Thursday 22 December 2022

NATIONAL MATHEMATICS DAY

घन-आयत या क्षेत्रफल, वर्ग एकड़ या वृत्त।
अंक-अंक में देख लो, जग सारा आवृत्त।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Saturday 17 December 2022

एक मुक्तक....

सुसंस्कृत सभ्य शालीना, सुघड़ सोंणी सजीली- सी।
सुरीली सात सुर साधे, शिवा-सी शुभ सहेली-सी।
सलोनी सौम्य-सी सूरत, सुपर्णा-सी सुघड़ताई,
सरलता सादगी सरसे, सहज सुखदा सुभागी- सी।
© डॉ.सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी
मुरादाबाद (उ.प्र.)
"भावों की रश्मियाँ" से

Monday 5 December 2022

गीत- अपनी गजब कहानी....

अपनी गजब कहानी...

मैं हूँ उसका राजा बाबू,
वो है मेरी रानी।
अपनी गजब कहानी।

उसकी खातिर सारे जग से,
नाता मैंने तोड़ा।
उसे खिलाता छप्पन व्यंजन,
पर खुद खाता थोड़ा।
बनी रही अंजान मगर वह,
कदर न मेरी जानी।
अपनी गजब कहानी...

बहुत प्रिया के नखरे देखे,
बहुतहिं करी चिरौरी।
उसे मनाने अल्मोड़ा से,
लाया ढूँढ सिंगौरी।
फूली कुप्पा बनी रही वह,
एक न मेरी मानी।
अपनी गजब कहानी...

कभी प्यार से कहती मुझसे,
सुन ओ मेरे राजा।
बिन तेरे मैं जी न सकूँगी,
रूठ के मुझसे न जा।
साथ-साथ बस हँसते-रोते,
हमको उम्र बितानी।
अपनी गजब कहानी...

रुनझुन-रुनझुन पायल उसकी,
गीत-गज़ल सब गाती।
रह जाता मैं देख ठगा-सा,
बात न मुँह तक आती।
आती जब-जब पास मिरे वो,
ओढ़ चुनरिया धानी।
अपनी गजब कहानी...

कभी प्यार से गले लगाती,
आँखें कभी दिखाती।
कहकर बुद्धू भोला मुझको,
कितने सबक सिखाती।
लगे नहीं रति से कमतर, जब
बातें करे रुमानी।
अपनी गजब कहानी...

सूनी उस बिन दिल की नगरी,
सूना ये घर-आँगन।
नेह-सिक्त आँचल बिन उसके,
बीते सूखा सावन।
हाथ में उसका हाथ रहे तो,
हर रुत लगे सुहानी।
अपनी गजब कहानी...

- © सीमा अग्रवाल

जिगर कॉलोनी

मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

काव्य संग्रह "सुरभित सृजन" से

Sunday 9 October 2022

Wednesday 14 September 2022

कॉलेज-गीत...

कॉलेज गीत
( गोकुलदास हिंदू गर्ल्स कॉलेज, मुरादाबाद )

महाविद्यालय बीच शहर के, गोकुलदास महान।
खड़ा अथक  सत्तर सालों से,  बाँट रहा है ज्ञान।
गुजराती परिवार धन्य वह, किया भूमि का दान,
जागी  महत्  चेतना  मन  में,  हो  नारी-उत्थान।

भव्य अनूठा परिसर इसका,
अति  अद्भुत    विन्यास।
गौरवशाली       परंपराएँ,
स्वर्ण-खचित   इतिहास।
दूर-दूर से कन्याएँ आ, अर्जित करतीं ज्ञान।
अहा कँगूरे ! उफ नक्काशी ! अद्भुत तना वितान।

गोकुलदास महान.......

बिन श्रद्धा के ज्ञान मिले ना, 
ज्ञान बिना क्या कर्म ?
सूक्त वाक्य में विद्यालय के,
गुँथा यही है मर्म।
श्रद्धा-भाव समाहित कर्म में, देता सच्चा ज्ञान।
सूत्र यही हो ज्ञानार्जन का, जीवन का उन्वान।

गोकुलदास महान.......

साहित्य-कला-विज्ञान-संस्कृति,
सामाजिक संकाय।
विषय-मर्मज्ञा शिक्षिकाएँ,
देतीं नित निज दाय।
पाठ्येतर गतिविधियों में भी, है अपनी पहचान।
उत्तरोत्तर  बढ़ती  जाए,    इसकी  गरिमा-शान।

गोकुलदास महान.......

