रूप का उसके कोई न सानी, प्यारा-सा अलवेला चाँद
निहारे धरा को टुकुर-टुकुर, गोल मटोल मटके-सा चाँद
चुपके-चुपके साँझ ढले वह, नित मेरी गली में आता
नजरें बचाकर सारे जग से, तड़के ही छिप जाता चाँद
सहज-सरल औ रजत-धवल है, स्निग्ध वपु नवल-विमल
तुम्हारे शहर से तो उजला है, मेरी गँवई बस्ती का चाँद
जब भी दौड़ूँ उसे पकड़ने, हाथ न मेरे कभी वह आए
औचक छिटक जा पहुँचे नभ में, माला के मनके-सा चाँद
भाव दिखाकर उछल अदा से, दूर गगन में जा बैठे
नभ में तन्हा मारे फिर मक्खी, मंदी के धंधे-सा चाँद
दूषित हवा के पड़े थपेड़े, आनन विवर्ण हुआ उसका
पाण्डु रोग से पीड़ित लगता, जर्द पड़ा हल्दी-सा चाँद
पकड़ न आये शरारत उसकी, शातिर बड़ा हुनर वाला
रात-रात भर विचरे अकेला, आवारा लड़के-सा चाँद
जब-जब भी मैं उसे पुकारूँ, जा छुपे बदली की ओट
कितना मनाऊँ न माने पर, क्या जानूँ क्यों रूठा चाँद
राह तक-तक नयना हारे, न जाने कहाँ छुपा है निष्ठुर
उमर उसे लग जाये मेरी, प्रभु रहे सलामत मेरा चाँद
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
No comments:
Post a Comment