किस्मत भी कुछ भली नहीं है।
कैसे कह दूँ छली नहीं है।
दाल किसी की आगे उसके,
देखी हमने गली नहीं है।
साथ निभाती झूठ कपट का,
साँचे सच के ढली नहीं है।
देती पटकी बड़े-बड़ों को,
कोई उस सा बली नहीं है।
स्वाद कसैला तीखा उसका,
मिश्री की वो डली नहीं है।
खूब दिखाती लटके-झटके,
घर निर्धन के पली नहीं है।
आग उगलती अंगारे सी,
नाजुक कोई कली नहीं है।
कितना पकड़ो हाथ न आती,
छोड़ी कोई गली नहीं है।
भली किसी की, बुरी किसी की,
साम्य-भाव से चली नहीं है।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
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