घर से चिर-विदा लेते समय पिता की
तरफ से स्वजनों को अन्तिम संबोधन-
मेहमां बनकर आए थे जग में,
लौट अब घर की ओर चले !
अथाह प्रेम था पाया जिनसे,
बाँध नेह की डोर चले !
कितना अटूट जुडा था नाता,
टूटा तो सब बिखर चले !
जिन पलकों पर बैठा करते,
आँसू बन उनसे ढुलक चले !
मेरा घर, घरवाले क्या,
कोई न मेरे साथ था !
आया था जब दुनिया में,
मैं तो खाली हाथ था !
पाया यहीं था सकल साज,
छोड यहीं सब आज चले !
यूँ अश्क न बहाओ रो रोकर,
विदा करो मुझे तुम खुश होकर !
यू तो मैं भी क्या खुश हूँ बोलो,
तुम जैसे प्यारे स्वजन खोकर !
जाना ही होता, उसको जग से ,
जब जीवन की जिसके साँझ ढले ।
( मां के प्रति )
मेरे कुछ दायित्व अधूरे हैं,
जिम्मेदारी उनकी तुम पर है !
अपने से ज्यादा, सच कहता हूँ ,
मुझे रहा भरोसा तुम पर है !
तुम्हें मेरी जगह भी लेनी है,
यूँ रोने से कैसे काम चले !
बिटिया को विदा भी करना है !
सूने घर को भी तो भरना है !
बहू आए, खुशहाली लाए,
वंश भी तो आगे बढना है !
कुछ अधूरी साधें अपनी,
काँधे पे तुम्हारे डाल चले !
( भाई के प्रति )
बेटा ! तुम रखना माँ का ध्यान,
माँ की सेवा में ही है कल्यान !
माँ के एक इशारे पर ही,
किया है मैंने महा प्रयाण !
थके प्राण माँ के आँचल में,
लेने आज विश्राम चले ।
क्या कुदरत का खेल है देखो !
कुछ न किसी पर रहे बकाया !
आज हमारे बच्चों ने भी,
अपना सारा कर्ज चुकाया !
जिन्हें बिठाया था काँधों पर
काँधे पे उन्हीं के आज चले !
मैं सदा रहूँगा बीच तुम्हारे !
मिटेंगे न पल जो साथ गुजारे !
जीवन-फलक पर अमिट रहेंगे,
बने जो तुम संग चित्र हमारे !
तनहाई में देने साथ तुम्हारा,
यादों का अलबम छोड चले !
सजल घटा-सी यह काया थी !
उस असीम की लघु छाया थी !
मोहपाश बँधे तुम बिलख रहे क्यों,
जो तुम्हें लुभाती,बस माया थी !
जिस विराट से हुए अलग थे,
सिमट उसी में आज चले !
मेहमां बनकर आए थे जग में,
लौट अब घर की ओर चले !!
डाॅ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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