थोथी नींव पर छल-छद्म की...
थोथी नींव पर छल-छद्म की, बड़ी इमारत बना रहे हैं।
किसी और की कहन चुराकर, झूठी मुहब्बत गा रहे हैं।
कैसे इनको मानें सच्चा, कैसे इन पर करें भरोसा।
मार रहे हक अपनों का ही, अपनों को ही झुका रहे हैं।
गरल छिपा है भीतर इनके, आ न जाना बात में इनकी।
रक्खे मिश्री अधरपुटों पर, बेशक मन को लुभा रहे हैं।
बड़े जतन से पाल-पोस कर, सुख-साधन सब इन्हें जुटाए।
नेह भूल उन मात-पिता का, दिल उनका ये दुखा रहे हैं।
औरों को नाकाबिल मानें, खुद को समझें पहुँचा ज्ञानी।
सच्चे मन के सरल जनों को, मार लंगड़ी गिरा रहे हैं।
क्या समझेंगे दुख ये पर का, स्वार्थ-लिप्त नित रहने वाले।
बीज डालकर बैर-द्वेष का, फसल नफरती उगा रहे हैं।
कटे हुए ये जड़ से अपनी, रक्खेंगे क्या मान किसी का।
भूल जमीं को अपनी ही जो, गीत गगन के भुना रहे हैं।
© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
सजल काव्य संग्रह से
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