छात्राएँ जो पढ़ीं यहाँ से,
करें देशहित काम।
विभिन्न पदों पर हो सुशोभित,
खूब कमातीं नाम।
पलट इतिहास 'गर हम देखें, मिलें ठोस प्रमान।
हम भी इसका  मान बढ़ाएँ, आओ लें ये आन।

गोकुलदास महान.......

तेज-पुंज से दीप्त बालिका,
घर-घर करे उजास।
पुष्पित हो हर ज्ञान-बल्लरी,
फैले सरस सुवास।
बैठ सदा  आँचल में  इसके, सपने भरें  उड़ान।
युगों-युगों तक रहे जुबां पर, महिमा गौरव गान।

गोकुलदास महान......

कर्म-पथ पर हम रहें अग्रसर,
चढ़ें प्रगति-सोपान।
जीवन-मूल्यों, आदर्शों के,
गढ़ें नवल प्रतिमान।
दिग्दिगंत परचम लहराए, गुंजित हो यशगान।
कृपा रहे माँ सरस्वती की, मिले दया का दान।

गोकुलदास महान.......

- © रचनाकार डॉ. सीमा अग्रवाल
एसो0 प्रो0 एवं प्रभारी हिंदी विभाग
गोकुलदास हिंदू गर्ल्स कॉलेज, मुरादाबाद
रचना-तिथि - 21/11/21

Sunday 11 September 2022

देख सिसकता भोला बचपन...

देख सिसकता भोला बचपन…

देख सिसकता भोला बचपन,
भारी बोझ तले।
क्या किस्मत है इन बच्चों की,
मन में सोच पले।

पूर्ण तृप्ति के एक कौर को,
कैसे तरस रहे।
सामने मालिक मूँछो वाले,
इन पर बरस रहे।
हल न कोई पीर का इनकी,
बेबस हाथ मले।

दिन पढ़ने-लिखने के, पर ये
कचरा बीन रहे।
जीवन पाकर भी मानव का,
भाग्य-विहीन रहे।
हौंस-हास-उल्लास बिना ही,
जीवन चला चले।

कोई खाए पिज्जा बर्गर,
कोई जूस पिए।
घूँट सब्र का पी रहे ये,
दोनों होंठ सिए।
छप्पन भोग भरी थाली का,
सपना रोज छले।

खिलने से पहले ही कोमल,
कलियाँ मसल रहे।
हाय कहें क्या अपने जन ही,
सपने कुचल रहे।
सुनी करुण जो गाथा इनकी
आँसू बह निकले।

कोई कहे मनहूस इनको,
कोई करमजला।
कौन कहे कैसे सँवरेगा,
इनका भाग्य भला।
विपदा जमकर बैठी ऐसे
टाले नहीं टले।

पाएँ वापस बचपन अपना,
मोद भरे उछलें।
मुक्त उड़ान भरें पंछी-सी,
कोमल पंख मिलें।
हासिल हों इनको भी खुशियाँ,
मेरी दुआ फले।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद
‘सुरभित सृजन’ से

Saturday 3 September 2022

कुछ दोहे...

मेरी भी प्रभु सुध धरो, छुपा न तुमसे हाल।
पीर गुनी जब भक्त की, दौड़ पड़े तत्काल।।१।।

समता उसके रूप की, मिले कहीं न अन्य।
निर्मल छवि मन आँककर, नैन हुए हैं धन्य।।२।।

दिल में उसकी याद है, आँखों में तस्वीर।
उलझे-उलझे ख्वाब की, कौन कहे ताबीर।।३।।

चाहे कितना हो सगा, देना नहीं उधार।
एक बार जो पड़ गयी, मिटती नहीं दरार।।४।।

पुष्पवाण साधे कभी, साधे कभी गुलेल।
हाथों में डोरी लिए, विधना खेले खेल।।५।।

प्रक्षालन नित कीजिए, चढ़े न मन पर मैल।
काबू में आता नहीं, अश्व अड़ा बिगड़ैल।।६।।

एक बराबर वक्त है, हम सबके ही पास।
कोई सोकर काटता, कोई करता खास।।७।।

कला काल से जुड़ करे, सार्थक जब संवाद।
कालजयी रचना बने, लिए सुघर बुनियाद।।८।।

मन से मन का मेल तो, भले कहीं हो देह।
प्यास पपीहे की बुझे, पीकर स्वाती-मेह।।९।।

बात-बात पर क्रोध से, बढ़ता मन-संताप।
वशीभूत प्रतिशोध के, करे अहित नर आप।।१०।।

क्षणभर का आवेग यह, देर तलक दे शोक।
भाव प्रबल प्रतिशोध का, किसी तरह भी रोक।।११।।

-© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )
“सुरभित सृजन” से

Friday 2 September 2022

माना तुम्हारे मुक़ाबिल नहीं मैं ...

