Monday, 31 March 2025

आयी मीठी ईद...

हर्ष मगन मन नाचते,  हुआ चाँद का दीद।
कितने रोज़ों बाद अब,    आयी मीठी ईद।।

अंत सुखद रमजान का, शुरू हुआ शव्वाल।
रोज़ेदारों को खुदा,         कर दे मालामाल।।

अलग-अलग हों धर्म पर, एक सभी का मर्म।
अच्छे हों या हों बुरे,          फलते सारे कर्म।।

कुरान गीता बाइबिल, सार सभी का एक।
धर्म चुनो कोई मगर,  कर्म करो बस नेक।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )

Saturday, 22 March 2025

जल जीवन आधार...

जल पर निर्भर जिंदगी, जल जीवन आधार।
व्यर्थ न जाए बूँद भी,    खुली न छोड़ो धार।।

वर्षा जीवनदायिनी, वर्षा-जल अनमोल।
बूँद-बूँद संग्रह करो, बिन पैसे बिन तोल।।

कुएँ - वापी - बाबड़ियाँ, नौले - मँगरे - ताल।
अक्षय जल के स्रोत ये, रक्खो इन्हें सँभाल।।

जल के प्राकृत स्रोत सब, होते जाते लुप्त।
जल संकट गहरा रहा,   पड़े हुए हम सुप्त।।

वर्षा जल की खान हैं, जल जीवन-आधार।
सूख न पाएँ स्रोत ये,          भरें रहें भंडार।।

जल संस्कृति को जान नर,जल है देव समान।
मिट न जाए परंपरा,       कर इसका सम्मान।।

लुप्तप्राय जलस्रोत सब, देख रहे हम मूक।
गहराता  संकट विकट, उठती मन में हूक।।

पानी बिन जीवन नहीं, वर्षा जल की खान।
बूँद-बूँद  संग्रह करो, इसका  अमृत  जान।।

बूँद-बूँद से बीज में,    डाल रहे तुम जान।
धन्य-धन्य पर्जन्य तुम, करते कर्म महान।।

वर्षा जल की खान है, जीवन से लवरेज।
व्यर्थ न हो इक बूँद भी, रख लो इन्हें सहेज।।

जंगल-जंगल कट रहे,  सूख रहे जल स्रोत।
लिप्सा बढ़ती जा रही, घटती जीवनजोत।।

सूख रहे जल स्रोत सब, सूखा करे प्रलाप।
पिघल रहे हैं ग्लेशियर, बढ़ता जग का ताप।।

सत्रह प्रतिशत लोग हैं, जल का प्रतिशत चार।
भारतवासी भूलते,        जल जीवन-आधार।।

संरक्षण जल का करें, जाया करें न बूँद।
बेफिक्रे सोएँ नहीं,       दोनों आँखें मूँद।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह 'किंजल्किनी' से

फोटो गूगल से साभार

Friday, 21 March 2025

सीख पायी हूँ तुम्हीं से...

सीख पायी हूँ तुम्हीं से...

था नहीं आसान मुझको,
लिख रही जो गीत लिखना।
सीख पायी हूँ तुम्ही से,
हार पर भी जीत लिखना।

'ये उदासी के अँधेरे,
कुछ पलों में दूर होंगे।
जो करें अपमान तेरा,
मान उनके चूर होंगे।'
थाम कर तुमने सिखाया,
युद्ध को संगीत लिखना।

खामियाँ हैं हर किसी में,
कौन है संपूर्ण जग में ?
तुम सदा ही सीख देते,
क्या रखा है दुश्मनी में ?
थे तुम्हीं जिसने सिखाया,
शत्रु को भी मीत लिखना।

आ रहे अब   काम मेरे,
पाठ जो तुमने सिखाए।
कर रही हूँ पूर्ण चुन-चुन,
स्वप्न जो तुमने दिखाए।
था मुझे अनुभव कहाँ ये,
बादलों पर प्रीत लिखना।

सीख पायी हूँ तुम्हीं से,
हार पर भी जीत लिखना...

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
" गीत सौंधे जिंदगी के" से

Thursday, 20 March 2025

रहे सुरक्षित वानिकी...

