को,       धारे रूप अनूप।।१।।

वर दो माँ सिंहवाहिनी,        टूटे हर जंजीर।
भव-बंधन से मुक्त कर, हर लो मन की पीर।।२।।

नौ दिन ये नवरात्र के,   मातृ शक्ति के नाम।
मातृ भक्ति से हों सदा, सिद्ध सभी के काम।।३।।

पूजो माता के चरन,   ध्या लो उन्नत भाल।
वरद हस्त माँ का उठे, हर ले दुख तत्काल।।४।।

रिपुओं से रक्षा करे,    बने भक्त की ढाल।
बरसे जब माँ की कृपा, कर दे मालामाल।।५।।

कलुष वृत्ति मन की हरें, माता के नव रूप।
भक्ति-शक्ति के जानिए,   मूर्तिमंत स्वरूप।।६।।

नारी का आदर करें,     रख मन में सद्भाव।
कारक बने विकास का, नर-नारी समभाव।।७।।

जगत-जननी माँ अंबे,   ले मेरी भी खैर।
मैं भी तेरा अंश हूँ, समझ न मुझको गैर।।८।।

भाव मधुर चुन चाव से, सजा रही दरबार।
मेरे घर भी अंबिके,  आना  अबकी  बार।।९।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
फोटो गूगल से साभार

Monday 1 April 2024

माहे रमजान...

हर बरकत दे आपको, पाक माह रमजान।
पथ पर नेकी के चलो, कहती है कुरआन।।१।।

रहमत का अशरा प्रथम, बरसे नूर शबाब।
हर नेकी का पाइए,      सत्तर गुना सवाब।।२।।

दूजा अशरा मगफिरत, देता यही सलाह।
तौबा करो गुनाह से, माफ करे अल्लाह।।३।।

दोज़ख से रक्षा करे, अशरा तीजा खास।
एतक़ाफ में बैठकर, करें ध्यान उपवास।।४।।

मदद मुस्तहिक़ की करें, आएँ उनके काम।
तन-मन-धन से साथ दें, करें न केवल नाम।।५।।

कुरान गीता बाइबिल, सार सभी का एक।
धर्म चुनो कोई मगर,  कर्म करो बस नेक।।६।।

पथ सच्चाई का वरो, करो न खोटे कर्म।
जात-पाँत सब व्यर्थ है, मानवता ही धर्म।।७।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
फोटो गूगल से साभार