माना तुम्हारे  मुक़ाबिल  नहीं मैं...

माना तुम्हारे  मुक़ाबिल  नहीं मैं।
पर इतनी भी नाक़ाबिल नहीं मैं।

खुद को खुदा, मूढ़ समझूँ और को,
कैसे भी इतनी ज़ाहिल नहीं मैं।

काम जो भी मिला तन-मन से किया,
कपट औ झूठ में शामिल नहीं मैं।

समझती हूँ चाल बेढब तुम्हारी,
होश पूरा मुझे, ग़ाफिल नहीं मैं।

सिर्फ दिखावे की हों बातें जहाँ,
महफिल में ऐसी दाखिल नहीं मैं।

औरों को चोट दे मिलती है जो
कर सकूँ खुशी वो हासिल नहीं मैं।

मुझको निरंतर चलते ही जाना,
दरिया हूँ बहता, साहिल नहीं मैं।

-© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
"मनके मेरे मन के" से

Saturday 13 August 2022

कर रहे शुभकामना...

कर रहे शुभकामना....

अमृत महोत्सव आजादी का, राष्ट्र की आराधना।
अखंड भारत देश रहे ये, कर रहे शुभकामना।

सबके सुख-दुख अपने सुख-सुख,
भाव मन में पुष्ट हो।
भेद-भाव की बात न हो अब,
हर मनुज संतुष्ट हो।
पनपे ना वृत्ति छल-कपट की
बनी रहे सद्भावना।

कर रहे शुभकामना....

जाति-वर्ग औ संप्रदाय की
टूटें सब दीवारें।
गद्दारी जो करें देश से
चुन-चुन उनको मारें।
विपदा आए कोई यदि तो,
मिल करें सब सामना।

कर रहे शुभकामना....

कोई बच्चा देश का मेरे,
रहे न भूखा-नंगा।
कर्तव्यों के हिम से निकले,
अधिकारों की गंगा।
हो सदैव उद्देश्य हमारा,
गिर रहे को थामना।

कर रहे शुभकामना....

स्वार्थ रहित हों कर्म सभी के
राष्ट्र-मंगल से जुड़े।
गुलाम रहे न जन अब कोई
मुक्त अंबर में उड़े।
प्रेम-भाव भर अमिट रिदय में,
मिटा कलुषित भावना।

कर रहे शुभकामना....

आत्मनिर्भर बनें भारत-जन,
सुप्त बोध सब जागें।
कर्मठता हो, कर्म श्रेष्ठ हों,
जड़ता मन की त्यागें।
रामराज्य का स्वप्न नहीं तो,
है महज उद्भावना।

कर रहे शुभकामना....

© डॉ.सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद
साझा काव्य संग्रह "साहित्य किरण" में प्रकाशित

Monday 11 July 2022

हृद् कामना...

हृद्-कामना...

यही कामना जग में सबसे, सरल-सहज व्यवहार  करूँ।
तेरी कृपा के गुल खिलें तो, उन्हें गले का हार करूँ।।

नहीं चाहिए मुझको प्रभुवर, किस्मत से कुछ भी ज्यादा।
लिखा भाग्य में जितना मेरे, बस उतना स्वीकार करूँ।।

दो रोटी-दो वस्त्रों में भी, जब जीवन चल सकता है।
घुल-घुल कर चिंता में धन की, क्यों खुद को बीमार करूँ।।

हिफ़ाजत चराग़ों की करना, काम यही बस मेरा है।
तूफां की सहगामी बनकर, क्यों अपनों पर वार करूँ।।

कुछ न साथ लाई थी अपने, कुछ न साथ ले जाऊँगी।
लडूँ-मरूँ फिर किसकी खातिर, क्यों जीवन दुश्वार करूँ।।

अपने लिए कमाना खाना, यह तो ढोर-प्रवृत्ति है।
मिल-बाँट सब खाएँ सनेही, खुश-खुश सब त्योहार करूँ।।

