Saturday, 16 November 2024

हक मुनासिब माँगती हूँ...

प्राण जो ये माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

क्या हमारा नाम इसमें,
सब तुम्हारा ही दिया है।
इंगितों पर ही तुम्हारे,
काम सब हमने किया है।
क्या गलत जो आज हमसे,
मूल्य उनका माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

हैं समर्पित प्राण ही क्या,
इंद्रियाँ भी पंच अर्पित।
है तुम्हारा अंश जितना,
आज हर वो अंश अर्पित।
क्यों शिकायत हो मुझे कुछ,
जो दिया वो माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

लो खुशी ये पीर भी लो।
ये धरा सा धीर भी लो।
मुक्ति दो भव-बंधनों से,
ये कफन ये चीर भी लो।
बन चुके हमदर्द अब जो,
दर्द वे क्या माँगते हो।
हक मुनासिब माँगते हो।

क्यों वणिक-व्यापार करते।
डाल चुग्गा प्राण हरते।
हो महाजन से नहीं कम,
कागजों पर काम करते।
मूल जो तुमने दिया था,
सूद उसका माँगते हो ?
हक मुनासिब माँगते हो।

मैं न जग को जानती थी।
लोभ तुमने ही दिया था।
जिंदगी से जो मिला फिर,
हँस गरल सब पी लिया था।
कामना तुमने जगाई,
मुक्ति उससे माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ।

अब न लालच जिंदगी का,
ढो न सकती भार फिर-फिर।
हार कर फिर पास आऊँ,
सह न सकती हार फिर-फिर।
बस क्षमा अब माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ। 

मैं न काबिल इस जगत के,
इस जहां में कौन मेरा।
क्या हुआ हासिल तुझे भी,
कह रहा सब मौन तेरा।
और न कुछ अब माँगती हूँ
त्राण जग से माँगती हूँ।
हक मुनासिब माँगती हूँ।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
'साहित्य सुमन' में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment