Monday, 21 April 2025

पृथ्वी माँ सी पूज्य है...

पृथ्वी माँ सी पूज्य है, रक्खो सदा सहेज।
हरी-भरी हँसती रहे,  खुशियों से लबरेज।।

जननी सा पाले हमें,    देती जीवन-दान।
भार बनो मत मानवों, करो धरा का मान।।

ये  नैसर्गिक संपदा, कुदरत के उपहार।
पृथ्वी सबकी एक है, सब हैं भागीदार।।

वृक्षों का रोपण करो, रहे धरा संपन्न।
हरियाली चहुँ ओर हो, बहुविध उपजे अन्न।।

घर-घर ए.सी. लग रहे, बढ़ा धरा का ताप।
ताल-सरोवर  सूखते,     कौन हरे संताप ?।।

सुविधा बनी विलासिता, बढ़ते लालच भोग।
घुन बन जीवन लीलता, महा स्वार्थ का रोग।।

धरती रुग्णा हो रही,     घटती अनुदिन श्वास।
कीमत पर अस्तित्व के, क्यों ये भोग-विलास ?।।

वनीकरण संकल्प ले,     रोकें तुरत कटान।
निकट अन्यथा जानिए, जीवन का अवसान।।

चलें पलट इक बार फिर, विगत दिनों की ओर।
रजत चाँदनी में नहा,          चूमें स्वर्णिम भोर।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"दोहा संग्रह" से

फोटोज गूगल से साभार

Saturday, 19 April 2025

हो सका कब ख्वाब अपना...



ख्वाब ही देखा किए हम, हो सका कब ख्वाब अपना।
प्यार की खातिर जिए हम, हो सका कब प्यार अपना।

याद है तुमने कहा था, साथ छोड़ेंगे न अब हम।
लाख मुश्किल रोज आएँ, मुँह न मोड़ेंगे कभी हम।
एक है मंजिल हमारी, साथ मिल पथ तय करेंगे।
प्राथमिकता क्या हमारी, मिल प्रथम निश्चय करेंगे।
पर कहाँ है आज प्रण वो, है कहाँ वो आज सपना।

जो दुआ देते तुम्हें नित, तुम उन्हीं को चोट देते।
ढाँपने गलती सभी फिर, फलसफों की ओट लेते।
टालना आदत तुम्हारी, मुकरना पहचान भर है।
फर्ज सारे भूलते तुम,ज्ञात बस अधिकार भर है।
छद्म ले डूबा हमें हा, शेष अब नित-नित तड़पना।

झूठ के भी पाँव होते, क्या कभी ऐसा सुना है ?
सत्य को छल से फँसाने, जाल फिर ये क्यों बुना है ?
झूठ कितना भी बली हो, सत्य पर झुकता कहाँ है।
राह सच की चल पड़ा जो, फिर कदम रुकता कहाँ है।
साँच पर यदि आँच आए, जानते उससे निपटना।

प्यार की खातिर जिए हम, हो सका कब प्यार अपना।
ख्वाब ही देखा किए बस, हो सका कब ख्वाब अपना।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)
"कलम किरण" से

दोहे एकादश...

तुलना मेरी आपकी, कैसे हो प्रभु मान्य ?
आप महकता खेत हैं, मैं अदना सा धान्य।।१।।

करो समर्पण राम सा,  सीता सा संघर्ष।
जो तुम चाहो देखना, प्रेम - नेम उत्कर्ष।।२।।

चढ़ा आवरण झूठ का, दिखते हैं झक्कास।
कहने भर के ठाठ बस, भीतर से खल्लास।।३।।

एक किनारे से बँधी, नाव न करती पार।
चलना ही जीवन समझ, चलकर उतरे पार।।४।।

तट से जो नौका बँधी, गाँठ बाँधती छार।
अकर्मण्यता जीव की, केवल भू पर भार।।५।।

नींद न आती रात भर, मन में उठें फितूर।
ख्याली घोड़े  दौड़ते, सरपट कितनी दूर।।६।।

भेजा मेला देखने,     देखा- हुए निहाल।
पलट बुलाएँ तात जब, जाएंगे तत्काल।।७।।

अजब यहाँ माहौल है, अजब यहाँ के खेल।
ऐसे जग के साथ प्रभु,     मिले न मेरा मेल।।८।।

माँ मेरी मुझसे कहे, लगा न जग से नेह।
चंद दिनों रहकर यहाँ, जाना अपने गेह।।९।।

बस्ती में डाका पड़ा, घर-घर में अति शोर।
निर्धन चिन्ता क्या करे, क्या ले लेगा चोर ?।।१०।।

दौलत बढ़ती देखकर, बढ़ जाता मन-कूप।
अंत न होता चाह का, आती धर  नव रूप।।११।।

© डॉ. सीमा अग्रवाल
   मुरादाबाद ( उ.प्र. )
   "कल्पलता" काव्य संग्रह से

Monday, 7 April 2025

#राष्ट्रीयसबहमारादिवस

माँ प्रकृति के चरणों में....