धीरज रखना औ गम खाना, मैंने माँ से सीखा है।
संस्कार दिए हैं जो उसने,  क्या उन्हें शर्मसार करूँ ।।

गोद खिलाया जिस बेटे को, थपकी दे-दे पुचकारा।
उसे दूर कर दिल से कैसे, बीच खड़ी दीवार करूँ।।

जिन्हें बनाकर साक्षी अपना, बचपन सुखद गुजारा है।
उन गली-कूँचों को रुसवा, क्यों मैं सरेबाज़ार करूँ।।

बचपन जिया साथ में जिसके, सर नेह-सरोपे रोपे।
धन की खातिर उस भाई से, तू-तू मैं-मैं रार करूँ ?

मुझको मेरे अपने सब जन, प्राणों से भी प्यारे हैं।
फिर क्यों अवहेला कर उनकी, पैसों का व्यापार करूँ।।

यकीं नहीं अपने पर मुझको, सिर्फ भरोसा तुम पर है।
थमा हाथ पतवार तुम्हारे, जीवन-नैया पार करूँ।।

वरद हस्त रख सर पर मेरे, लोभ-मोह प्रभु दूर करो।
परम तत्व का भान मुझे हो, कलुष-वृत्ति संहार करूँ।।

आँकें नयन छवि तुम्हारी, मन-मंदिर में उसे बसा
हर विकार का प्रक्षालन कर, तमस भेद उजियार करूँ।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
साझा संग्रह "काव्य प्रभात" में प्रकाशित

Thursday 7 July 2022

दोहे एकादश....

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दोहे एकादश...

धंधा करते झूठ का, दावे करते नेक।
सिर्फ एक या दो नहीं, देखे यहाँ अनेक।।१।।

जता कमी कुछ और की, करते ऊँचा घोष।
छिद्रान्वेषी मनुज को,  दिखें न अपने दोष।।२।।

ये रुतबा-धन-संपदा, ऊँचे पद की शान।
भौतिक सुख के साज ये, मुझको धूल समान।।३।।

दुनियादारी सीख लो, इस बिन सरे न काम।
दुनिया की रौ में चलो,  जो भी हो अंजाम।।४।।

झूठी-सच्ची बात कर, भरे बॉस के कान।
अपना हित जो साधता, पशु से बदतर जान।।५।।

अहंकार के वृक्ष पर, फलें नाश के फूल।
हित यदि अपना चाहते, काटो उसे समूल।।६।।

निंदा रस में लिप्त जो, भरते सबके कान।
खुलती इक दिन पोल जब, क्या रह जाता मान ?।।७।।

आज हमें जो बाँटते, आँसू की सौगात।
कोई उनसे पूछता, क्या उनकी औकात ?।।८।।

पड़ें नज़र के सामने, किस मुँह शोशेबाज़।
झूठी शान बघारते, आए जिन्हें न लाज।।९।।

फर्क न अब मुझपर पड़े, लाख करो बदनाम।
नस सबकी पहचान ली,  देखा सबका काम।।१०।।

जब-जब मन भारी हुआ, गही लेखनी हाथ।
मेरी  यह  चिरसंगिनी, सदा  निभाती  साथ।।११।।

© डॉ.सीमा अग्रवाल,
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र )
( "मनके मेरे मन के" से )

Sunday 26 June 2022

मौन मुखर था...

अधर मौन थे, मौन मुखर था…

अधर मौन थे, मौन मुखर था…

कितना सुखद हसीं अवसर था।
अधर मौन थे, मौन मुखर था।

पूर्ण चंद्र था,
उगा गगन में।
राका प्रमुदित,
मन ही मन में।

टुकुर-टुकुर झिलमिल नैनों से,
धरती को तकता अंबर था।

मन-मानस बिच,
खिलते शतदल।
प्रिय-दरस हित,
आतुर चंचल।

टँके फलक पर चाँद-सितारे,
बिछा चाँदनी का बिस्तर था।

सरल मधुर थीं,
प्रिय की बातें।
मदिर ऊँँघती,
ठिठुरी रातें।

रात्रि का अंतिम प्रहर था,
डूबा रौशनी में शहर था।

प्रेमातुर अति,
चाँद-चाँदनी।
मादक मंथर,
रात कासनी।

और न कोई दूर-दूर तक,
प्रिय, प्रेयसी और शशधर था।

डग भर दोनों,
बढ़ते जाते।
इक दूजे को,
पढ़ते जाते।
मंजिल का ना पता-ठिकाना,
खोया-खोया-सा रहबर था।

अधर मौन थे, मौन मुखर था…
( “मनके मेरे मन के” से )

– © डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)

Saturday 25 June 2022

वापस लौट नहीं आना....

