Tuesday, 31 December 2024

मंगलमय नववर्ष...

मंगलमय नव वर्ष...

अभिनंदन नव वर्ष का, उत्सव हास हुलास।
पावनता संकल्प की, अंतस भरे उजास।।१।।

शुभ मंगलमय वर्ष हो, बगरे दिशि-दिशि हर्ष।
खुशियों में झूमें सभी, पल-पल हो उत्कर्ष।।२।।

नयी उमंगें साथ ले, आया नवल विहान।
सुख के पारावार में, डूबा सकल जहान।।३।।

नयी सुबह नववर्ष की, नया जोश-उल्लास।
स्वप्न नया आह्लाद भर, करता मुख पर लास।।४।।

आने वाले साल से, कहे पुराना साल।
रहे अधूरे काम जो, आकर उन्हे सँभाल।।५।।

आने वाले साल से, कहे पुराना साल।
तेरा भी इक साल में, होगा मुझसा हाल।।६।।

जश्न मने नववर्ष का, नये सजें सब साज।
नयी-नयी हों चाहतें,  नया-नया आगाज।।७।।

सबक याद कर  पूर्व के,  वरो नए संकल्प।
भर नवता नववर्ष में, चुन लो एक विकल्प।।८।।

वर्ष नया दे आपको, खुशियाँ अपरंपार।
महकें घर-आँगन सदा,   झूमे वंदनवार।।९।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

Tuesday, 24 December 2024

टिके न झूठी शान...

क्या करना उस मित्र का, मुँह पर करता वाह।
पीछे से चुगली करे, रखता मन में  डाह।।१।।

मुश्किल आई देखकर, खींचें झट से हाथ।
रहें बनी के मित्र बस, करो न उनका साथ।।२।।

मुँह पर जो मीठा बने, छुप-छुप करता वार।
हमको ऐसे मित्र की,   नहीं तनिक दरकार।।३।।

एक पक्ष चाहे जहाँ, बस अपनी ही जीत।
स्वारथ हो हर बात में, निभे न ऐसी प्रीत।।४।।

बाहर से मीठे बनें, हैं पर अति के दुष्ट।
खुद ही खुद को भाव दे, करें अहं संतुष्ट।।५।।

जहाँ-जहाँ गाँठें पड़ें,      नीरस होता ईख।
द्वेष-गाँठ रस सोखती, लो इससे ये सीख।।६।।

बरस रही क्यों आजकल, हम पर कृपा विशेष।
ताड़ लिया मन आपका,    भीतर कितना द्वेष।।७।।

आज हमें जो बाँटते,   आँसू की सौगात।
कोई उनसे पूछता, क्या उनकी औकात।।८।।

बिलावजह बातें बना, कर कोरी बकवास।
तुच्छ चना बाजे घना, कर पर का उपहास।।९।।

सच इक कोने में खड़ा, बिलख रहा ईमान।
पौ बारह अब झूठ की, मिले उसी को मान।।१०।।

मिलकर रहता एक दिन, सच्चाई को मान।
लाख रंग-रोगन करो,   टिके न झूठी शान।।११।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से

Tuesday, 10 December 2024

शीत मगसर की...

शीत मगसर की...

जुल्म कितने ढा रही है,
शीत मगसर की।

घट रहा है मान दिन का,
घरजमाई सा।
रात बढ़ती जा रही है,
हो रही सुरसा।
बिम्ब कितने गढ़ रही है,
शीत मगसर की।

लिपट कुहरे में खड़ी है,
धूप अलसाई।
वात का लेकर तमंचा,
रात घर आई।
भाव कितने खा रही है,
शीत मगसर की।

चाँद भी सुस्ता रहा है,
ओढ़कर चादर।
झाँकता है बस कभी ही,
चोर सा छुपकर।
चीरती तन जा  रही है,
शीत मगसर की।

© सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद ( उ.प्र.)

"भाव अरुणोदय" से



Friday, 6 December 2024

आज तुम्हें फिर देखा हमने...

आज तुम्हें फिर देखा हमने....

आज तुम्हें फिर देखा हमने,
तड़के अपने ख्वाब में।
छुप कर बैठे हो तुम जैसे,
मन के कोमल भाव में।

किस घड़ी ये जुड़ गया नाता।
तुम बिन रहा नहीं अब जाता।
कब समझे समझाने से मन,
हर पल ध्यान तुम्हारा आता।

जहाँ भी जाएँ, पाएँ तुम्हें,
निज पलकन की छाँव में।

क्यों तुम इतने अच्छे लगते।
मन के कितने  सच्चे लगते।
छल-कपट से दूर हो इतने,
भोले  जितने  बच्चे  लगते।

मरहम बनकर लग जाते हो,
जग से पाए घाव में।

तुम पर  कोई  आँच न आए।
बुरी  नजर  से  प्रभु  बचाए।
स्वस्थ रहो खुशहाल रहो तुम,
दामन सुख से भर-भर जाए।

साजे पग-पग कमल-बैठकी,
चुभे न काँटा पाँव में।

नजर  चाँद से  जब  तुम आते।
मन बिच कैरव खिल-खिल जाते।
भान वक्त  का  जरा न  रहता,
बातों  में  यूँ    घुल-मिल जाते।

यूँ ही आते-जाते रहना,
मेरे मन के गाँव में।

आज तुम्हें फिर देखा हमने...

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"मनके मेरे मन के" से

Saturday, 30 November 2024

मोहे छटा अनूप...

कर्ण श्रवण घर-घर करें,  घर-घर गूँजे नाद।
रामचरित मैं भी लिखूँ,   दो प्रभु आशीर्वाद।।

चैत्र मास की तिथि नवम्, लिया राम अवतार।
कौशल्या की कोख से,    उपजा जग-कर्त्तार।।

श्याम शिला निर्मित वपु,      मोहे छटा अनूप।
बरबस मन वश में करे, प्रभु का बाल स्वरूप।।

जलमय संकुल मेघ सम, श्याम बरन प्रभु राम।
मन पुष्पित-पुलकित करें,  सरस-बरस घनश्याम।।

कंठा कंगन करधनी, केसर कुंकुम भाल।
उर शोभित कौस्तुभमणि, गल वैजंतीमाल।।

शोभित पैजनियाँ छड़ा, पाँव महावर लाल।
स्वर्ण मुकुट मस्तक फबे, कुंडल पदिक कमाल।।

कोटि प्रभाएँ सूर्य की, आभा मंडित रूप।
नैना मादक रसभरे,    भरे सभी मनकूप।।

भव्य रूप निर्मल छटा, नित्य नव्य अव्यक्त।
नैना अनझिप कर रहे, भाव दिव्य अभिव्यक्त।।

राम नाम का ध्यान ही,   करता बेड़ा पार।
बंधन जिसके हम बँधे, वही मुक्ति आधार।।

डोर तुम्हारे हाथ प्रभु, आर करो या पार।
जगत हमारा पालना, तुम हो पालनहार।।

पलकों पर पग रख प्रभो, उतरो दिल के द्वार।
पग प्रक्षालन कर प्रथम,      कर लूँ द्वाराचार।।

दिशाबद्ध हो योजना, धर्मबद्ध हों काम।
बढ़े चलो सन्मार्ग पर, भली करेंगे राम।।

राम सरिस हो आचरण, राम सरिस हो त्याग।
मिटें तामसी वृत्तियाँ,      जागें जग के भाग।।

किस मुँह से बरनन करूँ, महिमा तेरी नाथ।
नेति-नेति कहता हृदय,  नवा चरन में माथ।।

तेरा-मेरा मेल क्या,       तू दाता मैं दीन।
तू सबका सिरमौर है, मैं लुंठित मतिहीन।।

मनके मन के गुँथ सभी, बने सुघड़तम हार।
जुड़े रहें प्रभु आपसे,          मर्यादा के तार।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ. प्र. )
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से
फोटो गूगल से साभार

Monday, 25 November 2024

आज जो पीछे हटी तो...

