Thursday 28 August 2014

कुछ दोहे ---

सोनचिरैया देश यह, था जग का सिरमौर !
महकाती सारा जहां, कहाँ गई वह बौर !!

रक्षक ही भक्षक बने, खींच रहे हैं खाल !
हे प्रभु ! मेरे देश का, बाँका हो न बाल !!

आरक्षण के दैत्य ने, प्रतिभा निगली हाय !
देश रसातल जा रहा, अब तो दैव बचाय !!

झांसे में न आ जाना, सुन कर मीठे बोल !
दिल की सुनना बाद में, लेना बुद्धि से तोल !!

बेरोजगारी बढ रही, जनसंख्या के साथ !
बीसियों पेट भर रहे, केवल दो ही हाथ !!

भाई-चारा मिट गया, आया कैसा दौर !
एक भाई छीन रहा, दूजे मुख से कौर !!

मुंह से निकली बात के, लग जाते हैं पैर !
बात बतंगड गर बने, बढ जाते हैं बैर !!

धन दौलत औ शोहरत, तेरी उत्कट चाह !
चल पडा तू तो पगले, बरबादी की राह !!

चंद सिक्कों के लोभ में, बेचो मत ईमान !
जिस दिन भांडा फूटेगा, कहाँ रहेगा मान !!

पुण्यात्मा के हाथ भी, हो जाते हैं पाप !
प्रायश्चित का वारि तब, धोता उनकी छाप !!

फल तो उसके हाथ है, करना तेरे हाथ !
निरासक्त हो कर्म कर, देगा वो भी साथ !!

यह सभ्यता यह संस्कृति, यह वाणी यह वेष !
कुछ भी तो अपना नहीं, बचा नाम बस शेष !!

मरा मरा का जाप कर, डाकू बना महान !
राम राम मैं नित जपूँ, कब होगा कल्यान !!

-सीमा अग्रवाल,
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )

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