वापस लौट नहीं आना…

वापस लौट नहीं आना…

मंजिल तक जाने में निश्चित,
व्यवधान बहुत आएंगे।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।

दुख को चखकर सुख की कीमत,
और अधिक बढ़ जाती है।
रौंदी जाकर भी तो देखो,
धूल गगन चढ़ जाती है।

देख सामने कठिन चुनौती,
हिम्मत हार नहीं जाना।

सागर से मिलने की धुन में,
नदियाँ बढ़ती जाती हैं।
जज्बा, लगन, हौसले के नव,
मानक गढ़ती जाती हैं।

तुम भी अनथक बढ़ते जाना,
जब तक पार नहीं पाना।

रोड़े-पत्थर काँटे-कंकड़,
पग-पग पथ में आएंगे।
कितने लालच दुनिया भर के,
आ ईमान डिगाएंगे।

कितना कोई दुख बरपाए,
पर तुम खार नहीं खाना।

धूप-शीत-तम-अंधड़-बारिश,
खड़ा यती-सा सहता है।
चीर जड़ों को देखो तरु की,
मीठा झरना बहता है।

तप-तप कर ही स्वर्ण निखरता,
सच ये भूल नहीं जाना।

गरज-गरज कर काले बादल,
आसमान पर छाएंगे।
भूस्खलन और ओलावृष्टि,
मिल उत्पात मचाएंगे।

पाँव जमा अंगद से रखना,
अरि से मात नहीं खाना।

साँझ ढले से देखो चंदा,
निडर गगन में चलता है।
निविड़ तिमिर की चीर कालिमा
जग को रोशन करता है।

तुम भी अपनी धुन में चलना,
पथ से भटक नहीं जाना।
बस तुम मुश्किल से घबराकर,
वापस लौट नहीं आना।

– © डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
“सृजन शर्मिष्ठा” से

रहे न अगर आस तो...

रहे न अगर आस तो….

क्या क्षणिक इन आँधियों से,जिंदगी डर जाएगी ?
रहे न अगर आस तो हाँ, प्यास ही मर जाएगी ।

तू बस अपना काम कर,
फल चला खुद आएगा।
तीरगी को चीर, वहीं,
रौशनी रख जाएगा।
मन में शीतल शुद्ध हवा, ताजगी भर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ…..

वक्त ठहर गया तो क्या,
समय न अपना तू गँवा।
हौसलों में जान रहे,
पल में होगा दुख हवा।
झोंका सुख का आएगा, किस्मत सँवर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ…..

पहुँच न ले गंतव्य तक,
न तब तलक तू साँस ले।
मंजिल निकट आएगी,
मिट जाएँगे फासले।
छूकर मन की भावना, मौत भी तर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ……

जिंदगी का सुर्ख सफ़ा,
पल-पल नजरों में रहे।
हार-जीत का फलसफ़ा,
नित-नित साँसों में बहे।
ढील जरा भी दी अगर, चेतना मर जाएगी।
रहे न अगर आस तो हाँ, प्यास ही मर जाएगी।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“सृजन प्रवाह” से

Friday 24 June 2022

पाँव में छाले पड़े हैं...

पाँव में छाले पड़े हैं ...

वेदना में जल रही हूँ, आँसुओं में गल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।

ओ नियंता दर्द मेरा, देख तू भी इक बारगी।
फर्क मुझ पर क्या पड़े अब, रोशनी हो या तीरगी।
हाथ में गम की लकीरें, साथ तम के पल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।

कौन जाने कब मुझे हो, इस जहां को छोड़ जाना।
कौन जाने किस सुबह फिर, हो यहाँ पर लौट आना।
दिवस का अवसान होता, रात में अब ढल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।

शिकवा न कोई मैं करूँ, रुचे जो जिनको वो करें।
मार्ग फिर भी रोक लेतीं, हा हर कदम पर ठोकरें।
आस मंजिल की लगाए, नित स्वयं को छल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।

देता न कोई साथ है, आज समझ ये पायी हूँ ।
पास कुछ न और बाकी, भाव-सुमन बस लायी हूँ।
कल मुझे जो मीत कहते, आज उनको खल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।

खुशी के रेले मिलेंगे, ख्वाब देखे थे नज़र ने।
मर्म जीवन का सुझाया, नत खड़े गुमसुम शज़र ने।
लुट गया रोशन जहां अब, हाथ खाली मल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं,   पर निरंतर चल रही हूँ।
पर निरंतर चल रही हूँ।

- © डॉ0 सीमा अग्रवाल

जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद ( उ.प्र.)