आज जो पीछे हटी तो,
लक्ष्य फिर कैसे वरेगी ?
लक्ष्य च्युत गर हो गयी तो,
चाँद पर पग क्या धरेगी ?

हौसलों को पंख देकर,
छू सुते, अब मुक्त अंबर।
कह रहा क्या कौन उसको,
सोचता क्या कुछ दिगंबर ?
बात जो सबकी सुनी तो,
हानि अपनी ही करेगी।

मोह तज इन आभरण का
ये महज तन के लिए हैं।
ज्ञान की नव कंदराएँ,
खुल रही तेरे लिए हैं।
चूम लेगी भाल दुनिया,
पाँव जब भू पर धरेगी।

चल रहे हैं मेघ हरदम,
चाँद काँधे पर टिकाए।
स्वेद-जल से सींच जग को,
बीहड़ों में गुल खिलाए।
खुद अगर रोती रही तो,
कष्ट क्या जग के हरेगी।

खोज ला हर गुप्त धन वो,
जो बना तेरे लिए है।
प्रार्थना है ईश से, शुभ
कामना तेरे लिए है।
जान दे जो जिंदगी को,
जिंदगी उसको वरेगी।

खुश रहे हर हाल में तो,
रंज मन से दूर होंगे।
धीरता धारित हृदय में,
क्षण सुखद भरपूर होंगे।
मानसर में गुल खिलेंगे,
हर कदम खुशबू झरेगी।

आज जो पीछे हटी तो,
लक्ष्य कह कैसे वरेगी ?

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
'गीत शतक' से

थोथी नींव पर छल छद्म की...

थोथी नींव पर छल-छद्म की...

थोथी नींव पर छल-छद्म की, बड़ी इमारत बना रहे हैं।
किसी और की कहन चुराकर, झूठी मुहब्बत गा रहे हैं।

कैसे इनको मानें सच्चा, कैसे इन पर करें भरोसा।
मार रहे हक अपनों का ही, अपनों को ही झुका रहे हैं।

गरल छिपा है भीतर इनके, आ न जाना  बात में इनकी।
रक्खे मिश्री अधरपुटों पर,  बेशक मन को लुभा रहे हैं।

बड़े जतन से पाल-पोस कर, सुख-साधन सब इन्हें जुटाए।
नेह भूल उन मात-पिता का, दिल उनका ये दुखा रहे हैं।

औरों को नाकाबिल मानें,  खुद को समझें पहुँचा ज्ञानी।
सच्चे मन के सरल जनों को, मार लंगड़ी गिरा रहे हैं।

क्या समझेंगे दुख ये पर का, स्वार्थ-लिप्त नित रहने वाले।
बीज डालकर बैर-द्वेष का, फसल नफरती उगा रहे हैं।

कटे हुए ये जड़ से अपनी, रक्खेंगे क्या मान किसी का।
भूल जमीं को अपनी ही जो, गीत गगन के भुना रहे हैं।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
सजल काव्य संग्रह से

Saturday, 23 November 2024

वर बढ़े जो पथ विनय का...

वर बढ़े जो पथ विनय का...

वर बढ़े जो पथ विनय का,
उस सरल इंसान की जय।
वक्त की परिमल सँजोए,
उस विरल इंसान की जय।

दो दिलों को नाथकर जो,
प्रेम-सुर में ढालता है।
ढाल बन जो सत्य की नित,
खाक खल पर डालता है।
जो तड़पता और के हित,
उस विकल इंसान की जय।

बल बने जो निर्बलों का,
घाव पर मरहम लगाए।
दे निकाला आँसुओं को,
हास के मंडप सजाए।
जो लुटा दे प्राण परहित,
उस सबल इंसान की जय।

पय पिलाए जो तृषित को।
पुष्प कर्दम में खिलाए।
बन सहारा गैर का जो,
आस हर मरती जिलाए।
हर दिखावे से परे जो,
उस असल इंसान की जय।

शीश पर आशीष प्रभु का,
ले बढ़े जो साथ सबका।
प्रेम-बल से जीत कर दिल,
दे झुका जो माथ सबका।
हर हुनर-गुण पास जिसके,
उस कुशल इंसान की जय।

बुद्धि-कौशल से सदा जो,
काम हर आसान करता।
हारते हर आर्त जन के,
हौसलों में जान भरता।
ला रहा नित नव्यता जो,
उस नवल इंसान की जय।

वर बढ़े जो पथ विनय का,
उस सरल इंसान की जय।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह 'साहित्य सुमन' में प्रकाशित

वर बढ़े जो पथ विनय का...

वर बढ़े जो पथ विनय का,
उस सरल इंसान की जय।
वक्त की परिमल सँजोए,
उस विरल इंसान की जय।

दो दिलों को नाथकर जो,
प्रेम-सुर में ढालता है।
ढाल बन जो सत्य की नित,
खाक खल पर डालता है।
जो तड़पता और के हित,
उस विकल इंसान की जय।

बल बने जो निर्बलों का,
घाव पर मरहम लगाए।
दे निकाला आँसुओं को,
हास के मंडप सजाए।
जो लुटा दे प्राण परहित,
उस सबल इंसान की जय।

पय पिलाए जो तृषित को।
पुष्प कर्दम में खिलाए।
बन सहारा गैर का जो,
आस हर मरती जिलाए।
हर दिखावे से परे जो,
उस असल इंसान की जय।

शीश पर आशीष प्रभु का,
ले बढ़े जो साथ सबका।
प्रेम-बल से जीत कर दिल,
दे झुका जो माथ सबका।
हर हुनर-गुण पास जिसके,
उस कुशल इंसान की जय।

बुद्धि-कौशल से सदा जो,
काम हर आसान करता।
हारते हर आर्त जन के,
हौसलों में जान भरता।
ला रहा नित नव्यता जो,
उस नवल इंसान की जय।

वर बढ़े जो पथ विनय का,
उस सरल इंसान की जय।

© डॉ. सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद ( उ. प्र. )

साझा संग्रह 'साहित्य सुमन' से


Tuesday, 19 November 2024

जीना है तो सीख ले...

