वन दुनिया के फेफड़े, तलछट देते छान।
शुद्ध करें जलवायु को, वन हैं देव समान।।
वृक्ष हमारे देव हैं, वृक्ष हमारे इष्ट।
शीत-घाम-तम झेलकर, देते हमें अभीष्ट।।
जंगल-जंगल कट रहे, सूख रहे जल स्रोत।
लिप्सा बढ़ती जा रही, घटती जीवनजोत।।
कुदरत भी हैरान है, देख वनों का अंत।
ठिठकी पलभर सोचती, सौंपूँ किसे बसंत।।
वृक्षों का रोपण करें, रहे धरा संपन्न।
हरियाली चहुँ ओर हो, बहुविध उपजे अन्न।।
कर्म सुसंगत हों सभी, सुधरे जग का वेश।
रहे सुरक्षित वानिकी, खिला-खिला परिवेश।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से
फोटो गूगल से साभार
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