सोनचिरैया देश यह, था जग का सिरमौर।
महकाती सारा जहां, कहाँ गई वह बौर ।।
रक्षक ही भक्षक बने, खींच रहे हैं खाल ।
हे प्रभु ! मेरे देश का, बाँका हो न बाल ।।
आरक्षण के दैत्य ने, प्रतिभा निकली हाय !
देश रसातल जा रहा, अब तो दैव बचाय ।।
झांसे में न आ जाना, सुन कर मीठे बोल ।
दिल की सुनना बाद में, लेना बुद्धि से तोल ।।
बेरोजगारी बढ रही, जनसंख्या के साथ ।
बीसियों पेट भर रहे, केवल दो ही हाथ ।।
मुंह से निकली बात के, लग जाते हैं पैर ।
बात बतंगड गर बने, बढ जाते हैं बैर ।।
फल तो उसके हाथ है, करना तेरे हाथ ।
निरासक्त हो कर्म कर, देगा वो भी साथ ।।
लोभ मोह सब छोड़ कर, कर ले प्रभु का जाप ।
अब तक जितने भी किए, धुल जाऐंगे पाप ।।
यह सभ्यता यह संस्कृति, यह वाणी यह वेष । कुछ भी तो अपना नहीं, बचा नाम बस शेष ।।
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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