जीना है तो सीख ले...

जीना है तो सीख ले, दुनिया की हर रीत।
दुनिया की रौ में चले, मिले उसे ही जीत।।१।।

जीना है तो सीख ले, सुख-दुख में गठजोड़।
जीवन की हर दौड़ में,    आते कितने मोड़।।२।।

जीना है तो सीख ले, जीवन की हर तोल।
किससे लेना सूद है, किसे चुकाना मोल।।३।।

जीना है तो सीख ले, जग का सा व्यवहार।
हाँ में सबकी हाँ करे,      उसका बेड़ा पार।।४।।

जीना है तो सीख ले,    ढोना अपना भार।
पर पर जो निर्भर रहे, उस नर को धिक्कार।।५।।

जीना है तो सीख ले, करना सबसे प्यार।
प्यार करे दुनिया सधे,    वरना मारामार।।६।।

जीना है तो  सीख ले, गुनना  तीनों  काल।
आयी मुश्किल सामने, भाँप सके तत्काल।।७।।

जीना है तो सीख ले,       चखना सारे स्वाद।
कब जीवन का अंत हो, क्या हो उसके बाद।।८।।

जीना है तो सीख ले, रखना जग से मेल।
किस्मत की हर मार को, खेल समझकर झेल।।९।।

जीना है तो सीख ले, आड़ी-सीधी चाल।
कब जीवन में क्या मिले, क्या हो आगे हाल।।१०।।

जीना है तो सीख ले, करना सबका मान।
जो औरों को मान दे,     पाता है सम्मान।।११।।

जीना है तो सीख ले, करना झटपट काम।
सही समय हर काम कर, फिर डटकर आराम।।१२।।

जीना है तो सीख ले, लड़नी जीवन-जंग।
अपनी पारी खेलकर, देख जगत के रंग।।१३।।

जीना है तो सीख ले, रहना हद में यार।
हदें लाँघकर जो बढ़े, निश्चित उसकी हार।।१४।।

जीना है तो सीख ले, रखना सही हिसाब।
अंत समय में कर्म की, जाती संग किताब।।१५।।

© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.) 
साझा संग्रह 'जिंदगी का सफर" से

Saturday, 16 November 2024

हक मुनासिब माँगती हूँ...

प्राण जो ये माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

क्या हमारा नाम इसमें,
सब तुम्हारा ही दिया है।
इंगितों पर ही तुम्हारे,
काम सब हमने किया है।
क्या गलत जो आज हमसे,
मूल्य उनका माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

हैं समर्पित प्राण ही क्या,
इंद्रियाँ भी पंच अर्पित।
है तुम्हारा अंश जितना,
आज हर वो अंश अर्पित।
क्यों शिकायत हो मुझे कुछ,
जो दिया वो माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

लो खुशी ये पीर भी लो।
ये धरा सा धीर भी लो।
मुक्ति दो भव-बंधनों से,
ये कफन ये चीर भी लो।
बन चुके हमदर्द अब जो,
दर्द वे क्या माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

क्यों वणिक-व्यापार करते।
डाल चुग्गा प्राण हरते।
हो महाजन से नहीं कम,
कागजों पर काम करते।
मूल जो तुमने दिया था,
सूद उसका माँगते हो ?
हक मुनासिब माँगते हो।

मैं न जग को जानती थी।
लोभ तुमने ही दिया था।
जिंदगी से जो मिला फिर,
हँस गरल सब पी लिया था।
कामना तुमने जगाई,
मुक्ति उससे माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ।

अब न लालच जिंदगी का,
ढो न सकती भार फिर-फिर।
हार कर फिर पास आऊँ,
सह न सकती हार फिर-फिर।
बस क्षमा अब माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ। 

मैं न काबिल इस जगत के,
इस जहां में कौन मेरा।
क्या हुआ हासिल तुझे भी,
कह रहा सब मौन तेरा।
और न कुछ अब माँगती हूँ
त्राण जग से माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
'साहित्य सुमन' में प्रकाशित

खोल भी दो अब अधर द्वय....

खोल भी दो अब अधर द्वय।
है तुम्हें किसका कहो भय ?

इस तरह मत चुप रहो तुम।
बात हर खुलकर कहो तुम।
हो सही यदि सत्य में तुम,
क्यों गलत कुछ भी सहो तुम।
बढ़ चलो पथ पर अभय हो,
शुद्ध तन-मन ले तपोमय।

लक्ष्य को अपने वरो तुम।
जग कहे क्या मत डरो तुम।
मुश्किलें पथ में मिलें तो,
सामना डटकर करो तुम।
है तुम्हें अधिकार तुम पर,
कर रहे क्यों घोट मन क्षय ?

वक्त पल-पल बीतता है।
व्यर्थ जीवन रीतता है।
बढ़ चले जो कस कमर नित,
हर समर वो जीतता है।
सत्य का दामन गहे जो,
अंततः पाता वही जय।

सत्य के पथ पर चले जो,
हार कर भी जीतता है।
भर तिजोरी नर अनय से,
हर कदम पर रीतता है।
दंभ भरता झूठ का जो,
हार उसकी जान लो तय।

फल मधुर मिलता उसी को,
काम जो निष्काम करता।
लूटता हक और का जो,
जिंदगी भर दाम भरता।
मर मिटे सेनानियों की,
सुन चतुर्दिक गूँजती जय।

© सीमा अग्रवाल, मुरादाबाद ( उ.प्र.)
साझा संग्रह 'साहित्य सुमन' से

Friday, 15 November 2024

देव दीपावली की समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं

छिटकी नभ में चाँदनी, कातिक पूनम रात।
काशी के गलियार में, झिलमिल दीपक-पाँत।।०१।।

देव दिवाली आज है, कातिक पूनम रात।
करते भू पर देवता, अमरित की बरसात।।०२।।

देता सुर को त्रास था,    करता पाप अनंत।
त्रिपुरारि कहलाए शिव, किया दुष्ट का अंत।।०३।।

भव्य कलेवर में दिपे, काशी नगरी आज।
देव मुदित आशीष दें,गदगद संत समाज।।०४।।

त्रिपुरासुर का अंत कर, दिया इंद्र को राज।
आज मुदित मन झूमता,  सारा देव समाज।।०५।।

पावन गंगा नीर में, कर कातिक स्नान।
देव दिवाली देवता, करें दीप का दान।।०६।।

छाई है अद्भुत छटा, दमक रहे सब घाट।
देव दरस की लालसा, जोहें रह-रह बाट।।०७।।


© सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद ( उ.प्र. )

फोटो गूगल से साभार


Saturday, 9 November 2024

दिल में दीप जलाने वाले...

दिल में दीप जलाने वाले...