वन दुनिया के फेफड़े, तलछट देते छान।
शुद्ध करें जलवायु को, वन हैं देव समान।।

वृक्ष हमारे देव हैं,           वृक्ष हमारे इष्ट।
शीत-घाम-तम झेलकर, देते हमें अभीष्ट।।

जंगल-जंगल कट रहे,  सूख रहे जल स्रोत।
लिप्सा बढ़ती जा रही, घटती जीवनजोत।।

कुदरत भी हैरान है,     देख वनों का अंत।
ठिठकी पलभर सोचती, सौंपूँ किसे बसंत।।

वृक्षों का रोपण करें, रहे धरा संपन्न।
हरियाली चहुँ ओर हो, बहुविध उपजे अन्न।।


कर्म सुसंगत हों सभी,  सुधरे जग का वेश।
रहे सुरक्षित वानिकी, खिला-खिला परिवेश।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
दोहा संग्रह "किंजल्किनी" से

फोटो गूगल से साभार

चिड़िया बैठी सोच में...

छाया दी जिस वृक्ष ने,    पोसा देकर अन्न।
आज उसी को काटता, मानव बड़ा कृतघ्न।।

चिड़िया बैठी सोच में, तिनका-तिनका जोड़।
रचूँ नीड़  किस  वृक्ष पर, कब मानव दे तोड़।।

छीन रहे हम स्वार्थ-वश, वन्य-जीव आवास।
पशु-पक्षी बेघर हुए,           झेल रहे संत्रास।।

नीड़-माँद उजड़े सभी, बिखरे तिनका-पात।
खग-मृग मन-मन कोसते, क्या मानव की जात।।

पादप सत के रोपिए,  पनपे अंतस - बोध।
अहं भाव को रोकिए, बस इतना अनुरोध।।

मिले फसल मनभावनी,        बिरबे ऐसे रोप।
फल आशा-अनुरूप हो, झलके आनन ओप।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
'किंजल्किनी' से

फोटो गूगल से साभार


Thursday, 13 March 2025

दोहे... माघ/कुंभ/बसंत/फाग

अपना भारतवर्ष है,   त्यौहारों का देश।
मिलजुल खुशियाँ बाँटना, छुपा यही संदेश।।१।।

सत्य सनातन संस्कृति, शाश्वत सहज सुकृत्य।
धारा अविरल ज्ञान की,     बहे धरा पर नित्य।।२।।

एकसूत्र में बाँधता, महाकुंभ का पर्व।
संस्कारी मन कर रहा, निज संस्कृति पर गर्व।।३।।

संगम तट पर देखिए, मेला लगा अपार।
अमिय कलश ढरका रही, भक्ति की रसधार।।४।।

मैल मनों का धुल गया, मिटी आपसी राढ़।
जागी उर संवेदना,          रिश्ते हुए प्रगाढ़।।५।।

दृश्य मनोरम लख सखी, अद्भुत अकल्पनीय।
छटा घाट की मन बसी, ललित कलित कमनीय।।६।।

आयी माघी पूर्णिमा,  उमड़ा जन सैलाब।
चप्पे-चप्पे पर बिछी, अद्भुत आभा-आब।।७।।

संगम में स्नान कर,          हो जाए उद्धार।
पावन जल का आचमन, हरता मनस-विकार।।८।।

अद्भुत संगम की छटा, अद्भुत जीवन- सत्र।
पिता पुत्र को सौंपते,      शाश्वत इच्छा पत्र।।९।।

संत समागम कर सुगम, दे सात्विक संदेश।
पावन दर्शन कुंभ का,   हरता चिंता-क्लेश।।१०।।

सोच आसुरी त्यागिए, बदल तामसिक वेश।
बदलेंगी जब वृत्तियाँ,      बदलेगा परिवेश।।११।।

रुचि-सनेह-रस-राग जब, होते एकाकार।
मिटें तमस षड़यंत्र सब, सात्विकता साकार।।१२।।

सुघड़ सनातन नीतियाँ, शाश्वत अपना धर्म।
आने वाली पीढ़ियाँ,   समझ सकें यह मर्म।।१३।।

