मुक्तक ...
1222 1222 1222 1222
न खाते फल तरू अपने, न पीती जल नदी अपना,
बरसते मेघ परहित में, न रखते स्वार्थ ये अपना,
गगन में चाँद सूरज भी, जगत हित रोज आते हैं,
सुजन जग में जनम लेकर, निभाते फर्ज हर अपना ।१।
नहीं रोते कभी गम में, खुशी पाकर न हँसते हैं,
रखें मन शांत सुख-दुख में,निभाते खूब रिश्ते हैं,
जमाने के सभी वैभव, सदा फीके लगें जिनको,
बड़े दुर्लभ सुजन ऐसे, धरा पर वे फरिश्ते हैं।२।
कहीं सूखा कहीं बाढ़ें, अजब जग के नजारे हैं,
कहीं घनघोर बारिश है, कहीं सूखे किनारे हैं,
उजालों औ अँधेरों में, छुपा है सार जीवन का,
धरा आकाश मिल दोनों, करें गुपचुप इशारे हैं।३।
उधर देखो झुपड़पट्टी, वहाँ इक नार रहती है,
धरा सिर बोझ है उसके, धरा सा भार सहती है,
घटा घुमड़ जब आती है,भिगोकर खूब जाती है,
इधर आँसू बरसते हैं, नदी उस पार बहती है।४।
गजब छायी बहारें हैं, अजब जग के नजारे हैं,
जरा देखो उधर सजना, उतर आए सितारे हैं,
गगन खामोश तकता है, धरा बेहाल दिखती है,
कहीं शोले कहीं शबनम, कहीं दिखते शरारे हैं।५।
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
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