दिल में दीप जलाने वाले,
मीत कहाँ ? अब आ भी जाओ।
बहुत अँधेरा है जीवन में,
भटक रही हूँ, राह दिखाओ।

तुम बिन सूनी दिल की नगरी।
रीत रही है यौवन-गगरी।
दिन-दिन शिथिल हो रही काया,
कहते कहने वाले 'ठठरी'।
मृत में प्राण फूँकने वाले,
मरती इच्छा आन जिलाओ।

जिया नहीं जाता अब तुम बिन।
भार लगे तन पल-पल छिन-छिन।
चकरी सी डोलूँ बस इत-उत,
वक्त कटे कैसे दिन गिन-गिन ?
मन-नभ तक घिर आयी बदली,
बन बिजुरी पिय कौंध दिखाओ।

फेर लिया तुमने मुख अपना।
लिखा भाग्य में बस दुख जपना।
रमे विदेसहिं छोड़ मुझे प्रिय,
टूट गया मेरा हर सपना।
तम में धूप खिलाने वाले,
आस-किरन बनकर आ जाओ।

दिल में दीप जलाने वाले,
मीत कहाँ ? अब आ भी जाओ।

© सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद ( उ.प्र. )



Saturday, 19 October 2024

करवाचौथ...

हर दिन करवा चौथ हो, हर दिन पहली रात
पुष्ट करें मन-भाव को,      प्रेम भरे जज्बात।।

करवा लेकर पूजतीं, चौथ जगत की नार।
करतीं पूजा चाँद की, कर सोलह  श्रंगार।।

मन से पति का ध्यान कर, छिड़कत प्रेम-पराग।
लख छवि पिय की चाँद में,  माँगे अमर सुहाग।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

फोटो गूगल से साभार

Thursday, 17 October 2024

किंजल्किनीः माल कमल अम्लान...

राम-नाम किंजल्किनी, हरे सकल भव ताप।
लिए हाथ ये सुमिरनी,   करूँ निरन्तर जाप।।

स्वीकारो 'किंजल्किनी,  पुष्प कमल अम्लान'।
करूँ समर्पित प्रभु तुम्हें, शब्द-शब्द मम प्रान।।

मनके-मनके पर प्रभो,    सिर्फ तुम्हारा नाम।
निकट सदा मन के रहो,कोटिक तुम्हें प्रणाम।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद



फोटो गूगल से साभार

Wednesday, 16 October 2024

आज रात कोजागरी...

आज रात कोजागरी...

पसरी भू पर चाँदनी, आया अमृत काल।
शरदचंद्र का आगमन, ज्योतित नभ का भाल।।

शरद पूर्णिमा पर करें,  कोजागर उपवास।
जाग्रत रहते जन जहाँ, करती लक्ष्मी वास।।

धरती  ने  धारण  किया,  मोहक  हीरक  हार ।
शीतल  नूतन  भाव का,  कन-कन  में  संचार ।।

मन-गगन  में  तुम मेरे,  चमको  बन कर चाँद ।
नयन  निमीलित  मैं करूँ,  देखूँ  गुपचुप चाँद ।।

उलझ-उलझ कर मेघ से, चंदा हुआ उदास।
मेघों रस्ता दो उसे,      रजनी तकती आस।।

आज रात कोजागरी,  बरसे अमृत - धार।
धवल चाँदनी से पटा, देख सकल संसार।।

वर-अभय कर-कमल लिए, विचरें श्री भूलोक।
रात जाग जो व्रत करे,    हर लें उसका शोक।।

चलीं भ्रमण पर लक्ष्मी, धरे अधर पर मौन।
आज रात कोजागरी,     जाग रहा है कौन ?।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'किंजल्किनी' से

Saturday, 12 October 2024

पुतला हरा विकार का....

सच के सिर पर सेहरा, कालिख तम के गात।
मिलनातुर हो विजयश्री,    दूर खड़ी मुस्कात।।

पुतला हरा विकार का,  दिया ज्ञान को मान।
भली निभाई शत्रुता,     तुमने कृपा-निधान।।

तज कषाय दशग्रीव जब, हुआ पूर्ण निष्काम।
खींच नाभि से प्राण झट, पहुँचाया निज धाम।।

दर्शन पा श्रीराम के,   हुआ तुरत निष्काम।
भव-बंधन से मुक्त हो, पहुँचा प्रभु के धाम।।

मंचन लीला का करो, तज कर सभी फरेब।
पुरुषोत्तम के गुण भरो, भरो न केवल जेब।।

भर - भर मद में जा रहे,  करने रावण राख।
कर्म-कसौटी पर टिके, जरा न जिनकी साख।।

पुतला रावण का बना, चले फूँकने आप।
गिरेबान में झाँकिए,     पहले अपने पाप।।

राम सरिस हो आचरण, राम सरिस हो त्याग।
मिटें तामसी वृत्तियाँ,      जागें जग के भाग।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से

फोटो गूगल से साभार

Friday, 11 October 2024

नौ दिन ये नवरात्र के...

श्वेत वृषभ आरूढ़ हो, धारे हस्त त्रिशूल।
माँ गौरी निज भक्त के, हर लेतीं हर शूल।।

महा अष्टमी पर करें, माँ गौरा का ध्यान।
संकट सारे दूर हों, मिले अभय का दान।।

नौ दिन ये नवरात्र के,   मातृ शक्ति के नाम।
मातृ भक्ति से हों सदा, सिद्ध सभी के काम।।

नौ रातें शुभकारिणी,   हरतीं तमस-विकार।
गुंजित हो हर दिशा में, माँ की जयजयकार।।

कलुष वृत्ति मन की हरें, माता के नव रूप।
भक्ति-शक्ति के जानिए,   मूर्तिमंत स्वरूप।।

माता के दरबार में, कोई ऊँच न नीच।
समरसता बरसे यहाँ, भर-भर नेह उलीच।।

रिपुओं से रक्षा करे,    बने भक्त की ढाल।
बरसे जब माँ की कृपा, कर दे मालामाल।।

निराहार निर्जल शिवा, शिवमय सुबहो-शाम।
त्याग पर्ण तन धारतीं,      पड़ा अपर्णा नाम।।

लिए शंभु की चाह में, जन्म एक सौ आठ।
जपें शिवा शिव नाम बस, भूलीं सारे ठाठ।।

अष्टभुजी वाराहिनी,  अद्भुत मुख पर हास।
कृपा मिले माँ आपकी,    पूरा हो उपवास।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से

फोटो गूगल से साभार

Thursday, 10 October 2024

तुम जलधर मैं मीन...

तुम जलधर मैं मीन...

तुम बिन कैसे धारूँ जीवन,
तुम जलधर मैं मीन।
प्राण जिएँ ये देख तुम्हें ही,
रहें  तुम्हीं  में  लीन।

चाँद न आए नजर अगर तो,
कैसे जिए चकोर ?
साँझ ढले से इकटक नभ में,
देखे राह अगोर।
उसके ही स्वप्नों में खोयी,
रहे सदा तल्लीन।

स्वाति नखत के मेघ साँवरे,
करो कृपा की कोर।
अनथक ताक रही मैं प्यासी,
कबसे तेरी ओर।
पीर पराई देख हँसें सब,
करता कौन यकीन ?

