Thursday 25 April 2024

भय लगता है...

भय लगता है....

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

परंपराएँ युगों-युगों की,
त्याग भला दें कैसे ?
चिकनी नयी सड़क पर बोलो,
दौड़ें  सरपट  कैसे ?
हो जाएँगे चोटिल सचमुच,
फिसले और गिरे तो।
झूठे जग के बहलावों से,
भय लगता है।

बहे नदी -सा छलछल जीवन,
रौ में रहे रवानी।
पसर न जाए तलछट भीतर,
बुढ़ा न सके जवानी।
हलचल भी गर हुई कहीं तो,
गर्दा छितराएँगे।
ठहरे जल के तालाबों से,
भय लगता है।

चूर नशे में बहक रहे सब,
परवाह किसे किसकी ?
दिखे काम बनता जिससे भी,
बस वाह करें उसकी।
झूठ-कपट का डंका बजता,
भाव गिरे हैं सच के।
स्वार्थ-लोभ के फैलावों से,
भय लगता है।

भूल संस्कृति-सभ्यता अपनी,
पर के पीछे डोलें।
अपनी ही भाषा तज बच्चे,
हिंग्लिश-विंग्लिश बोलें।
घूम रहीं घर की कन्याएँ,
पहन फटी पतलूनें।
पश्चिम के इन भटकावों से,
भय लगता है।

आज कर रहे वादे कितने,
सिर्फ वोट की खातिर।
निरे मतलबी नेता सारे,
इनसे बड़ा न शातिर।
नाम बिगाड़ें इक दूजे का,
वार करें शब्दों से।
वाणी के इन बहकावों से,
भय लगता है।

गुजरे कल की बात करें क्या,
पग-पग पर थी उलझन।
मंजर था वह बड़ा भयावह,
दोजख जैसा जीवन।
वक्त बचा लाया कर्दम से,
वरना मर ही जाते।
गए समय के दुहरावों से,
भय लगता है।

हुए अचानक बदलावों से,
भय लगता है।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

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