साझा संग्रह "प्रभांजलि" से

Saturday 18 June 2022

चंद दोहे....


सच को शूली पर चढ़ा, सत्ता गाल बजाय।
शातिर अपनी चाल चल, दूर खड़ा मुस्काय।।

चाल तुम्हारी चल गयी, हुए घाघ से शेर।
सवा सेर जिस दिन मिला, हो जाओगे ढेर।।

अपनी सुविधा के लिए, करे और पर वार।
परदुख का कारण बने, पड़े वक्त की मार।।

अपनी गलती को छुपा, मढ़ें और पर दोष।
बुद्धिमत्ता दिखा रहे, खाली जिनका कोष।।

© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र.)

Sunday 8 May 2022

मेरी माँ...

माँ सच्ची संवेदना, माँ कोमल अहसास।
मेरे जीवन-पुष्प में, माँ खुशबू का वास।।

रंग भरे जीवन में जिसने,     महकाया संसार।

पाला पोसा जानोतन से, दिया सुघड़ आकार।

खुश रही जो मेरी खुशी में, अपनी खुशी बिसार,

ममता की मूरत उस माँ पर, दूँ सर्वस्व निसार।

- © सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद

Monday 7 February 2022

मतदान करो, मतदान करो

रहो जागरूक  नित मतदाता।
तुम्हीं भारत के भाग्य विधाता।
निज हित जब ऊपर हो जाते,
देश  रसातल  में  धँस जाता।

सोच समझ करना मतदान,
क्षुद्र स्वार्थ न करे कल्याण।
चुनकर लाना  वो  सरकार,
करे   देश  का  नवनिर्माण।

मत देना अधिकार तुम्हारा
दुरुपयोग ना इसका करना
लोकतंत्र को सफल बनाना
सर्वथा योग्य पर मुहर लगाना

जन-जन के सजग प्रयासों से
भविष्य देश का सँवर उठेगा।
शत-प्रतिशत मतदान से सच्चे
एक कर्मठ नेता हमें मिलेगा।
- © सीमा अग्रवाल

Wednesday 12 January 2022

उठो, जागो, बढ़े चलो बंधु ( स्वामी विवेकानंद जी की जयंती के शुभ अवसर पर उनके द्वारा दिए गए उत्प्रेरक मंत्र से प्रेरित नर्मदा प्रकाशन से "वेदांत" काव्य संग्रह में प्रकाशित मेरी स्वरचित रचना )

उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु...

उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।

सपने सतरंगी आगत के,
सजें तुम्हारी आँखों में।
जज्बा जोश लगन सब मिलकर,
भर दें उड़ान पाँखों में।

रखकर गंतव्य निगाहों में,
अर्जुन सम तीर चलाओ।
उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।

तुम युवक ही रीढ़ समाज की,
टिका है भविष्य तुम्हीं पर।
तुम्हीं देश के कर्णधार हो,
नजरें सभी की तुम्हीं पर।

निज ऊर्जा, महत्वाकांक्षा से
ऊँचा तुम इसे उठाओ।
उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।

मंजिल चूमे कदम तुम्हारे,
भरी हो खुशी से झोली।
देख तुम्हारे करतब न्यारे,
नाचें  झूमें  हमजोली।

देश तरक्की करे चहुँमुखी,
अग जग में मान बढ़ाओ।
उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।

कुदरत के लघु अवयव को भी,
क्षति न कभी तुम पहुँचाना।
पूज चरण पीपल-बरगद के,
बैठ छाँह में सुस्ताना।

दीन-हीन निरीह जीवों को,
जीवन की आस बँधाओ।
उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।

असामाजिक तत्व समाज के
खड़े राह को रोकें तो,
डाह भरे निज सम्बन्धी भी
छुरा पीठ में भोंकें तो,

करके नजरंदाज सभी को
पथ अपना सुगम बनाओ।
उठो-जागो-बढ़े चलो बंधु, 
न जब तक लक्ष्य तुम पाओ।
- ©® डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
" वेदांत " से