अथक ललक दरसन की तेरे,
और मुझे क्या काम।
राह बुहारूँ पंथ निहारूँ,
जपूँ निरंतर नाम।
रखती बेर मधुर चख मीठे,
शबरी -सी मैं दीन।

चैन नहीं इक पल जीवन में,
जकड़ें नित नव रोग।
करते हैं उपहास अबल का,
ताकत वाले लोग।
हालत मेरी छुपी न तुमसे,
भाँति-भाँति से हीन।

अंत भले का भला न होता,
मिले झूठ को जीत।
कैसे कोई सहे कहो तो,
दुःसह जगत की रीत।
भाग्य छली ले जाता तिस पर,
कनियाँ सुख की बीन।

सुख-दुख जो भी मिलें यहाँ, सब
किस्मत के आधीन।

तुम जलधर मैं मीन...

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह "अरुणोदय" से

Wednesday, 9 October 2024

हँस जरा जो बोल दे तू...



हँस जरा जो बोल दे तू,
बोल वो अमृत लगेगा।
दे जहर भी हाथ से फिर,
वो मुझे अमृत लगेगा।

झुरझुरी सी है बदन में,
देह ठंडी सी पड़ी है।
मौत ही यूँ लग रहा है,
सामने मेरे खड़ी है।
बोल मृदु दो बोल दे तू,
शब्द हर अमृत लगेगा।

लग रहा है आज जैसे,
खोल अपना खो रही हूँ।
प्राण तुझमें जा रहे हैं,
लय तुझी में हो रही हूँ।
आँख भर जो देख ले तू,
दृश्य वो अमृत लगेगा।

होंठ भिंचते जा रहे हैं।
बोल फँसते जा रहे हैं।
क्या कहूँ तुझसे बता अब,
पल सिमटते जा रहे हैं।
नेह-रस जो घोल दे तू,
आचमन अमृत लगेगा।

बैठ पल भर पास मेरे।
देख आँखों  के अँधेरे।
वत्स ! इनमें भर उजाला,
मिट चलें ये तम घनेरे।
पूर्ण जो ये साध कर दे,
मौन भी अमृत लगेगा।

याद कर वो दिन तुझे जब
गोद में मैंने खिलाया।
बाँह का पलना बनाया,
थपकियाँ देकर सुलाया।
अंक में भर ले अगर तू,
क्षण मुझे अमृत लगेगा।

आँख जब तू फेरता है।
तम सघन मन घेरता है।
आ हलक तक प्राण मेरा ,
मौत ही तब हेरता है।
खुश नजर इस ओर कर ले,
देखना अमृत लगेगा।

मैं अकेली जब जगत में,
जीविका हित जूझती थी।
लौट जब आती, लपक कर-
बस तुझे  ही  चूमती थी।
आज कुछ तू ध्यान रख ले,
वक्त ये अमृत लगेगा।

हो रहा है तन शिथिल अब,
बढ़ रही है उम्र मेरी।
डगमगाते पाँव पग-पग,
माँगते बस  टेक तेरी।
तू बने लाठी अगर तो,
ये सफर अमृत लगेगा।

फड़फड़ाती लौ दिए की,
फड़फड़ाते प्राण हैं यों।
काल हरने प्राण ही अब,
आ रहा इस ओर हो ज्यों।
मोह से निज मुक्त कर दे,
त्याग ये अमृत लगेगा।

हँस अगर कुछ बोल दे तू,
बोल हर अमृत लगेगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह "माँ" से

काला है माँ का बदन....


सघन गहन अँधियार सा, रूप विकट विकराल।
घन बिच बिजुरी सी लसे, गल विद्युत की माल।।

काला है माँ का बदन,   काले बिखरे बाल।
दुष्टों के हित धारतीं, काल रूप विकराल।।

श्यामल है माँ का बदन, कालरात्रि है नाम।
दुष्टों का संहार कर,    पहुँचाती निज धाम।।

खल-दल का मर्दन करें, कालरात्रि बन काल।
भय निकालने भक्त का,   धरें रूप विकराल।।

लपट आग की नाक से, निकल रही अविराम।
गर्दभ वाहन मातु का,         त्रिपुर भैरवी नाम।।

रूप भयंकर काल सा, देतीं शुभता दान।
वरद हस्त रख शीश पर, करतीं अभय प्रदान।।

माता के मन को रुचे, मालपुए का भोग।
भोग लगाए जो इन्हें, हर लें उसके रोग।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह " किंजल्किनी" से

,
फोटो गूगल से साभार

Sunday, 6 October 2024

नमस्तस्यै नमस्तस्यै...

पाँचवी माता स्कंदमाता संसार की हर संतति पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें...

देकर बुद्धि कुबुद्धि को, अनगढ़ को संज्ञान।
रखो मात स्कंद की,   हर संतति का ध्यान।।

अंक सुशोभित मात के, बाल रूप स्कंद।
रिपुओं से रक्षा करें,     भक्त रहें निर्द्वन्द।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"किंजल्किनी" से


फोटो गूगल से साभार

Saturday, 5 October 2024

या देवी सर्वभूतेषु कूष्मांडा रूपेण संस्थिता....

स्मित से माँ की बना, जग क्या सब ब्रह्मांड।
भोग कुम्हड़े का करें,     नाम पड़ा कूष्मांड।।

प्रिय है माँ को कुम्हड़ा, बलि जो इसकी देत।
वरद हस्त रख शीश पर, दुखड़ा हर हर लेत।।

जननी ये ब्रह्मांड की, देतीं जीवन दान।
मन को निर्मल साफ रख, कर लो माँ का ध्यान।।

माता के मन को रुचे, मालपुए का भोग।
भोग लगाए जो इन्हें, हर लें उसके रोग।।

मुखमंडल पर ओज है, रविमंडल में वास।
जगतजननी कूष्मांडा, पूर्ण करो माँ आस।।

© सीमा अग्रवाल
    मुरादाबाद
    "किंजल्किनी" से
photo from wikipedia

Friday, 4 October 2024

अद्भुत माँ की शक्तियाँ...

