अपनी किस्मत का खाते हैं।
कुछ सूखा कुछ तर खाते हैं।
जुड़े जिन्हें दो जून न रोटी,
आँसू पीते, गम खाते हैं।
कितने भूखे फुटपाथों पर,
तड़प-तड़प कर मर जाते हैं।
हिंसक पशु भी उनसे अच्छे,
कहर दीन पर जो ढाते हैं।
कर्म निरत नित जीव जगत के,
दाना-तिनका चुग लाते हैं।
नीयत शुद्ध साफ हो जिनकी,
घर हर दिल में कर जाते हैं।
जोश-लगन-जज्बा हो जिनमें,
स्वर्ग धरा पर ले आते हैं।
करें भरोसा कैसे उन पर,
वादों से जो फिर जाते हैं।
चुप कर 'सीमा' बोल न ज्यादा
सच्चाई सब झुठलाते हैं।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
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