ऋतु बसंत का आगमन, सुखकर ये आगाज।
लौट रहीं फिर रौनकें,     लौट रहे सुख-साज।।१४।।

नया-नया आगाज है, नया-नया उल्लास।
भाव-भंगिमा ले नवल, आया लो मधुमास।।१५।।

कुदरत भी हैरान है,     देख वनों का अंत।
ठिठकी पलभर सोचती, सौंपूँ किसे बसंत।।१६।।

गदराया भू का बदन, झलके मुख पर लाज।
यौवन-मद में झूमता,  कामसखा ऋतुराज।।१७।।

धरती दुल्हन सी सजी, कर सोलह श्रंगार।
ऋतु बसंत का आगमन, शीतल बहे बयार।।१८।।

अधरों पर शतदल खिले, मुख पर खिले गुलाब।
मौसम है मधुमास का,   अंग-अंग पर आब।।१९।।

रूप मधुर ऋतुराज का, अंग माधवी - गंध।
लेखक लेकर लेखनी, लिखते ललित निबंध।।२०।।

साथी मैन बसंत का, लगा रहा मन घात।
कोयल काली कूक कर, करे कुठाराघात।।२१।।

पुष्पचाप धर शर अनी, बेध रहा मन मैन।
पोर-पोर में पीर है,          पोर-पोर बेचैन।।२२।।

ठूँठ हुए हर वृक्ष पर, आए पल्लव-फूल।
पीत बरन भू- सुंदरी, ओढ़े खड़ी दुकूल।।२३।।

नस-नस में रस पूरता, आया फागुन मास।
रिसते रिश्तों में चलो,  भर दें नयी उजास।।२४।।

सुगबुगाहटें फाग की, हवा चली मुँहजोर।
गली-गली में गूँजता,     सन्नाटे का शोर।।२५।।

झरते फूल पलाश के,  लगी वनों में आग।
रंग बनाएँ पीसकर, खेलें हिलमिल  फाग।।२६।।

भर मस्ती में झूमते, मन में लिए उमंग।
हुरियारे - हुरियारिनें,   चले लगाने रंग।।२७।।

गली-गली में हो रहा,   होली का हुड़दंग।
श्वेत-श्याम सी मैं खड़ी, कौन लगाए रंग।।२८।।

नफरत की होली जले, उड़ें प्यार के रंग।
आनंदमय त्यौहार हो, रहें सभी मिल संग।।२९।।

करते उत्सव पर्व ये, खुशियों का संचार।
हर ऋतु-मौसम मनुज ने, गढ़े खूब त्योहार।।३०।।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
"दोहा संग्रह" से

Friday, 7 March 2025

हम न थे...


१- हम न थे...

चाँद भी था चाँदनी भी, हमनशीं भी हम न थे।
साथ में थे सब सितारे,   बदनसीबी हम न थे।

चल रहे थे साथ हिलमिल, हम सदा से आज तक।
था वही क्या एक अपना, हमकदम क्या हम न थे ?

क्या कहें दिल की लगी को, होश ही गुम हो रहे।
जी रहे थे शान से हम, जब तलक ये गम न थे।

झेलते संघर्ष पग-पग, आ गये इस मोड़ तक।
जिंदगी में रोज घटते,  हादसे भी कम न थे।

दूर तक वीरानगी थी, चुप्पियों को चीरती।
थीं कहाँ अब वे फिजाएँ, वे हसीं मौसम न थे।

हो गया सुख-साज सपना, याद ही कुछ शेष हैं।
दोष सब ये भाग्य का है, सच फरेबी हम न थे।

रच रहा षड़यंत्र कोई, था हमें 'सीमा' यकीं।
जी रहे थे आस में बस, मुतमइन पर हम न थे।

मुतमइन- आश्वस्त, संतुष्ट, बेफिक्र

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
पुस्तक 'कलम किरण' से

ये सच है या...

मेरे सुख-दुख खँगालता है कोई।
काँटे चुन-चुन निकालता है कोई।

हर घड़ी हर सिम्त नजर मुझ पर गड़ी,
कि जैसे दूध उबालता है कोई।

आँच मुझ तलक न आने देता कभी,
जब भी बिखरूँ सँभालता है कोई।

हद तक हँसने की हँसता है जालिम,
गम छुपा दिल में पालता है कोई।

पीकर गरल खुशी-खुशी जग का दिया,
जामे मस्तियाँ ढालता है कोई।

दुख के सायों से उबारकर मुझको,
खुशियाँ मुझ तक उछालता है कोई।

हर सच्चाई से वो वाकिफ 'सीमा',
ये सच है या मुगालता है कोई।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ. प्र. )
पुस्तक 'कलम किरण' से