अद्भुत माँ की शक्तियाँ, अद्भुत माँ का रूप।
दर्शन देतीं भक्त को,        धारे रूप अनूप।।१।।

नवरातों में पूज लो,       मैया के नवरूप।
मोहक छवि मन में बसा, हो जाओ तद्रूप।।२।।

कलुष वृत्ति मन की हरें, माता के नव रूप।
भक्ति-शक्ति के जानिए,   मूर्तिमंत स्वरूप।।३।।

पूजो माता के चरन,   ध्या लो उन्नत भाल।
वरद हस्त माँ का उठे, हर ले दुख तत्काल।।४।।

रिपुओं से रक्षा करे,    बने भक्त की ढाल।
बरसे जब माँ की कृपा, कर दे मालामाल।।५।।

मधुर-भाव चुन चाव से, सजा रही दरबार।
मेरे घर भी अंबिके,  आना  अबकी  बार।।६।।

माता के दरबार में, कोई ऊँच न नीच।
समरसता बरसे यहाँ, भर-भर नेह उलीच।।७।।

शिव-आराधन लीन हो,     त्यागे सारे भोग।
बिल्व पत्र के बल किए, सिद्ध साधना योग।।८।।

निराहार निर्जल शिवा, शिवमय सुबहो-शाम।
त्याग पर्ण तन धारतीं,      पड़ा अपर्णा नाम।।९।।

लिए शंभु की चाह में, जन्म एक सौ आठ।
जपें शिवा शिव नाम बस, भूलीं सारे ठाठ।।१०।।

चाह घनी मन में बसी, पाना है निज प्रेय।
भूलीं सारे भोग माँ,  याद रहा बस ध्येय।।११।।

सुख-दुख में समभाव हो, रहे बीच बन सेतु।
साधन शक्ति सुमंगला,  बने विजय का हेतु।।१२।।

वाम हस्त सोहे कमल, दाएँ हस्त त्रिशूल।
शैलसुता बृषवाहिनी, हरतीं जग के शूल।।१३।।

अर्द्ध चंद्र मस्तक फबे, कर सोहे त्रिशूल।
ताप हरो  माँ शैलजे, हर  लो सारे  शूल।।१४।।

कठोर व्रती तपस्विनी, ब्रह्मचारिणी मात।
भक्ति-मगन शिवलीन हो, भूलीं सुधबुध गात।।१५।।

लिए कमंडल वाम में, दाएँ में जप-माल।
तप निरत ब्रह्मचारिणी, दमके तेजस भाल।।१६।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"किंजल्किनी" से

फोटो गूगल से साभार


Tuesday, 10 September 2024

आज राधा अष्टमी पर श्री कृष्ण बल्लभा श्रीराधे जू को समर्पित मेरे द्वारा रचित कुछ दोहे...

रूप माधुरी मोहिनी,  हर वर्णन के पार।
श्री राधे-राधे जपो, खुले मुक्ति का द्वार।।

शक्ति स्वरूपा श्याम की, ब्रह्म स्वरूपा आप।
भक्ति करे जो आपकी, मिट जाएँ भव-ताप।।

राधन इच्छा का करे, श्री राधे का नाम।
राधे-राधे जप मना, आ जाएंगे श्याम।।

राधे-राधे जप मना, चाहे यदि घनश्याम।
दौड़े आएंगे प्रभो ,   सुन राधा का नाम।।

राधा गोपी मोहना, रास रचाते नित्य।
अगजग को रसमय करें, अद्भुत उनके कृत्य।।

राधा है संजीवनी,     भरती सबमें प्राण।
बिन राधा संसार से, मिले नहीं परित्राण।।

हाथ जोड़ कबसे सतत, करूँ विनय मदिराक्ष।
मिलें मुझे रासेश्वरी,      अब तो कृपा-कटाक्ष।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

फोटो गूगल से साभार

Thursday, 5 September 2024

रास्ता तुमने दिखाया...

जब थका तन हारता मन,
हौसला तब-तब बढ़ाया।
लक्ष्य पर नित बढ़ रही मैं,
रास्ता तुमने दिखाया।

बेबसी के उस प्रहर में,
ढा रहा था जग कहर जब।
सुर सधी आवाज भी ये,
हो रही थी बेअसर जब।
हर तरफ वीरानगी थी,
घिर रही थी दुख-भँवर में,
तब बढ़ाकर हाथ अपना,
पार तुमने ही लगाया।

एक कोने में पड़ी थी,
थे सभी सुख-साज दुर्लभ।
पंख फैला कल्पना के,
छू रही हूँ आज मैं नभ।
जब जहाँ भी मैं रही हूँ,
तुम सदा मन में रहे हो।
मैं भ्रमित थी राह में जब,
बढ़ सुपथ तुमने सुझाया।

क्या गलत है क्या सही है,
कुछ नहीं मुझको पता था।
कौन था बस एक तू, जो-
हाल मेरा जानता था।
जो मिला तुमसे मिला है,
सच कहूँ ये आज खुलकर,
सब तुम्हारी ही बदौलत,
आज कुछ जो कर दिखाया।

लक्ष्य पर नित बढ़ रही मैं,
रास्ता तुमने दिखाया।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)'गत आगत अनागत' से


Tuesday, 3 September 2024

पशु-पक्षी बेघर हुए...( वन्य जीव संरक्षण दिवस पर )

छाया दी जिस वृक्ष ने,    पोसा देकर अन्न।
आज उसी को काटता, मानव बड़ा कृतघ्न।।

चिड़िया बैठी सोच में, तिनका-तिनका जोड़।
रचूँ नीड़  किस  वृक्ष पर, कब मानव दे तोड़।।

बंदर बेघर हो रहे,  छिने ठिकाने-ठौर।
जाएँ तो जाएँ कहाँ, कौन करे ये गौर।।

छीन रहे हम स्वार्थ-वश, वन्य-जीव आवास।
पशु-पक्षी बेघर हुए,           झेल रहे संत्रास।।

नीड़-माँद उजड़े सभी, बिखरे तिनका-पात।
खग-मृग मन-मन कोसते, क्या मानव की जात।।

पादप सत के रोपिए,  पनपे अंतस - बोध।
अहं भाव को रोकिए, बस इतना अनुरोध।।

मिले फसल मनभावनी,        बिरबे ऐसे रोप।
फल आशा-अनुरूप हो, झलके आनन ओप।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'किंजल्किनी' से
फोटो गूगल से साभार

Sunday, 1 September 2024

मानते हो राम को तो...

मानते हो राम को तो....

मानते हो राम को तो,
मानना होगा तुम्हें ये।
हर अहं से दूर थे वे,
जानना होगा तुम्हें ये।

राम का मंदिर बनाकर,
किस कदर मगरूर थे तुम।
स्वार्थ के ही थे निकटतर,
राम से तो दूर थे तुम।
राम रमते रोम में हैं,
जानना होगा तुम्हें ये।

राम अब सेवक हमारे,
जो कहेंगे वो करेंगे।
चूर मद में सोचते तुम,
अब विजय हम ही वरेंगे।
सोच थी कितनी अपावन,
मानना होगा तुम्हें ये।

दिग्भ्रमित रावण हुआ था,
शिव सहित कैलाश लाकर।
अब बनूँगा मैं त्रिलोकी,
शंभु को मस्का लगाकर।
दंभ ले डूबा वही बस,
जानना होगा तुम्हें ये।

राम का तब राज्य होगा,
गुण वरो जो राम से तुम।
दुष्ट कितना कुछ कहे पर,
मौन संयम साध लो तुम।
आचरण बोलें तुम्हारे,
ठानना होगा तुम्हें ये।

द्वेष सब मन से निकालो।
राममय निज को बना लो।
नीति के पथ पर चलो नित,
राजनीति' ये बना लो।
सार क्या संसार में है,
छानना होगा तुम्हें ये।

शक्ति उसके उर समाती,
सत्य के पथ पर चले जो।
लाभ क्या उस बाहुबल का,
निर्बलों को ही छले जो।
राम क्या थे राज्य के हित,
जानना होगा तुम्हें ये।

थी परीक्षा ये तुम्हारी,
भूल सब अपनी सुधारो।
प्रभु कृपा से पास हो,अब
डूबती नैया उबारो।
राम के आदर्श क्या थे,
जानना होगा तुम्हें ये।

मानते हो राम को तो,
मानना होगा तुम्हें ये।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

"दशरथ नंदन राम"से

05 जून, 2024



Saturday, 31 August 2024

१ सितंबर- राष्ट्रीय क्षमा दिवस...