जीवन जो तुमसे पाया है, कैसे उसका आभार करें।
नमन तुम्हें हम करते हैं माँ, निज शीश झुका,    स्वीकार करें।

तुम कुदरत हो तुम प्रकृति हो, 
तुम तो माँ की भी माता हो !
वक्त तुम्हारी शय पर चलता, 
तुम जग की भाग्य-विधाता हो !
नदी-सरोवर, चाँद- सितारे
जीव चराचर  जग के सारे
सब ही अपने बंधु-सखा हैं, क्यों बीच खड़ी दीवार करें।
नमन तुम्हें हम करते हैं माँ ! निज शीश झुका,    स्वीकार करें।

आ तो गए हम कोख से माँ की, 
पर स्पंदन तुमसे पाया है।
जीवन-सजीवन ऑक्सीजन दे, 
प्राणों को तुमने जिलाया है।
मान गए हम, जान गए हम, 
पत्ता भी तुमसे हिलता है।
भोली सी छवि आँक तुम्हारी, मूरत दिल में साकार करें।
नमन तुम्हें हम करते हैं माँ ! निज शीश झुका,    स्वीकार करें।

आतप-छाँह, जल-वायु देकर,
माटी में अपनी पोसा है।
खुशियाँ सकल जुटाईं हमको
तोड़ा हमीं ने भरोसा है।
इतने हैं उपकार तुम्हारे,
उऋण कभी क्या हो पाएँगे ?
स्वार्थ तजें परहित में रत हों, आत्म-तत्व का विस्तार करें।
नमन तुम्हें हम करते हैं माँ ! निज शीश झुका,    स्वीकार करें।

शपथ हमें दामन पे तुम्हारे, 
आँच न कोई आने देंगे।
बरसें सावन खुशियों के बस, 
मेघ न गम के छाने देंगें।
ज्यादा नहीं हमें कुछ लेना 
जो भी लेना, बढ़कर देना
इक दूजे से पाएँ भर-भर, प्रेम का सरल व्यापार करें
नमन तुम्हें हम करते हैं माँ ! निज शीश झुका,    स्वीकार करें।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
8 अप्रैल,
#राष्ट्रीयसबहमारादिवस
फोटो गूगल से साभार

Sunday, 6 April 2025

आओ बेर चुनें नेकी के...

कण-कण व्यापी राम, घट-घट व्यापी राम।
गूँजे चहुँ दिशि नाम, नहीं राम सा नाम।
महाबली श्रीराम,    साधें सबके काम।
जप ले मनवा राम, भज ले सीता राम।

बजें नगाड़े ढोल दुंदुभी,    मंदिर घंटा नाद करें।
रामभक्ति की रामभक्त मिल, एक नयी बुनियाद धरें।
कथा श्रवण कर हम रघुवर की, राम नाम का जाप करें।
माया के पचड़ों में पड़कर, वक्त न अब बरबाद करें।

सुमिरन जिसके नाम का, साधे सारे काम।
मनके उसके नाम के,    फेरूँ सुबहो शाम।।
राम नाम की संपदा, अक्षय सुख-भंडार।
राम नाम के जाप से,   सबका बेड़ा पार।।

आओ बेर चुनें नेकी के, आएँगे तब काम।
दर्शन देने हमको भी जब,आएँगे श्री राम।
सत्कर्मों की बाँध पोटली, रक्खें कहीं सँभाल।
अंतिम सफर अकेले करना, यही बनेगी ढाल।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"मुक्तक माल" से

Saturday, 5 April 2025

जय जय जय श्री राम....

चैत्र मास की तिथि नवम्, लिया राम अवतार।
कौशल्या की कोख से,    उपजा जग-कर्त्तार।।

सूर्य किरन से देखिए, दीपित राम ललाट।
ले  दर्शन की लालसा, भक्त  जोहते वाट।।

जयकारे प्रभु नाम के, गूँज रहे चहुँ ओर।
अब तक जो उलझे रहे, सुलझ रहे सब छोर।।

श्याम शिला निर्मित वपु,      मोहे छटा अनूप।
बरबस मन वश में करे, प्रभु का बाल स्वरूप।।

जलमय संकुल मेघ सम, श्याम बरन प्रभु राम।
मन पुष्पित-पुलकित करें,  सरस-बरस घनश्याम।।

कंठा कंगन करधनी, केसर कुंकुम भाल।
उर शोभित कौस्तुभमणि, गल वैजंतीमाल।।

शोभित पैजनियाँ छड़ा, पाँव महावर लाल।
स्वर्ण मुकुट मस्तक फबे, कुंडल पदिक कमाल।।

कोटि प्रभाएँ सूर्य की, आभा मंडित रूप।
नैना मादक रसभरे,    भरे सभी मनकूप।।

इच्छाएँ भटकें नहीं, मिले धीरता-दान।
शील वरें सब राम-सा, करें जगत-उत्थान।।

नजर पड़े जिस ओर भी, उसी नजर में राम।
हर बोली हर बोल में,     समा  गए  हैं  राम।।

बिना राम के नाम के, सरे न कोई काम।
जीवन के हर कर्म में,    रमे हुए हैं राम।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
फोटो गूगल से साभार

बात ही कुछ उन दिनों की....

