Saturday, 31 January 2015

मैंने तुमको देखा- देखा अनुपम रूप तुम्हारा !

यूँ ही सदा की तरह
दो आँखें
बुन रही थीं ख्वाब
ऊंगलियाँ चल रही थीं
अनथक
कभी बनती-सी लगती आकृति
बिगड़ जाती पर
तत्क्षण !
हँसती आँखों से
लरज गिरते दो आँसू
घुल मिल जाते
उस छवि में
जिसे आंकने में
बर्ष दर बर्ष
बीतते रहे
कहीं कुछ न कुछ
कसर
रह ही जाती थी
क्यों नहीं
बन पाता था अक्स सही
बस सोचती रह जाती थी
कभी मुंद जातीं पलकें
थक कर बेसुध-सी
आज भी तो
ऐसे ही
आंकती छवि तुम्हारी
कब लुढ़क गिरी कहाँ
कुछ होश रहा न अपना
सहसा खुमारी में
नींद की
होने लगा कुछ अहसास
बिचित्र-सा
मोहक-सा
उन्मादक
अपनी ओर खींचता-सा
बनने लगी शनैः शनैः
आकृति एक
अलौकिक-सी
खुद ब खुद
उफ ! ये रूप
हाँ वही तो था हूबहू
आंकने में जिसे
बिछल गयीं थीं
ऊंगलियाँ मेरी
बीत गए थे युग अनगिन
उफ !
क्या रूप माधुरी थी
समा न पाती थी आँखों में
कहीं कुछ
छूट ही जाता था
अब जाना मैंने
पल पल नूतन होते
अद्वितीय इस रूप को
कैसे आँक पाती मैं
कैसे कर पाती आबद्ध
व्यापकता
असीमता
उसकी
वो तो समाया था
सृष्टि के कण-कण में
नहीं था मात्र
देह एक
बंधता कैसे
लघु पाश में मेरे
वो था असीम
और मैं !
नन्ही-सी
निकली उससे ही
सीमा एक !

-सीमा

Sunday, 18 January 2015

छुपे कहाँ हो सूरज अंकल

मुँह छिपाकर सर्दी से
      छुपे कहाँ हो सूरज अंकल !
उषा आंटी को भेज जग में
       रुके कहाँ हो सूरज अंकल !

सोलर सिस्टम के हो चीफ
  फिर भी इतने लेट लतीफ
  मनमानी ऐसी नहीं चलेगी
  सुन लो अंकल ! यू इन ब्रीफ !

रोज ही तो देर से आते हो
फिर बहाने खूब बनाते हो
नभ के ठिठुरते कागज पर
दस्तखत भर कर जाते हो !

दिखाकर अपनी एक झलक
फिर जाने कहाँ छुप जाते हो
देख दयनीय हालत हमारी
क्यूँ इस तरह मुस्कुराते हो !

तुम्हारी इस लेटलतीफी से
रुक जाते व्यापार जग के
कैसे चले जग बिना तुम्हारे
तुम ही तो आधार जग के !

कुहरे ने जाल पसारा देखो
ठंड का रुके न तांडव देखो
शीत ऋतु ने बोला है धावा
फहरा उसका परचम देखो !

गर तुम ही न सामने आओगे
विपक्षी से डर छिप जाओगे
छोड़ के यूँ पौरुष तुम अपना
क्या कायर नहीं कहलाओगे !

दिखाओ उग्र रूप सरदी को
बल का अपने प्रचार करो
बहुत सताया उसने हमको
अब तुम उस पर प्रहार करो

ठहर न जाए गति जीवन की
इस पर तनिक विचार करो
चेतना फूँक प्राणों में जग के
नवजीवन का संचार करो !