गलत अगर कोई करे, करें क्षमा का दान।
राह सुझाएँ सत्य की, हो सबका कल्यान।।

बैर बैर से ना मिटे, और सघन हो जाय।
क्षमा-भाव मन से वरो, प्रेम-जलद छलकाय।।

सहनशीलता अरु क्षमा, सीख धरा से यार।
कैसे अपनी पीठ पर, ढोती जग का भार।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
फोटो गूगल से साभार

जीवन तपमय बाज का...

करना है कुछ खास तो, बनो बाज से आप।
दृढ़शक्ति एकाग्र मना,    लेता नभ को नाप।।

नजर घनी शक्ति प्रचंड, कहते उसको बाज।
करता उच्च उड़ान भर, आसमान पर राज।।

जीवन तपमय बाज का, वरता दृढ़ संकल्प।
निर्णय ले जोखिम भरा, करता कायाकल्प।।

देख चुनौती सामने,   होता नहीं निराश।
सूझबूझ-संकल्प से, काटे दुख के पाश।।

एक समय जब अंग सब, देने  लगें जवाब।
सूझ बड़ी अपनी दिखा, ले आता नव आब।।

चोंच पटक चट्टान पर, देता खुद को चोट।
नयी निकल आने तलक, काढ़े चुन-चुन खोट।।

त्याग-लगन-एकाग्रता, मान बाज से सीख।
पाँच माह भूखा रहे,    मरे, न  माँगे भीख।।

जीवन-शैली बाज की, देती यह संदेश।
जीवन जीयो शान से, फटक न पाएँ क्लेश।।

© सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद

फोटो गूगल से साभार


Monday, 5 August 2024

चला आया घुमड़ सावन...

एक मुक्तक...

चला आया घुमड़ सावन, नहीं आए मगर साजन।
टपकती छत सतत मेरी, छवाऊँ अब कहाँ छाजन ?
दुलारा है तुम्हारा ये, मगर मुझको सताता है।
कहो भोले मुझे ही क्यों, बनाया कोप का भाजन ?

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )




Sunday, 4 August 2024

माँगती मन्नत सदा माँ....

घूँट पीकर भी जहर का,
बाँटती अमृत हमें माँ।
बाल बाँका हो न शिशु का,
माँगती मन्नत सदा माँ।

खुद पढ़ी या ना पढ़ी हो,
है प्रथम शिक्षक हमारी।
अंग ढीले पड़ गए पर,
कर रही तीमारदारी।
सौंपती जन्नत हमें पर,
हो रही उपकृत स्वयं माँ।

माँजती  संस्कार देती।
इक नया आकार देती।
परवरिश में संतति की,
सुख निजी सब वार देती।
कर्म नित ऐसे करें हम।
हर कदम आदृत रहे माँ।

पालती हमको जतन से,
पय पिलाकर पोसती है।
डाँटती भी जो कभी तो,
बाद खुद को कोसती है।
सीख शुभ संस्कार तुझसे,
सुत-सुता संस्कृत रहें माँ।

जब तलक हैं साथ माँ के,
तब तलक हम हैं सुरक्षित।
अन्नपूर्णा  माँ   हमारी,
रह न सकते हम बुभुक्षित।
जब तलक तेरा सहारा,
हम सदा आश्वस्त हैं माँ।

पूर्ण कर अरमान तेरे,
हम तुझे हर मान  देंगे।
जान-तन में तू बसी है,
तू कहे  तो जान देंगे।
धड़कनों में घुल समायी,
प्राण में झंकृत रहे माँ।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह "भाव अरुणोदय" में प्रकाशित

Monday, 22 July 2024

शिव सुंदर शिव सत्य


शिव सुखकर शिव शोकहर, शिव सुंदर शिव सत्य।
शिव से सोहें साज सब, शिव संसृति सातत्य।।

शिव-सेवा संलग्न सी, शिवमय शिवा शिवाय।
सुख-साधन सब शोक सम, शंकर सुभग सिवाय।।

आदिगुरू शिव को कहें, उपजा शिव से ज्ञान।
शिव से जीवन-जोत है, शिव से ही कल्यान।।

शिव बन शिव को पूजिए, रखिए मन-संतोष।
कृपा-मेघ बरसें सघन, भरे रिक्त मन-कोष।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद



फोटोज गूगल से साभार

Thursday, 11 July 2024

हर खुशी पाकर रहूँगी...

हर खुशी पाकर रहूँगी...

हर खुशी पाकर रहूँगी।
विश्व में  छाकर रहूँगी।

आसमां को   चूम लूँगी।
भर  खुशी में झूम लूँगी।
हैं अगर  छोटी  लकीरें,
कर जतन से  जूम लूँगी।

लिंगभेदी  मैं  पुराने,
गढ़ सभी ढाकर रहूँगी।

स्वार्थहित जो बात करते।
पीठ पीछे घात करते।
रात  की  रंगीनियों  में,
दिन किसी के रात करते।

कर्म काले उन सभी के,
सामने लाकर रहूँगी।

हौसला मिलता रहे बस।
मन-कमल खिलता रहे बस।
कामयाबी का सदा ये,
सिलसिला चलता रहे बस।

गूँज जिसकी हो गगन तक,
गीत वो गाकर रहूँगी।

साथ सबकी प्रीत लूँगी।
हर समर मैं जीत लूँगी।
जो हमें कमतर बताए,
मैं बदल  वो  रीत दूँगी।

जोश नर का चूर कर सब,
होश में लाकर रहूँगी।

गर्दिशों में गुम रहूँ क्यों ?
पाप नर के मैं सहूँ क्यों?
दे  डुबा  अस्तित्व  मेरा,
उस नदी में मैं बहूँ क्यों ?

थीं कभी वर्जित हमें जो,
उन गली जाकर रहूँगी।

हक सभी पाकर रहूँगी।
सत्य   मनवाकर रहूँगी।

विश्व में छाकर रहूँगी।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ. प्र.)
"दीपशिखा" में प्रकाशित

Tuesday, 9 July 2024

कहमुकरियाँ हिन्दी महीनों पर...

