क्या करना उस मित्र का, मुँह पर करता वाह।
पीछे से चुगली करे, रखता मन में डाह।।१।।
मुश्किल आई देखकर, खींचें झट से हाथ।
रहें बनी के मित्र बस, करो न उनका साथ।।२।।
मुँह पर जो मीठा बने, छुप-छुप करता वार।
हमको ऐसे मित्र की, नहीं तनिक दरकार।।३।।
एक पक्ष चाहे जहाँ, बस अपनी ही जीत।
स्वारथ हो हर बात में, निभे न ऐसी प्रीत।।४।।
बाहर से मीठे बनें, हैं पर अति के दुष्ट।
खुद ही खुद को भाव दे, करें अहं संतुष्ट।।५।।
जहाँ-जहाँ गाँठें पड़ें, नीरस होता ईख।
द्वेष-गाँठ रस सोखती, लो इससे ये सीख।।६।।
बरस रही क्यों आजकल, हम पर कृपा विशेष।
ताड़ लिया मन आपका, भीतर कितना द्वेष।।७।।
आज हमें जो बाँटते, आँसू की सौगात।
कोई उनसे पूछता, क्या उनकी औकात।।८।।
बिलावजह बातें बना, कर कोरी बकवास।
तुच्छ चना बाजे घना, कर पर का उपहास।।९।।
सच इक कोने में खड़ा, बिलख रहा ईमान।
पौ बारह अब झूठ की, मिले उसी को मान।।१०।।
मिलकर रहता एक दिन, सच्चाई को मान।
लाख रंग-रोगन करो, टिके न झूठी शान।।११।।
© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से
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