आसमाँ सा ऊँचा उठकर,
झिलमिल सपनों में खो जाऊँ।
दीन-हीन की पीन पुकार,
एक बधिरवत् सुन न पाऊँ।
सागर-सी गहराई पाकर,
अपने सुख मेँ डूबूँ-उतराऊँ,
गम मेँ किसी के गमगीँ होकर,
आँसू भी दो बहा न पाऊँ।
तो, नहीं चाहिए ऐसी उच्चता,
और न ऐसी गहराई।
इससे तो मैं अच्छा हूँ,
अपनी जमीं पर ठहरा ही।
अपनी जमीं पर अपनों के संग,
सुख-दुख मिलकर बाटूँ।
पनप रही जो बैर की खाई,
प्यार से उसको पाटूँ।
-डॉ. सीमा अग्रवाल
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