१-
आने से उसके आए बहार।
मौसम पे छा जाए निखार।
देख  उसे  हो  शीत  नपैत।
क्या सखि साजन ? ना सखि चैत।

२-
नया उछाह, नवजीवन लाता।
साथ सभी के घुलमिल जाता।
घटती कभी न उसकी साख।
क्या सखि साजन ? ना वैशाख।

३-
आग बबूला सदा वह रहता।
पारा दिनभर चढ़ा ही रहता।
गरम मिजाज   हठीला ठेठ।
क्या सखि साजन ? ना सखि जेठ।

४-
राहत  का  संदेशा  लाए।
अब्र सा तपते मन पर छाए।
संग लाए खुशियों की बाढ़।
क्या सखि साजन ? ना आषाढ़।

५-
तन-मन का  वह ताप मिटाए।
उस बिन अब तो रहा न जाए।
छुपा न जाने कहाँ मनभावन।
क्या सखि  साजन ? ना सखि सावन।

६-
नेह-समन्दर  खींच वह लाता।
उमड़-घुमड़ फिर बरसा जाता।
अता-पता कुछ ? तुम्हीं बता दो।
क्या सखि साजन ? ना सखि भादो।

७-
राहें मुश्किल   सुगम बनाए।
आ पपिहे की प्यास बुझाए।
शरद-चाँदनी    छिड़के द्वार।
क्या सखि साजन ? ना सखि क्वार।

८-
उत्सव कितने संग वो लाए।
घर-आँगन में   रौनक छाए।
मीठी लागे वाकी झिक-झिक।
क्या सखि साजन ? ना सखि कातिक।

९-
सूरत- सीरत    सबमें न्यारा।
माधव को भी है अति प्यारा।
नाम से उसके होती सिहरन।
क्या सखि साजन ? ना सखि अगहन।

१०-
थर-थर काँपे  माँगे प्रीत।
बड़ी अनूठी उसकी रीत।
जाता लिए बिना ना घूस।
क्या सखि साजन ? ना सखि पूस।

११-
संग लिए   आए मधुमास।
जगाए काम  बढ़ाए प्यास।
निपट निर्मोही मन का घाघ।
क्या सखि साजन ? ना सखि माघ।

१२-
सुखद नज़ारे  लेकर लाए।
रंग में अपने मुझे रंग जाए।
गुन में उसके छिपें सब अवगुन।
क्या सखि साजन ? ना सखि फागुन।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Sunday, 7 July 2024

कुछ दोहे...

रहता जल में ज्यों कमल, रहे जगत में राम।
माया से निर्लिप्त थे,     मायापति सुखधाम।।१।।

काँजी की इक बूँद से,     फटता नहीं समुद्र।
मान न घटता राम का, कह लें कुछ भी क्षुद्र।।२।।

अद्भुत संयम शील है,    नहीं आप सा अन्य।
चरण-आचरण आपके, करें जगत को धन्य।।३।।

मिले चरण-रज आपकी, धन्य बना लूँ प्राण।
जग के माया-जाल से, मिले तनिक तो त्राण।।४।।

वह भी उतना दुष्ट है,    करे दुष्ट का पक्ष।
अनुयायी अन्याय का, अन्यायी समकक्ष।।५।।

बाधक होते लक्ष्य में, कायरता- अविवेक।
सोच-समझ जो डग भरे, पाता मंजिल नेक।।६।।

सहिष्णुता-संयम-दया,    सेवा-प्रेम-विवेक।
करुणा-नय-औदार्य-सत्, गढ़ें धर्मपथ नेक।।७।।

बनते काम बिगाड़ती,  देती मन को खीज।
ऐन वक्त पर ऐंठती, किस्मत भी क्या चीज।।८।।

सबकी तुलना में जिसे, समझा सबसे खास।
घात लगा विश्वास में,      सौंप गया  संत्रास।।९।।

कोख हरी भू की करे, डाल बीज में जान।
परहित जीवन वार दे, घन सा कौन महान ?।।१०।

उजड़े उपवन-क्यारियाँ, बिगड़ा प्राकृत रूप।
पोषक भी शोषक हुए,   अम्ल उगलती धूप।।११।।

धूलि-कणों से बिद्ध हो, पौन सोचती मौन।
गंगा भी मैली जहाँ,     धुला दूध का कौन ?१२।।

अपने पर आयी बला,  रहे और पर डाल।
चूल्हे पर पर के चढ़ा, गला रहे निज दाल।।१३।।

समझ हमें सब आ गया, कितने हो तुम घाघ।
अगन भरे हो जेठ से,   बस दिखने के माघ।।१४।।

शिक्षा को समझो नहीं, दाल-भात का कौर।
चने चबाए लौह के,      मिले उसे ही ठौर।।१५।।

रोजगार सबको मिले,  रहे आत्म सम्मान।
बनें आत्मनिर्भर सभी, हो अपनी पहचान।।१६।।

©प्रो. सीमा अग्रवाल
 मुरादाबाद ( उ.प्र. )
 दोहा संग्रह 'किंजल्किनी' से

Tuesday, 25 June 2024

सखी फूटे करम मेरे....

बलम सब फूँक घर आया, सखी फूटे करम मेरे।
सुरा सौतन  बना लाया,    सखी  फूटे करम मेरे।
भला कैसा नशा छाया, खुशी गिरवी रखा आया।
गँवा सुख-चैन गम लाया, सखी फूटे करम मेरे।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"चयनिका" से

Saturday, 22 June 2024

अद्भुत माँ का रूप...

अद्भुत माँ की शक्तियाँ, अद्भुत माँ का रूप।
दर्शन दो माँ भक्त को,       धारे रूप अनूप।।१।।

वर दो माँ पद्मासने,             टूटे हर जंजीर।
भव-बंधन से मुक्त कर, हर लो मन की पीर।।२।।

नौ दिन ये नवरात्र के,   मातृ शक्ति के नाम।
मातृ भक्ति से हों सदा, सिद्ध सभी के काम।।३।।

पूजो माता के चरन,   ध्या लो उन्नत भाल।
वरद हस्त माँ का उठे, हर ले दुख तत्काल।।४।।

रिपुओं से रक्षा करे,    बने भक्त की ढाल।
बरसे जब माँ की कृपा, कर दे मालामाल।।५।।

कलुष वृत्ति मन की हरें, माता के नव रूप।
भक्ति-शक्ति के जानिए,   मूर्तिमंत स्वरूप।।६।।

नारी का आदर करें,     रख मन में सद्भाव।
कारक बने विकास का, नर-नारी समभाव।।७।।

जगत-जननी माँ अंबे,   ले मेरी भी खैर।
मैं भी तेरा अंश हूँ, समझ न मुझको गैर।।८।।

मधुर-भाव चुन चाव से, सजा रही दरबार।
मेरे घर भी अंबिके,  आना  अबकी  बार।।९।।

पलकों पे सपने लिए, लाँघे जब दहलीज।

बिटिया की माँ का हृदय, पल-पल उठे पसीज।।१०।।

© सीमा अग्रवाल

मुरादाबाद