-सीमा अग्रवाल

Thursday, 15 January 2015

जनवरी की सर्द रात

जनवरी की
सर्द रात
मन पर
बर्फ गिरी थी
हर मचलती तरंग
ओले-सी
जमी पड़ी थी
भोर हुई
सूरज भी आया
कई दिनों के बाद
देख उसे
लगता था ऐसा
हो जैसे
ईद का चाँद
फिर उसने जो
आँख दिखाई
रक्तिम क्रोध से उसके
डर भागी
बर्फ दीवारें फाँद
शीत लहर अब
चली है मन में
आँचल उड़े
अरमानों का
नटखट मौसम
चला आया अब
प्यार भरे
वरदानों का ।

-सीमा अग्रवाल

Monday, 12 January 2015

होंठ सी लिए अश्क पी लिए

होंठ सी लिए !
अश्क पी लिए !
जमाने के लिए हम
ऐसे भी जी लिए !

दूर चले आए
दर से तुम्हारे
गठरी एक
गम की लिए !

तूफानों से तनहा
जूझ रहे हैं
डगमगाती-सी
कश्ती लिए !

तंज करेगी
क्या ये दुनिया
किस बात पर
और किसलिए !

विछोह के ऐसे
दंश हमने
उसकी खातिर
ही लिए !

-सीमा अग्रवाल

Thursday, 8 January 2015

गिरते अश्कों की लय पर मैंने---

गिरते अश्कों की लय पर मैंने
गुनगुनाना सीख लिया है !
हिलमिल कर अब साथ गमों के
मुस्कुराना सीख लिया है !

बीत गए अब वो दिन मेरे
अरमां जब मचला करते थे !
जिद में चाँद को छूने की तब
कितना ये उछला करते थे !
       समझा बुझा अब इनको मैंने
       रस्ते पे लाना सीख लिया है !

बात-बात पर इन आँखों में
कितने आँसू भर आते थे !
बह न जाएँ बाढ़ में इनकी
देखने वाले डर जाते थे !
       जन्म लेने से पहले ही इन्हें अब
       दिल में दफनाना सीख लिया है !

बड़ी से बड़ी मुश्किल को मैंने
गले लगाना सीख लिया है !
हिलमिल कर अब साथ गमों के
मुस्कुराना सीख लिया है !

-सीमा अग्रवाल

Tuesday, 6 January 2015

मैं हूँ उसकी सीमा विस्तार है वो मेरा

कह दो इन आँसुओं से वापस न आना
मुझे साथ सनम के भाता है मुस्कुराना !

रूठा है न जाने, आज क्यों वो मुझसे
तेवर तो देखो उसके कैसे कातिलाना !

जाऊँ कहाँ मैं ये तो जानता है वो भी
उस बिन न जहां में, कोई मेरा ठिकाना !

लाख जतन कर कर के हाय ! मैं तो हारी
कोई तो सिखाए, कैसे है उसे मनाना !

मैं हूँ उसकी सीमा विस्तार है वो मेरा
किस ओर उसे मैं ढूँढू, कहाँ उसका आशियाना !

-सीमा अग्रवाल

मैं हूँ उसकी सीमा विस्तार है वो मेरा

कह दो इन आँसुओं से, वापस न आना
मुझे साथ सनम के, भाता है मुस्कुराना !

रूठा है न जाने, आज क्यों वो मुझसे
तेवर तो देखो उसके, कैसे कातिलाना !

जाऊँ कहाँ मैं ये तो, जानता है वो भी
उस बिन न जहां में, कोई मेरा ठिकाना !

लाख जतन कर कर के, हाय ! मैं तो हारी
कोई तो सिखाए, कैसे है उसे मनाना !

मैं हूँ उसकी सीमा, विस्तार है वो मेरा
किस ओर उसे मैं ढूँढू, कहाँ उसका आशियाना !

-सीमा अग्रवाल

ढल के तुम में,मैं तुम हो गयी

ढल के तुम में , मैं तुम हो गयी
तुम में ही अब , मैं गुम हो गयी !
छुपी हूँ देखो ! दिल में तुम्हारे
तुम समझे मैं रुखसत हो गयी !

क्यूं विचलित औ परेशां हो तुम
मुझ अभागन की तो जां हो तुम
मेरा न यहाँ कोई पता ठिकाना
बस एक अकेली पहचान हो तुम
        निशां न मेरा अब कोई जग में
        सदा को तुम में मैं गुम हो गयी !