बात ही कुछ उन दिनों की...

उन दिनों की बात में रस।
उन दिनों की रात में रस।
उन दिनों मौसम हसीं था,
उन दिनों बरसात में रस।

उन दिनों बातें निराली।
उन दिनों रातें उजाली।
उन दिनों सब कुछ सुखद था,
उन दिनों हर ओर लाली।

उन दिनों हर दिन रँगीला।
उन दिनों सावन सजीला।
साँझ पलकों पर उतरती,
आँजती अंजन लजीला।

उन दिनों हँसना सरल था।
भावभीना   मन तरल था।
बोल अमृत से सने थे,
उन दिनों कब ये गरल था।

उन दिनों को याद करके,
आँख से आँसू बरसते।
उन दिनों की बात क्या,अब
बात करने को तरसते।

आज भी ठहरे वहीं हम,
उन दिनों को जी रहे हैं।
रिस रहा हर पोर से जो,
अर्क  नेहिल  पी  रहे हैं।

हूक सी मन में उठी है,
उन दिनों को छीन लाएँ।
टूटकर छिटकी कहीं जो,
हर कड़ी वो बीन लाएँ।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
"गीत सौंधे जिंदगी के" से

या देवी सर्वभूतेषु...



माँ गौरी श्वेताम्बरा, चंद्रवदन अवदात।
दंत कुंद की पाँखुरी, मंद-मंद मुस्कात।।

चंद्र कुंद अरु शंख सम, शुभ्र वर्ण अम्लान।
वरमुद्रा वरदायिनी,    देती शुभता दान।।

श्वेत वृषभ आरूढ़ हो, धारे हस्त त्रिशूल।
माँ गौरी निज भक्त के, हर लेतीं हर शूल।।

महा अष्टमी पर करें, माँ गौरा का ध्यान।
संकट सारे दूर हों, मिले अभय का दान।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

फोटो गूगल से साभार

Thursday, 3 April 2025

कालरात्रि नमो नमः...

काला है माँ का बदन...

सघन गहन अँधियार सा, रूप विकट विकराल।
घन बिच बिजुरी सी लसे, गल विद्युत की माल।।

काला है माँ का बदन,   काले बिखरे बाल।
दुष्टों के हित धारतीं, काल रूप विकराल।।

श्यामल है माँ का बदन, कालरात्रि है नाम।
दुष्टों का संहार कर,    पहुँचाती निज धाम।।

गर्दभ वाहन मातु का, कर में खड्ग कटार।
अभय भक्त को दे रहीं, कर खल का संहार।।

लपट आग की नाक से, निकल रही अविराम।
गर्दभ वाहन मातु का,         त्रिपुर भैरवी नाम।।

रूप भयंकर काल सा, देतीं शुभता दान।
वरद हस्त रख शीश पर, करतीं अभय प्रदान।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह " किंजल्किनी" से


फोटो गूगल से साभार

Wednesday, 2 April 2025

जय माता स्कंद की...

जय हो माँ पद्मासने,       लिए गोद स्कंद।
मुखमंडल पर सोहता, रवि सा तेज अमंद।।

बुद्धि देत कुबुद्धि को, अनपढ़ को दें ज्ञान।
रखें मात स्कंद की,   हर संतति का ध्यान।।

अंक विराजें मात के, बाल रूप स्कंद।
अभय दान दे भक्त को, काटें भौतिक फंद।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद

फोटो गूगल से साभार

Tuesday, 1 April 2025

पूर्ण करो माँ आस...

मुखमंडल पर ओज है, रविमंडल में वास।
जगतजननी कूष्मांडा, पूर्ण करो माँ आस।।

स्मित से माँ की बना, जग क्या सब ब्रह्मांड।
भोग कुम्हड़े का करें,     नाम पड़ा कूष्मांड।।

प्रिय है माँ को कुम्हड़ा, बलि जो इसकी देत।
वरद हस्त रख शीश पर, दुखड़ा हर हर लेत।।

दमके मुखड़ा सूर्य सा, होत जगत उजियार।
दसों दिशाएँ दीप्त कर,  हर लेती अँधियार।।

निर्माता ब्रह्मांड की, देती जीवन दान।
मन को निर्मल साफ रख, कर लो माँ का ध्यान।।

माता के मन को रुचे, मालपुए का भोग।
भोग लगाए जो इन्हें, हर लें उसके रोग।।

चलीं बैठ माँ शेर पर, करने को आखेट।
चुन-चुन सारे दैत्य को, करतीं मटियामेट।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )


                                🙏🙏

फोटो गूगल से साभार