दिन कहाँ अब वे प्रणय के।
उस मधुर अभिसार लय के।
रूपसी सी चाँदनी या,
चाँद के वर्तुल वलय के।
भर अहं में कर रहे सब,
एक दूजे से किनारे।
जोड़ नाजुक काँच से हा !
तोड़ देते बिन बिचारे।
अब कहाँ संयोग बनते,
प्रेम में होते विलय के।
स्वार्थ में नित लिप्त दुनिया,
सिर्फ अपना काम साधे।
हिल रही बुनियाद घर की,
हो रहे परिवार आधे।
अंत समझो सृष्टि का अब,
बन रहे बानक प्रलय के।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"गीत सौंधे जिन्दगी के" से
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