तुम प्रतिमा शब्दों की मेरे
भावों का मेरे आलम्बन !
तुम मेरी लघुता की गरिमा
जड़ता का मेरी स्पंदन !
अब मैं तुमसे दूर कहाँ
मन से मन के तार जुड़े
पग बढ़ें जिधर भी मेरे
मन ये तुम्हारी ओर मुड़े
चाह रही ना कोई बाकी
मिला तुम्हारा अवलंबन !
सांध्य गगन में जीवन के
चाँद से नजर तुम आए
पाकर मन की शीतलता
मेरा रोम- रोम हरषाए
सरकने लगा है धीरे धीरे
ख्वाबों से मेरे अवगुंठन !
तुम आदर्श मेरे जीवन के
सृजन का आधार हो तुम
दूर रहो तुम चाहे जितना
मन में सदा साकार हो तुम
मेरे उच्छृंखल प्राणों का
हो तुम्हीं मर्यादित बंधन !
बीन- सी स्वर लहरी सुन
होता विकल मन का हिरन
निरख छवि घनश्याम-सी
मन- मयूर करता है नर्तन
झंकृत हो उठता तार-तार
है कैसा अद्भुत ये आकर्षन !
- सीमा
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