तुम संग हँसती , तुम संग रोती
तुम संग जगती , तुम संग सोती
चुराके तुम्हारी पलकों से आँसू
आँचल में अपने उन्हें संजोती
         चाँद से जब तुम चमके जग में
         मैं माथे की कुमकुम हो गयी !

तुम सुमन हो मैं सुगंध तुम्हारी
तुम चमन हो और मैं फुलवारी
तुम हो चाँद मैं किरन तुम्हारी
तुम आधार मैं छाया तुम्हारी
         तुमसे निकलती तुममें ढलती
         सर से पां तुम ही तुम हो गयी !

ढल के तुम में, मैं तुम हो गयी
तुम में ही अब मैं गुम हो गयी !

-सीमा अग्रवाल

ये चोला तो जर्जर लगता है

सूना सूना ये जग लगता है
तुम बिन तनहा डर लगता है
नींद नहीं आती आँखों में,
हर सपना बंजर लगता है ।

पास बुला लो गले से लगा लो
हमको अपने साथ सुला लो
फिरा लेना यूँ नजरें तुम्हारा,
दिल पर बन खंजर लगता है ।

कोई सुखी नहीं इस जग में
काँटे बिखरे हैं सबके मग में
हर चेहरे की खुशी है जाली,
मरघट सा हर घर लगता है ।

अब रिश्तों में वो ताव नहीं
वो पहले जैसे भाव नहीं
अनचीन्हे लगते चेहरे सारे
बदला सब मंजर लगता है ।

कब तक चिथड़े में जीते रहेंगे
कब तक उधड़न सीते रहेंगे
दे दो प्रानों को बसन नया,
ये चोला तो जर्जर लगता है ।

-सीमा अग्रवाल

Monday, 5 January 2015

धर्म का मर्म जाने बिना----

धर्म का मर्म जाने बिना
करो न उस पर कोई प्रहार
धर्म है तो कर्म है,और
कर्म से ही तो ये संसार ।

और आस्था स्वधर्म पर
माँजती रही सदा संस्कार
खिलवाड़ यदि उससे हुआ
तो होगा जग में हाहाकार ।

-सीमा अग्रवाल

Sunday, 4 January 2015

तेरे लिए

जी रही हूँ मैं तो यारा हर पल बस तेरे लिए
तू नहीं तो इस जहां में रखा है क्या मेरे लिए
बचाती रही हूँ मौत को खुद से सदा तेरे लिए
जीना होगा हँसकर तुझे भी ए सनम मेरे लिए

-सीमा अग्रवाल

Saturday, 3 January 2015

क्या मालूम !

झपें पलक न मेरी तब तक
मिले झलक न तेरी जब तक
बेखुदी में चल रहा जीवन
इसी आस में तब से अब तक
जी रही हूँ मैं मर मरकर
कब रुक जाए गति जीवन की
क्या मालूम !

शायद कहीं किसी मोड़ पर
ढूँढ तुम्हें लें अँखियाँ मेरी
जनम जनम की प्यास मिटे
खो जाऊँ तुममें तुमसे लिपट कर
ध्येय यही बस अब जीने का
कितने जनम रूह भटकेगी
क्या मालूम !

काँधे पर मेरे सर तुम रख लो
दे दो मुझे गम सब तुम अपने
भीगीं अँखियाँ भटकते अरमां
सिसक रहे हैं तुम बिन सपने
क्या क्या और लिखा भाग्य में
कितनी तड़पन और है बाकी
क्या मालूम !

निहारें तुम्हें जी भरके अँखियाँ
एकटक , अपलक औ अविराम
यही चाह बस , यही है मंजिल
लूँ चरणों में तुम्हारे महा विश्राम
छँटेगा अंधेरा,मन उबरेगा
मुझे क्या मेरा चाँद मिलेगा
क्या मालूम !

-सीमा अग्रवाल