Saturday 23 August 2014

अपनी जमीं पर...

आसमाँ सा ऊँचा उठकर,
झिलमिल सपनों में खो जाऊँ।
दीन-हीन की पीन पुकार,
एक बधिरवत् सुन  पाऊँ।

सागर-सी गहराई पाकर,
अपने सुख मेँ डूबूँ-उतराऊँ,
गम मेँ किसी के गमगीँ होकर,
आँसू भी दो बहा  पाऊँ।

तोनहीं चाहिए ऐसी उच्चता,
और  ऐसी गहराई।
इससे तो मैं अच्छा हूँ,
अपनी जमीं पर ठहरा ही।

अपनी जमीं पर अपनों के संग,
सुख-दुख मिलकर बाटूँ।
पनप रही जो बैर की खाई,
प्यार से उसको पाटूँ।


-डॉसीमा अग्रवाल



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