Thursday, 13 March 2025

दोहे... माघ/कुंभ/बसंत/फाग

अपना भारतवर्ष है,   त्यौहारों का देश।
मिलजुल खुशियाँ बाँटना, छुपा यही संदेश।।१।।

सत्य सनातन संस्कृति, शाश्वत सहज सुकृत्य।
धारा अविरल ज्ञान की,     बहे धरा पर नित्य।।२।।

एकसूत्र में बाँधता, महाकुंभ का पर्व।
संस्कारी मन कर रहा, निज संस्कृति पर गर्व।।३।।

संगम तट पर देखिए, मेला लगा अपार।
अमिय कलश ढरका रही, भक्ति की रसधार।।४।।

मैल मनों का धुल गया, मिटी आपसी राढ़।
जागी उर संवेदना,          रिश्ते हुए प्रगाढ़।।५।।

दृश्य मनोरम लख सखी, अद्भुत अकल्पनीय।
छटा घाट की मन बसी, ललित कलित कमनीय।।६।।

आयी माघी पूर्णिमा,  उमड़ा जन सैलाब।
चप्पे-चप्पे पर बिछी, अद्भुत आभा-आब।।७।।

संगम में स्नान कर,          हो जाए उद्धार।
पावन जल का आचमन, हरता मनस-विकार।।८।।

अद्भुत संगम की छटा, अद्भुत जीवन- सत्र।
पिता पुत्र को सौंपते,      शाश्वत इच्छा पत्र।।९।।

संत समागम कर सुगम, दे सात्विक संदेश।
पावन दर्शन कुंभ का,   हरता चिंता-क्लेश।।१०।।

सोच आसुरी त्यागिए, बदल तामसिक वेश।
बदलेंगी जब वृत्तियाँ,      बदलेगा परिवेश।।११।।

रुचि-सनेह-रस-राग जब, होते एकाकार।
मिटें तमस षड़यंत्र सब, सात्विकता साकार।।१२।।

सुघड़ सनातन नीतियाँ, शाश्वत अपना धर्म।
आने वाली पीढ़ियाँ,   समझ सकें यह मर्म।।१३।।

ऋतु बसंत का आगमन, सुखकर ये आगाज।
लौट रहीं फिर रौनकें,     लौट रहे सुख-साज।।१४।।

नया-नया आगाज है, नया-नया उल्लास।
भाव-भंगिमा ले नवल, आया लो मधुमास।।१५।।

कुदरत भी हैरान है,     देख वनों का अंत।
ठिठकी पलभर सोचती, सौंपूँ किसे बसंत।।१६।।

गदराया भू का बदन, झलके मुख पर लाज।
यौवन-मद में झूमता,  कामसखा ऋतुराज।।१७।।

धरती दुल्हन सी सजी, कर सोलह श्रंगार।
ऋतु बसंत का आगमन, शीतल बहे बयार।।१८।।

अधरों पर शतदल खिले, मुख पर खिले गुलाब।
मौसम है मधुमास का,   अंग-अंग पर आब।।१९।।

रूप मधुर ऋतुराज का, अंग माधवी - गंध।
लेखक लेकर लेखनी, लिखते ललित निबंध।।२०।।

साथी मैन बसंत का, लगा रहा मन घात।
कोयल काली कूक कर, करे कुठाराघात।।२१।।

पुष्पचाप धर शर अनी, बेध रहा मन मैन।
पोर-पोर में पीर है,          पोर-पोर बेचैन।।२२।।

ठूँठ हुए हर वृक्ष पर, आए पल्लव-फूल।
पीत बरन भू- सुंदरी, ओढ़े खड़ी दुकूल।।२३।।

नस-नस में रस पूरता, आया फागुन मास।
रिसते रिश्तों में चलो,  भर दें नयी उजास।।२४।।

सुगबुगाहटें फाग की, हवा चली मुँहजोर।
गली-गली में गूँजता,     सन्नाटे का शोर।।२५।।

झरते फूल पलाश के,  लगी वनों में आग।
रंग बनाएँ पीसकर, खेलें हिलमिल  फाग।।२६।।

भर मस्ती में झूमते, मन में लिए उमंग।
हुरियारे - हुरियारिनें,   चले लगाने रंग।।२७।।

गली-गली में हो रहा,   होली का हुड़दंग।
श्वेत-श्याम सी मैं खड़ी, कौन लगाए रंग।।२८।।

नफरत की होली जले, उड़ें प्यार के रंग।
आनंदमय त्यौहार हो, रहें सभी मिल संग।।२९।।

करते उत्सव पर्व ये, खुशियों का संचार।
हर ऋतु-मौसम मनुज ने, गढ़े खूब त्योहार।।३०।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
"दोहा संग्रह" से

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