झपें पलक न मेरी तब तक
मिले झलक न तेरी जब तक
बेखुदी में चल रहा जीवन
इसी आस में तब से अब तक
जी रही हूँ मैं मर मरकर
कब रुक जाए गति जीवन की
क्या मालूम !
शायद कहीं किसी मोड़ पर
ढूँढ तुम्हें लें अँखियाँ मेरी
जनम जनम की प्यास मिटे
खो जाऊँ तुममें तुमसे लिपट कर
ध्येय यही बस अब जीने का
कितने जनम रूह भटकेगी
क्या मालूम !
काँधे पर मेरे सर तुम रख लो
दे दो मुझे गम सब तुम अपने
भीगीं अँखियाँ भटकते अरमां
सिसक रहे हैं तुम बिन सपने
क्या क्या और लिखा भाग्य में
कितनी तड़पन और है बाकी
क्या मालूम !
निहारें तुम्हें जी भरके अँखियाँ
एकटक , अपलक औ अविराम
यही चाह बस , यही है मंजिल
लूँ चरणों में तुम्हारे महा विश्राम
छँटेगा अंधेरा,मन उबरेगा
मुझे क्या मेरा चाँद मिलेगा
क्या मालूम !
-सीमा अग्रवाल
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